Pages

Sunday, 28 June 2020

गतिशील लोकतंत्र

वो बहरे है..
सबने कहा हाँ बहरे है ।
वो अंधे है..
सबने कहा हाँ अंधे है।
वो गूंगे है...
सबने कहा हाँ गूंगे है।

चुनावी मंथन में
मशवरा अब अंत पर है ।
बोलो तो सुन नही पाएंगे,
दिखाओ तो देख नही पाएंगे,
अधिकार मांग नही पाएंगे,
तो फिर दिक्कत कहाँ है..?
और चुनावी प्रचार शुरू हो गया।

जो पार्टी जीती ...
उसने कहा ऐसा कुछ नही है
जनता जनार्दन है..।
हारने वाले पार्टी ने अब तक
मतदाता को बापू के बंदर ही समझ है।
किन्तु इसमे शक नही की
गतिशील लोकतंत्र उन्नति के पथ पर अग्रसर है।।

Sunday, 21 June 2020

पितृ दिवस...दिन से परे भाव

            भाव जब शब्द से परे हो तो उसे उकेडने का प्रयास जदोजहद से भरी होती है। हर समय मन का भाव स्वयं में द्वंद करता है । इसलिए भगवान कृष्ण ने मन को "द्वंदातीत" कहा है।फिर शब्दो मे इसका संशय हमेशा बना रहता है कि जीवन के अद्भुत रंगों में कोई-न-कोई रंग छूट ही जाता है। फिर उस तस्वीर के ऊपर एक और कोरा कागज एक नए तस्वीर की तैयारी।

               हर तस्वीर में कुछ न कुछ कमी रह जाती है। यह जानते हुए भी समग्र को समेटने का प्रयास निष्फल ही होगा ।फिर भी प्रयास करना है यह प्रथम पाठ भी अबोध मन पर उन्ही का लेखन है। जब अनुशासन के उष्म आवरण की गर्मी दिल में एक बैचैनी देता तो आँखों से सब कष्ट हर लेने का दिलाशा भी उनके व्यक्तित्व के आयाम में छिपे रहते थे। जो वर्षों बाद इन तुच्छ नजरो को दृष्टिगोचर हो पाया। निहायत सामान्य से व्यक्तिव्य में असामान्य जीवन के कई पहलूँ को लेकर चलना सामान्य व्यक्तिव्य नहीं हो सकता। शून्य के दहलीज से सारा आसमान को छू लेने के यथार्थ को मापने के पारम्परिक  पैमाने इसके लिए उपयुक्त नहीं है। प्रतिफल का आज जिस मधुरता के रस में  घुला हुआ हमें मिला है  उसमे उनके स्वयं के वर्तमान की आहुति से कम क्या होगा? वो ऋषि की तपोसाधना और उसके बरदान स्वरूप हमारा आज।

                  मुख से निकले शब्द .....अंतिम सत्य और प्रश्न चिन्ह की गुंजाइश पर मष्तिष्क खुद ही प्रश्न निगल जाए ....। बेसक कई बार अबोध मन में प्रतिरोध की भाव दिल में उष्णता का अनुभव दे । किन्तु मन में बंधे भरोसे के ताल में सब विलीन हो जाते। आँखों के सम्मोहित तेज का भय या श्रद्धा या कुछ और ...जो कहे पर हम सबके आँख सदा मिलने से कतराती ही रही। उस तेज का सामना करने का सामर्थ्य  अनुत्तरित ही रहा। लेकिन जीवन दर्शन से भरी बातें अब भी कानो को वैसे ही तृप्त करता है, जैसे कभी वो जीवन दर्शन के जल से इन नन्हे पौधों को सींचा करते थे।

                    कई बार गीता पढ़ा लेकिन यथार्थ का अनुभव वस्त्र के तंतू बिखरने के बाद ही चला । जब सब कुछ होने पर भी शून्य दीखने लगा । किंतु  फिर वो अनुभति जो कदम कदम पर साथ चलने का अहसास और किकर्व्यविमूढ़ भाव पर दिशा दर्शन का भाव, अब भी मुक्त काया के साथ यथार्थ तो पल पल है।अब भी वो साथ है। यह संवेदना से भरे भाव न होकर यथार्थ का साक्षत्कार है। जिसे शब्दो की श्रृंखला में समेटना आसान नहीं है।

                       उधार में लिए गए नए रवायत को जब हमारा आज, उस समृद्ध संस्कृति की मूल्यों को ढोने में अक्षम है तो फिर कम से कम एक दिन के महत्व को प्रश्नों के घेरे में रखना  आज तो संभवतः अनुचित ही है...?

                        यह भाव एवम भावना दिन और काल से परे है, जो सास्वत सत्य की तरह सांसो में प्रत्येक क्षण घुला हुआ रहता है। फिर भी.......पितृ दिवस की शुभकामनाएं।।

Sunday, 7 June 2020

बढ़ते आकंड़े.....कोरोना डायरी

                 आंकड़ो के बढ़ते उफान से भावनाओ को विचलित न होने दे,सिर्फ संवेदनशील होने की जरुरत है। आपका व्यस्त दिनचर्या आपको इसकी इजाजत नहीं देगा ।क्योकि आप चाहते हुए भी खुद से मजबूर है और शासन,अर्थ की व्यवस्था से मजबूर है। यह भी खबर में चलचित्र की भांति आएगा, आरोपो और प्रत्यारोपो के बीच समय खबरनवीस को खबर पर बने रहने की इजाजत नहीं देगा । क्योंकि समय की अपनी रफ़्तार है जिसके किसी भी नोक पर आप रुक नहीं सकते। 

                    हम एक  अँधेरी साया के तले सफर कर रहे है, खैर मना सकते है कि इस पर भी सब कुछ दिखने का आप भ्रम पाले हुए है। यह कुछ "वादों" को लेकर सिर्फ "विवादो"  का कारण है ऐसा नहीं , जीवन को जीने के लिए जीवन को खोने के संघर्ष की गाथा पुरातन से नवीनतम की धुरी पर काल चक्र की भांति अग्रसर है।  हम फिर भी अभिमान से अतिरंजित है......धरती को सींचकर जीवन फसल उगाने वाले किसान हो या श्रम साध्य वर्ग की पलायन गाथा हो।जो  जीवन दृष्टि की तलाश में कैसे कितने कदम मंजिल पूर्व ही ठहर गए या मंजिल की तलाश में कहीं विलीन हो गये।जीवन निर्वहन के लिए याचनाओं के वाचक समूह की रक्तिम सिचाई परती हृदयकथा सी है।

                     मैं वाकई इससे भ्रमित हूं ...सीमाओं के बंधन में चिंता की लकीरें खिंच रही है...जो स्वयं के विरोधाभासी द्वन्द की रेखा लगाती है....? फिर आप अपने ही लोगो से ऐसा व्यवहार इस कोरोना काल मे करते है,जो स्वयं में अपेक्षित नही होता है। शासन से बंधे होने की दुश्वारियां आपके समग्र मष्तिष्क को हर बदलते आदेश के साथ कितना दिग्भ्रमित करता है...जो सिंघासन से बंधे होते है, वो अनुभव करते है। एक ही समय के लिए एक ही तथ्य के अर्थ को आप कैसे सुविधानुसार व्यख्या करते है, ये जानते हुए भी की इन तथ्यों का सत्य और असत्य के किसी मानदंड से कोई सरोकार न होकर सिर्फ आप निष्पादन की प्रक्रिया को पूरा कर रहे है। फिर इन विरोधाभाषी चिंत्तन में पड़ते है तो कई प्रकार के विरोधाभास में विचरण करते है।

                  यह समय विरोधाभास का है, इसलिए ज्यादा भ्रमित न हो और संभव हो तो घर मे रहे और बाहर निकले तो मास्क लगाए।ताकी आपका विरोधाभासी चेहरा किसी को नजर न आये और आप कोरोना से सुरक्षित भी रहे.....है कि नही....आप भी सोचिये ...।।