चेतन चौहान का क्रिकेट कैरियर बचपन के धुंधलके तस्वीरों में बैठा हुआ है। जब क्रिकेट की दुनिया रेडियो के इर्द-गिर्द घूमती थी।हमे याद है कि उस समय टेस्ट मैच की रंनिंग कॉमेंट्री को सुनने वाले साथ में कॉपी और पेन रखते थे और टेबल उनका मैदान होता था।किसी स्कोरर की तरह बाकायदा हर गेंद पर उसे लिखते थे। उस समय कितने गेंद पर उनका खाता खुलेगा ये क्रिकेट प्रेमियों में चर्चा और हो सकता हो "ऑफ-ग्राउंड सट्टे" की शुरुआती दौर हो।
उस समय तक चेतन चौहान के नाम से हम वाकिफ हो गए थे।लेकिन वो क्रिकेट में हमारे लिए तब तक सामान्य ज्ञान के प्रश्न के रूप में बदल चुके थे और इसका प्रदर्शन अपने आप को ज्यादा जानकर इसे बाउंसर के रूप में फेंक कर कहते-अच्छा बताओ ऐसा कौन सा बैट्समैन है जो अपने क्रिकेट कैरियर में एक भी शतक नही बनाया? बैट्समैन होते हुए शतक न बनाने के कारण सबसे ज्यादा ज्यादा याद किये जाने वाले में शायद चेतन चौहान ही होंगे।
वक्त के साथ उन्होंने मैदान बदल दिया, किन्तु राजनीति के पिच पर बनाये गए उनके स्कोर के बनिस्बत भी वो हमेशा संभवतः वो एक क्रिकेटर के रूप में ही याद किये जायेंगे।भगवान दिवंगत आत्मा को शांति प्रदान करे।ॐ शांति..
अमंत्रं अक्षरं नास्ति , नास्ति मूलं अनौषधं । अयोग्यः पुरुषः नास्ति, योजकः तत्र दुर्लभ: ॥ "कोई अक्षर ऐसा नही है जिससे (कोई) मन्त्र न शुरु होता हो , कोई ऐसा मूल (जड़) नही है , जिससे कोई औषधि न बनती हो और कोई भी आदमी अयोग्यनही होता , उसको काम मे लेने वाले (मैनेजर) ही दुर्लभ हैं ।" — शुक्राचार्य
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Sunday, 16 August 2020
चेतन चौहान.......श्रद्धांजली
Tuesday, 11 August 2020
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की शुभकामनाएं
आज श्रीकृष्ण जन्माष्टमी है। सभी को हार्दिक शुभकामनाएं।इस अवसर पर प्रखर राजनीतिक विचारक और दार्शनिक डॉ राममनोहर लोहिया द्वारा श्रीकृष्ण पर लिखे उनके लेख पढ़िए।उपरोक्त्त लेख "लोहिया के सौ वर्ष" नामक पुस्तक से लिये गए संपादित अँश है।।।
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त्रेता का राम ऐसा मनुष्य है जो निरंतर देव बनने की कोशिश करता है।इसलिए उनमे आसमान के देवता का अंश कुछ अधिक है।द्वापर का कृष्ण ऐसा देव है जो निरंतर मनुष्य बने रहने की कोशिश करता है।कृष्ण सम्पूर्ण और अबोध मनुष्य है।निर्लिप्त भोग का महान त्यागी और योगी। कृष्ण देव होता हुआ निरंतर मनुष्य बनता रहा।देव और निस्व और असीमित होने के नाते कृष्ण में जो असंभव मनुष्यताएं है,जैसे झूठ,धोखाऔर हत्या,उनकी नकल करने वाले लोग मूर्ख है उसमें कृष्ण का क्या दोष?कृष्ण ने खुद गीत गाया है "स्थितिप्रज्ञ" का, ऐसे मनुष्य का जो अपने शक्ति का पूरा और जमकर इस्तेमाल करता है।"कूर्मोङ्गनीव" बताया है ऐसे मनुष्य को।कछुए की तरह यह मनुष्य अपने अंगों को बटोरता है,अपनी इन्द्रियों पर इतना सम्पूर्ण प्रभुत्व है इसका की इन्द्रीयार्थो से उन्हें पूरी तरह हटा लेता है।'कूर्मोगानीव' और 'समग्र-अंग-एकांग्री' मनुष्य को बनना है।यही तो देवता की मनुष्य बनने की कोशिश है।
कृष्ण बहुत अधिक हिंदुस्तान के साथ जुड़ा हुआ है। हिंदुस्तान के ज्यादातर देव और अवतार मिट्टी के साथ सने हुए है।मिट्टी से अलग करने पर वो बहुत कुछ निष्प्राण हो जाते है।त्रेता का राम हिंदुस्तान की उत्तर-दक्षिण एकता का देव है।द्वापर का कृष्ण देश की पूर्व-पश्चिम एकता का देव है। राम उत्तर- दक्षिण और कृष्ण पूर्व-पश्चिम धुरी पर घूमे। कृष्ण को वास्ता पड़ा अपने ही लोगो से।एक ही सभ्यता के दो अंगों में से एक को लेकर भारत की पूर्वी-पश्चिम एकता कृष्ण को स्थापित करनी पड़ी।काम मे पेच ज्यादा थे।तरह-तरह की संधि और विग्रह का क्रम चला।न जाने कितने चालाकिया और धूर्तताये भी हुईं। राजनीति का निचोड़ भी सामने आया -ऐसा छनकर जैसा फिर और न हुआ।
यो हिंदुस्तान में और भी देवता है,जिन्होंने अपना पराक्रम भागकर दिखाया जैसे ज्ञानवापी के शिव ने।यह पुराना देश है।लड़ते-लड़ते थके हड्डियों को भागने का अवसर मिलना चाहिए।लेकिन कृष्ण थकी पिंडलियों के कारण नही भागा । वह भागा जवानी की बढ़ती हुई हड्डियों के कारण।अभी हड्डियों को को बढ़ाने और फैलाने का मौका मिलना चाहिए था।लेकिन भागा भी बड़ी दूर द्वारका में। तभी तो उसका नाम "रणछोड़दास" पड़ा।कृष्ण की पहली लड़ाई तो आजकल के छापामार लडाई की तरह थी,वार करो और भागो।अफसोस यह है कि कुछ भक्त लोग भागने में ही मजा लेते है।
कृष्ण त्रिकालदर्शी थे।उसने देख लिया होगा कि उत्तर-पश्चिम में आगे चलकर यूनानियों, हूणों,पठानों,मुगलो आदि के आक्रमण होंगे।इसलिए भारतीय एकता के धुरी का केंद्र कही वही होना चाहिए,जो इन आक्रमणों का सशक्त मुकाबला कर सके।लेकिन त्रिकालदर्शी क्यों न देख पाया कि इन विदेशी आक्रमणों के पहले ही देशी मगध धुरी बदला चुकायेगी और सैकड़ो वर्ष तक भारत पर अपना प्रभुत्व कायम करेगी और आक्रमण के समय तक कृष्ण के भूमि के नजदीक यानी कन्नौज और उज्जैन तक खिसक चुकी होगी।किन्तु अशक्त अवस्था मे त्रिकालदर्शी ने देखा,शायद यह सब कुछ हो,लेकिन कुछ न कर सका हो।वह हमेशा के लिए कैसे अपने देशवासियों को ज्ञानी और साधु दोनों बनाता।वह तो केवल रास्ता दिखा सकता था।रास्ते मे भी शायद त्रुटि थी।त्रिकालदर्शी को यह भी देखना चाहिए था कि उसके रास्ते पर ज्ञानी ही नही अनाड़ी भी चलेंगे और वे कितना भारी नुकसान उठाएंगे ।राम के रास्ते चलकर अनाड़ी का भी अधिक नही बिगड़ता,चाहे बनना भी कम होता है।
राम त्रेता के मीठे, शांत और सुसंस्कृत युग के देव है।कृष्ण पके,जटिल,तीखे और प्रखर बुद्धि-युग का देव है।राम गम्य है जबकि श्रीकृष्ण अगम्य है। कैसे मन और वाणी थे उस कृष्ण के।अब भी तब की गोपियां और जो चाहे वे,उसकी वाणी और मुरली की तान सुनकर रासविभोर हो सकते है और अपने चमड़े के बाहर उछल सकते है।साथ ही कर्म-संग के त्याग, सुख-दुख, शीत-उष्ण, जय-अजय के समत्व के योग और सब भूतों में एक अव्यय भाव का सुरीला दर्शन उसके वाणी से सुन सकती है।संसार मे एक कृष्ण ही हुआ जिसने दर्शन को गीत बनाया।
कौन जाने कृष्ण तुम थे या नही।कैसे तुमने राधा लीला को कुरु लीला से निभाया।लोग कहते है कि युवा कृष्ण का प्रौढ़ कृष्ण से कोई संबंध नही।बताते है कि महाभारत में राधा नाम तक नही।बात इतनी सच नही,क्योंकि शिशुपाल ने क्रोध में कृष्ण को पुरानी बातें साधारण तौर पे बिना नामकरण के बताई है।सभ्य लोग ऐसे जिक्र असमय नही किया करते,जो समझते है वे,और जो नही समझते वे भी।महाभारत में राधा का जिक्र हो कैसे सकता हैं।राधा का वर्णन तो वही होगा जहाँ तीन लोक का स्वामी उसका दास है।रास का कृष्ण और गीता का कृष्ण एक है।न जाने हजारो वर्षो से अभी तक पलड़ा इधर या उधर क्यों भारी हो जाता है? बताओ कृष्ण!
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त्रेता का राम ऐसा मनुष्य है जो निरंतर देव बनने की कोशिश करता है।इसलिए उनमे आसमान के देवता का अंश कुछ अधिक है।द्वापर का कृष्ण ऐसा देव है जो निरंतर मनुष्य बने रहने की कोशिश करता है।कृष्ण सम्पूर्ण और अबोध मनुष्य है।निर्लिप्त भोग का महान त्यागी और योगी। कृष्ण देव होता हुआ निरंतर मनुष्य बनता रहा।देव और निस्व और असीमित होने के नाते कृष्ण में जो असंभव मनुष्यताएं है,जैसे झूठ,धोखाऔर हत्या,उनकी नकल करने वाले लोग मूर्ख है उसमें कृष्ण का क्या दोष?कृष्ण ने खुद गीत गाया है "स्थितिप्रज्ञ" का, ऐसे मनुष्य का जो अपने शक्ति का पूरा और जमकर इस्तेमाल करता है।"कूर्मोङ्गनीव" बताया है ऐसे मनुष्य को।कछुए की तरह यह मनुष्य अपने अंगों को बटोरता है,अपनी इन्द्रियों पर इतना सम्पूर्ण प्रभुत्व है इसका की इन्द्रीयार्थो से उन्हें पूरी तरह हटा लेता है।'कूर्मोगानीव' और 'समग्र-अंग-एकांग्री' मनुष्य को बनना है।यही तो देवता की मनुष्य बनने की कोशिश है।
कृष्ण बहुत अधिक हिंदुस्तान के साथ जुड़ा हुआ है। हिंदुस्तान के ज्यादातर देव और अवतार मिट्टी के साथ सने हुए है।मिट्टी से अलग करने पर वो बहुत कुछ निष्प्राण हो जाते है।त्रेता का राम हिंदुस्तान की उत्तर-दक्षिण एकता का देव है।द्वापर का कृष्ण देश की पूर्व-पश्चिम एकता का देव है। राम उत्तर- दक्षिण और कृष्ण पूर्व-पश्चिम धुरी पर घूमे। कृष्ण को वास्ता पड़ा अपने ही लोगो से।एक ही सभ्यता के दो अंगों में से एक को लेकर भारत की पूर्वी-पश्चिम एकता कृष्ण को स्थापित करनी पड़ी।काम मे पेच ज्यादा थे।तरह-तरह की संधि और विग्रह का क्रम चला।न जाने कितने चालाकिया और धूर्तताये भी हुईं। राजनीति का निचोड़ भी सामने आया -ऐसा छनकर जैसा फिर और न हुआ।
यो हिंदुस्तान में और भी देवता है,जिन्होंने अपना पराक्रम भागकर दिखाया जैसे ज्ञानवापी के शिव ने।यह पुराना देश है।लड़ते-लड़ते थके हड्डियों को भागने का अवसर मिलना चाहिए।लेकिन कृष्ण थकी पिंडलियों के कारण नही भागा । वह भागा जवानी की बढ़ती हुई हड्डियों के कारण।अभी हड्डियों को को बढ़ाने और फैलाने का मौका मिलना चाहिए था।लेकिन भागा भी बड़ी दूर द्वारका में। तभी तो उसका नाम "रणछोड़दास" पड़ा।कृष्ण की पहली लड़ाई तो आजकल के छापामार लडाई की तरह थी,वार करो और भागो।अफसोस यह है कि कुछ भक्त लोग भागने में ही मजा लेते है।
कृष्ण त्रिकालदर्शी थे।उसने देख लिया होगा कि उत्तर-पश्चिम में आगे चलकर यूनानियों, हूणों,पठानों,मुगलो आदि के आक्रमण होंगे।इसलिए भारतीय एकता के धुरी का केंद्र कही वही होना चाहिए,जो इन आक्रमणों का सशक्त मुकाबला कर सके।लेकिन त्रिकालदर्शी क्यों न देख पाया कि इन विदेशी आक्रमणों के पहले ही देशी मगध धुरी बदला चुकायेगी और सैकड़ो वर्ष तक भारत पर अपना प्रभुत्व कायम करेगी और आक्रमण के समय तक कृष्ण के भूमि के नजदीक यानी कन्नौज और उज्जैन तक खिसक चुकी होगी।किन्तु अशक्त अवस्था मे त्रिकालदर्शी ने देखा,शायद यह सब कुछ हो,लेकिन कुछ न कर सका हो।वह हमेशा के लिए कैसे अपने देशवासियों को ज्ञानी और साधु दोनों बनाता।वह तो केवल रास्ता दिखा सकता था।रास्ते मे भी शायद त्रुटि थी।त्रिकालदर्शी को यह भी देखना चाहिए था कि उसके रास्ते पर ज्ञानी ही नही अनाड़ी भी चलेंगे और वे कितना भारी नुकसान उठाएंगे ।राम के रास्ते चलकर अनाड़ी का भी अधिक नही बिगड़ता,चाहे बनना भी कम होता है।
राम त्रेता के मीठे, शांत और सुसंस्कृत युग के देव है।कृष्ण पके,जटिल,तीखे और प्रखर बुद्धि-युग का देव है।राम गम्य है जबकि श्रीकृष्ण अगम्य है। कैसे मन और वाणी थे उस कृष्ण के।अब भी तब की गोपियां और जो चाहे वे,उसकी वाणी और मुरली की तान सुनकर रासविभोर हो सकते है और अपने चमड़े के बाहर उछल सकते है।साथ ही कर्म-संग के त्याग, सुख-दुख, शीत-उष्ण, जय-अजय के समत्व के योग और सब भूतों में एक अव्यय भाव का सुरीला दर्शन उसके वाणी से सुन सकती है।संसार मे एक कृष्ण ही हुआ जिसने दर्शन को गीत बनाया।
कौन जाने कृष्ण तुम थे या नही।कैसे तुमने राधा लीला को कुरु लीला से निभाया।लोग कहते है कि युवा कृष्ण का प्रौढ़ कृष्ण से कोई संबंध नही।बताते है कि महाभारत में राधा नाम तक नही।बात इतनी सच नही,क्योंकि शिशुपाल ने क्रोध में कृष्ण को पुरानी बातें साधारण तौर पे बिना नामकरण के बताई है।सभ्य लोग ऐसे जिक्र असमय नही किया करते,जो समझते है वे,और जो नही समझते वे भी।महाभारत में राधा का जिक्र हो कैसे सकता हैं।राधा का वर्णन तो वही होगा जहाँ तीन लोक का स्वामी उसका दास है।रास का कृष्ण और गीता का कृष्ण एक है।न जाने हजारो वर्षो से अभी तक पलड़ा इधर या उधर क्यों भारी हो जाता है? बताओ कृष्ण!
(------ 1955,जुलाई; "जन" से-////)