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Saturday, 8 July 2017

स्व आलाप .....

किसी खामोश और तन्हा शाम
जब सूर्य की किरणें
समंदर के लहरो से खेलते खेलते
उस में खो जाएँगी ।
दूर दूर तक फैली
उदास सी रेत की चादर
पल पल सिसकते हुए
ओंस सी भीग जायेगी ।

फिर भी एक मधुर स्मित सी रेखा
जो अधर पे उभर जाए
अमावस की काली रात को भेदने के लिए
बस उतना ही काफी है।
कभी कभी इन चेहरों को
मष्तिष्क में उलझी नसों के परिछाई से
आजाद रहने की मोहलत तो दो।

शब्दे एहसास का भाव भर है
हकीकत की इबारत नहीं ।
सब मुस्कुराते से मुखौटे से लगते ही है
क्यों न तुम भी
एक मुस्कुराता मुखौटा ही लगा लो ।
हकीकत से टकराने की अब
न ही इच्छा है न सामर्थ्य ।।

आज नहीं तो कल
हम यूँ ही उलझेंगे जैसे
तुम अंतरात्मा की आवाज होगी
और मैं दुनिया का शोर ।
चिल्लम पों मचाएंगे एक साथ
जो प्रतिध्वनि धीरे धीरे फैलेगी चहुँ ओर
हर के लिए उसमे
अपने जीवन का संगीत दिखेगा ।
क्योंकि सुर मिलकर
आजकल एकाकार कब होते ।
कर्कश की कर्कशता में हम घुल गए
यही तो सर्वोत्तम आलाप है।।