उसकी उलझने मन में उठते भावो को सुलझाने की नहीं थी।
वो तो और उलझना चाहती थी इस हद तक की उन उलझनों की गाँठ साँसों के आरोह अवरोह के अंतरजाल के संग अंत तक इसके टूटने पर भी न छूटे। वह तृष्णा और वितृष्णा के मध्य उठने वाले लहर पर सवार होकर न जाने दिल की कितनी गहराइयो में डूबती और उतरती रहती थी। अथाह समंदर की इन गहराइयो में उसे अपने मन में छिपे मोती की तलाश कभी कभी रेगिस्तान में जल की बूंदों की मृगतृष्णा की भांति एक अनंत यात्रा थी। जिसमे ठहराव तो था लेकिन अंत नहीं, जिश्म बोझिल तो होता मगर मन की उमंग पूर्ववत की भांति हिलोडे लेते रहती। उसने तो सीधी पगडण्डी की कभी कल्पना भी नहीं की। यह तो उसका मन जनता था कि यह पगडण्डी इतनी वक्र रेखाओं का समागम है जहा उसके राह अदृश्य से ही नजर आते थे।
वो तो और उलझना चाहती थी इस हद तक की उन उलझनों की गाँठ साँसों के आरोह अवरोह के अंतरजाल के संग अंत तक इसके टूटने पर भी न छूटे। वह तृष्णा और वितृष्णा के मध्य उठने वाले लहर पर सवार होकर न जाने दिल की कितनी गहराइयो में डूबती और उतरती रहती थी। अथाह समंदर की इन गहराइयो में उसे अपने मन में छिपे मोती की तलाश कभी कभी रेगिस्तान में जल की बूंदों की मृगतृष्णा की भांति एक अनंत यात्रा थी। जिसमे ठहराव तो था लेकिन अंत नहीं, जिश्म बोझिल तो होता मगर मन की उमंग पूर्ववत की भांति हिलोडे लेते रहती। उसने तो सीधी पगडण्डी की कभी कल्पना भी नहीं की। यह तो उसका मन जनता था कि यह पगडण्डी इतनी वक्र रेखाओं का समागम है जहा उसके राह अदृश्य से ही नजर आते थे।
किंतु वह यह भी जानती थी की यह अदृश्य तरंग जो बार बार उसे एक मोह पाश में जकड रखा उसको न जाने कितने हाथियों के बल के साथ उसे आकर्षित करती है। वह बिलकुल अपने से परे हो गई है ...खुद का मन खुद से परे होकर अजनबी हो जाना । खुद को ढूंढे या फिर..?
मन और काया पर यह अदृश्य एकाधिकार आखिर कैसे किसी ने कर लिया ।
आखिर इतना निर्बल कैसे महसूस कर रही है? शुष्कता के निर्झर मन में ये सोता कहा से फूटा है? शब्दो का कोई भी समागम उसके कानों को स्वर लहरी सा क्यों कर्ण प्रिय हो रहा है।
आखिर इतना निर्बल कैसे महसूस कर रही है? शुष्कता के निर्झर मन में ये सोता कहा से फूटा है? शब्दो का कोई भी समागम उसके कानों को स्वर लहरी सा क्यों कर्ण प्रिय हो रहा है।
जितना ही इन उलझनों में खोती जाती उसका मन उतना ही आसमान की उन असीम में विचरने लगता जहा श्वेत धवल प्रकास सा निश्छल प्रेम न जाने कई रंगों में बिखरा हुआ है। फिर वह इन्ही रंगों में उलझ कर रह जाती।
उसका मन इन भावों से ऐसे तैर रहा है जैसे कमल के पत्ते पर जल की बुँदे। बिलकुल इधर से उधर छलकते हुए। वह स्थिर होना चाहती पर चाह कर भी हो नहीं पाती। निश्छल मन में भावो के बुँदे यूँ ही तैरते रहते है।जितना भी चाहो स्थिर करना कठिन होता है। इन भावो को स्थिर करने के लिए क्या निश्छल मन को समझदारी के खुरदुरेपन से कुरेद दिया जाय। इन उलझनों के झूले में बैठ उसका मन न जाने कितनी ऊँचाई पर जाके हौले हौले उसी जगह मायूस हो स्थिर हो जाती जहा से मन पंख फैलता।
कभी कभी खुद से अपरचित हो स्वयं की तलाश में जाने कहाँ तक यूँ ही अनवरत विचरण करती रही। द्वन्द के अनुराग और विराग ...? स्वयं से अनुराग या स्वयं से विराग..? अनुत्तरित प्रश्न के इन मकड़ जाल पर लिपट कर और भी न जाने कितने जाल उलझाती जाती..। जैसे
कभी कभी खुद से अपरचित हो स्वयं की तलाश में जाने कहाँ तक यूँ ही अनवरत विचरण करती रही। द्वन्द के अनुराग और विराग ...? स्वयं से अनुराग या स्वयं से विराग..? अनुत्तरित प्रश्न के इन मकड़ जाल पर लिपट कर और भी न जाने कितने जाल उलझाती जाती..। जैसे
वो इन उलझनों से बाहर नहीं आना चाहती ...जाने क्यों?