अमंत्रं अक्षरं नास्ति , नास्ति मूलं अनौषधं । अयोग्यः पुरुषः नास्ति, योजकः तत्र दुर्लभ: ॥ "कोई अक्षर ऐसा नही है जिससे (कोई) मन्त्र न शुरु होता हो , कोई ऐसा मूल (जड़) नही है , जिससे कोई औषधि न बनती हो और कोई भी आदमी अयोग्यनही होता , उसको काम मे लेने वाले (मैनेजर) ही दुर्लभ हैं ।" — शुक्राचार्य
Wednesday 14 August 2013
Monday 12 August 2013
निर्वात
इस तरह क्या देखते हो ?क्या देखने से बात बदल जाएगी।
हा क्यों नहीं। ऐसी कौन सी बात है जो चिर-स्थाई रहती है. वक्त के आँधी में कुछ उड़ जाते है नहीं तो समय काटता भी है और उसे गलाता भी है. उसे पुनः कोई न कोई तो आकार लेना ही है. निराकार तो मन भी नहीं बस उसको ढूडना है ।
तो क्या तुम अब भी देख पा रहे हो की इसमें अभी भी तुम्हारे लिए कुछ रखा है.।
अंतर्मन का रास्ता तो इसी बार्यह चक्षु से होकर जाता है। मै उसमे झाकने की कोशिश कर रहा हु.शायद अब भी कोई कोना ऐसा हो जहा तुमने कुछ जगह बचा रखी हो.।पहले नजरो में तो तस्वीर कई की झलकती थी,मुझे लगता था मै उसमे धुंधला दीखता हु।
इस तरह मेरा अपमान न करो. मंदिर की प्रांगन तो सभी के लिए होता है किन्तु बास तो वहां पुजारी ही करता है. तो क्या बाकी भक्तो के आने से पुजारी देवता से तो नाराज तो नहीं होता।
कहा की बाते कहा जोड़ रही हो. ये सब कहने -सुनने में अच्छा लगता है ,वास्तविक जीवन में नहीं।
जो कहने और सुनने में अच्छा है उसे तो जीवन में उतारकर देखते तब न ।
तुम कहना क्या चाहती हो. ये तो सरासर बेशर्मी की हद है.
मै तो हद में होकर बेशर्म हु किन्तु तुम्हरी बातो से हद भी शर्म से छुप गया, कहा तक जाओगे, तुमने कौन सी सीमा तय कर राखी है?
तुम तो सभी बातो की खिचड़ी पका देती हो.
जब दिमाग का हाजमा ख़राब हो जाता है तो ये नुकसानदेह नहीं है. तुम्हे इन खिचड़ी की जरुरत है.
तुम कुछ समझ क्यों नहीं रही हो,जो मै कहना चाहता हु.
अब अच्छी तरह से समझ रही हु ,पहले नासमझ थी.।
तुम्ही तो मुझसे दूर गए थे ,कितने लांछन लगाये थे जाते वक्त कुछ याद है या भूलने का नाटक कर रहे हो। सख्त गांठो को खोलने से वो खुलता नहीं रेशा ही तिल-तिल कर निकलता है,बीती यादो को मवाद के रूप में बाहर निकलने न दो।
उन काँटों को मन से निकाल फेको।
कैसे फेंकू,कोई सहजने लायक फूल खिलने कहा दिए तुमने।
वो मेरी गलती थी मानता हु.।
क्यों अब तुम्हारा अहम् या कहे शंकालू मन सुखी लकड़ी की टंकार नहीं मारता ? तुम्हारा मन सुखा था, खुद ही तो बोझ डाला ,टूटना ही था.। शायद उर्वरकता शुरु से ही कम था ,मैंने सिचने का प्रयास तो किया किन्तु पता नहीं क्यों तुम इसे मेरी जरुरत समझ बैठे या मेरा कर्तव्य । फूलो के चटकने और सुखी लकडियो के चटकने में अंतर तो होता ही होगा,तुमने कोई मन का फुल तो चटकाया नहीं की उसकी मधुर तरंगे कानो को तरंगित करती ।
हम फिर से शुरुआत कर सकते है.।
हम नहीं तुम ।
रुकना तुम्हे पसंद है मै पसंद नहीं करती हू ,तुम क्या समझ नहीं पाए,चलो अच्छा हुआ.। वैसे समझने लायक समझ रखते तो आज कल की बाते नहीं होती । मै तो कभी ठहरी कहा। समय ने रुकने का मौका ही नहीं दिया।तुम्हारे जाने का निर्वात, क्या निर्वात रहता ? ऐसा विज्ञानं तो मानता नहीं। तुम्हारा यही दिक्कत है ,न लोगो के कहने की बाते मानते हो न विज्ञान को समझते हो । तुम्हारे लिए अब यही ठीक होगा की अपने अन्दर एक निर्वात को महसूस करो शायद कोई भर जाये। शायद, नहीं नहीं ये मेरी आशा भी है और दुआ भी.....पर महसूस तो करो।
Sunday 11 August 2013
काले-बादल
रविवार की प्रतीक्षा मन व्यग्रता पूर्वक करता है.। दफ्तर में किसी प्रकार की अनावश्यक आवश्यकता न आन पड़े दिल इसी प्रकार की इक्छा रखता है.। जब तैयारी के साथ बहर जाने का समय हुआ ,आचानक कालिदास के दूतो ने पुरे क्षेत्र में अपना पाव फैला दिया। ईद की चाँद की तरह अगर सावन के महीने में अगर इन काले काले बदल का दीदार होगा तो किन का मन मयूर इनको देख के नहीं नाचेगा। बस बाहर जाने का विचार त्याग कर घर में बैठे-बैठे ही इन नजारों से रु-बरु होने लगे।
पता नहीं ये काले काले बदल ही क्यों बरसते है। कुछ भी हो सप्ताहंत तक निहारते नयन को अगर कुछ अनुयोजित कार्यक्रम को छोड़कर भी अवकास के दिन अगर इनका दीदार और पचम सुर में इनके बूंदों का रिमझिम स्वर सरिता कानो में घुले तो आनंद की सीमा आप अपने लिए तय कर सकते है।
अगर आपके घर एक झरोखा हो जिससे आप प्रकृति को निहारने का आनंद ले सकते है तो बहुत एकत्रित की गई अनावश्यक तनाव की परते ऐसे बदलो की झोंको में या उड़ जायेंगे नहीं तो बारिश में अवस्य ही धुल जायेंगे,बस मन को उसमे बसने की आवश्यकता है।
संभवतः प्रकृति ने बारिश की व्यवस्था आने वाले मानवो की प्रवृति को समझ कर ही किया होगा, इतने प्रकार के बिभिन्न कपट क्रिया से ग्रसित जब लगता है की इनमे कुरूपता अंग करने लगता है ,अपनी फुहार से इसे पहले की तरह स्वच्छ ,निर्मल तथा पवित्र बना देते है.। इसलिए तो रिमझिम बारिश के बाद का पल भी मन को ये नज़ारे ऐसे आगोश में लेते है की लगता है बस ऐसे ही निहारते रहे.।
Saturday 10 August 2013
हलचल अगस्त ' ४७
ये सावन यु ही बरस रहा होगा
हाथो में तिरंगे भींग कर भी
जकडन से निकलने की आहट में
शान से फरफरा रहा होगा।।
थके पैर लथपथ से
जोश से दिल भरा होगा
बस लक्ष्य पाने को
नजर बेताब सा होगा।।
क्या अरमान बसे होंगे
नयी सुबहो के आने पर
वो अंतिम सुगबुगाहट पर। ।
जो तरुवर रक्त में सिंची
अब लहलहा रहे होंगे
लालकिले से गाँवों के खेत खलिहानों में
सभी धुन भारती के गुनगुना रहे होंगे। ।
लालकिले से गाँवों के खेत खलिहानों में
सभी धुन भारती के गुनगुना रहे होंगे। ।
फिरंगी की दिया बस
टिमटिमा रही होगी
वो बुझने ने पहले
कुछ तिलमिला रही होगी।।
वो जकड बेड़ियो की
कुछ-कुछ दरक रहा होगा
खुशी से मन -जन पागल
मृदंग पे मस्त हो झूमता होगा।
नयी भोर के दीदार को
नयन अपलक थामे रहे होंगे
बीती अनगिनित काली रातो को
हर्ष से बस भूलते होंगे।
कुछ-कुछ दरक रहा होगा
खुशी से मन -जन पागल
मृदंग पे मस्त हो झूमता होगा।
नयी भोर के दीदार को
नयन अपलक थामे रहे होंगे
बीती अनगिनित काली रातो को
हर्ष से बस भूलते होंगे।
जब ये माह आजादी का
युहीं हर साल आता है
क्या रही होगी तब हलचल
पता नहीं क्यों ख्याल आता है।।
Thursday 8 August 2013
शहादत मुद्दे में कही खो जाते ।
सब उठाते इसे अपने अंदाज में ,
हर किसी को फ़िक्र करना आता है ,
आवेश में विषरहित आवेशित हो कर
चहू ओर अपनों पर फुफकारना आता है ।
फ़िक्र अपने-अपने सियासती रोजी-रोटी की
बटखरा ले विचारों का,तौलने में उलझे पड़े,
शरहदों पे बिखरे लाश को किस पाले में रखे
की नाकामियों का भार कही और पड़े ।
है लोहा गरम अभी चोट कर लेने दो
जवानों को जो खोया कुछ तो मोल लेने दो ,
हम इस पाले में हो या उस पाले में,
हमें अपनी नजर से दर्द देख लेने दो।
जाने कौन किसके दर्द को महसूस करता है,
उन माँ का जिसने खोया जिगर का टुकरा ,
या चंद नीति के नियंता जिनके खद्दर पर लगा ,
चोटित अस्मिता की मवाद का धब्बा ।
बहते हुए लहू किसकी प्यास बुझाती है
कुछ अपने भी है जो इसे पानी समझते है,
नाकामियों को कफ़न से ढकते ही आये
धब्बा नहीं बस लिपटे तिरंगो में शान देखते है।
दुश्मनों से दोस्ती की आश में यहाँ
खंजर खाने को बहादुरी माने बैठे ,
चमक धार की कुछ तो दिखाना लाजिम है ,
की कांपते हाथ से अमन की कामना वो भी करे।
ये शरहद पे खड़े नौजवान वीर बेचारे,
देश के अरमानो का बोझ संभाले ,
उफ़ न करते बंधे इक्छा पर कुर्बान हो जाते ,
किन्तु हर बार इनकी शहादत मुद्दे में कही खो जाते। ।
हर किसी को फ़िक्र करना आता है ,
हुतात्मा |
चहू ओर अपनों पर फुफकारना आता है ।
फ़िक्र अपने-अपने सियासती रोजी-रोटी की
बटखरा ले विचारों का,तौलने में उलझे पड़े,
शरहदों पे बिखरे लाश को किस पाले में रखे
की नाकामियों का भार कही और पड़े ।
है लोहा गरम अभी चोट कर लेने दो
जवानों को जो खोया कुछ तो मोल लेने दो ,
हम इस पाले में हो या उस पाले में,
हमें अपनी नजर से दर्द देख लेने दो।
जाने कौन किसके दर्द को महसूस करता है,
उन माँ का जिसने खोया जिगर का टुकरा ,
या चंद नीति के नियंता जिनके खद्दर पर लगा ,
चोटित अस्मिता की मवाद का धब्बा ।
उलझती नीतिया चित्र : गूगल साभार |
कुछ अपने भी है जो इसे पानी समझते है,
नाकामियों को कफ़न से ढकते ही आये
धब्बा नहीं बस लिपटे तिरंगो में शान देखते है।
दुश्मनों से दोस्ती की आश में यहाँ
खंजर खाने को बहादुरी माने बैठे ,
चमक धार की कुछ तो दिखाना लाजिम है ,
की कांपते हाथ से अमन की कामना वो भी करे।
ये शरहद पे खड़े नौजवान वीर बेचारे,
देश के अरमानो का बोझ संभाले ,
उफ़ न करते बंधे इक्छा पर कुर्बान हो जाते ,
किन्तु हर बार इनकी शहादत मुद्दे में कही खो जाते। ।
Sunday 4 August 2013
डूब न जाये हम ,चलो अब चले कही।।
हाथो में हाथ , कदम दर कदम साथ
चल रहे दूर कही ,न जाने कहा।
अपनों ने मुह फेरे,
जानने वाले पता नहीं क्यों मुस्कुराया।
इतनी बेरुखी, खून का रिश्ता भी
खून के प्यासे से लगने लगे,
रिश्तो के रेशे अब तार -तार है,
इन रेशो से बने कफ़न ढूंढ़ते उन्हें,
गली के हर मोड़ पर ठेकेदार
कब्र खोदे तैयार है।
लहलहाते अरमानो पर अब
नफरत की बारिस हो चली
डूब न जाये हम ,चलो अब चले कही।।
सुखी पेड़ ,सपनो की छाया
तपती शिला पर अब कमर था टिकाया
कोमल से पाव में दुनिया के घाव
वो झुककर हाथो से जाने किसको सहला रहा ।।
नजर में समाने की चाहत
अब नजर चुराती हुई
किंचित ससंकित, खुद में उलझे से
मंजिल है साथ पर जाना कहा है
घृणा की आंधी में सब उड़ से गए
पता नहीं अब आशियाना कहा है।
सभ्य समाज के असभ्यता से अन्जान
कोई और कहानी न बन जाये यही
डूब न जाये हम ,चलो अब चले कही।।
चल रहे दूर कही ,न जाने कहा।
अपनों ने मुह फेरे,
जानने वाले पता नहीं क्यों मुस्कुराया।
इतनी बेरुखी, खून का रिश्ता भी
खून के प्यासे से लगने लगे,
रिश्तो के रेशे अब तार -तार है,
इन रेशो से बने कफ़न ढूंढ़ते उन्हें,
गली के हर मोड़ पर ठेकेदार
कब्र खोदे तैयार है।
लहलहाते अरमानो पर अब
नफरत की बारिस हो चली
डूब न जाये हम ,चलो अब चले कही।।
सुखी पेड़ ,सपनो की छाया
तपती शिला पर अब कमर था टिकाया
कोमल से पाव में दुनिया के घाव
वो झुककर हाथो से जाने किसको सहला रहा ।।
नजर में समाने की चाहत
अब नजर चुराती हुई
किंचित ससंकित, खुद में उलझे से
मंजिल है साथ पर जाना कहा है
घृणा की आंधी में सब उड़ से गए
पता नहीं अब आशियाना कहा है।
सभ्य समाज के असभ्यता से अन्जान
कोई और कहानी न बन जाये यही
डूब न जाये हम ,चलो अब चले कही।।
Wednesday 24 July 2013
भूलते अतीत
भूलते नायक |
हर समाज अपने इतिहास से सबक ग्रहण करता है. भूतकाल के गलतियो को वर्तमान में मंथन कर भविष्य की रुपरेखा तैयार करना प्रगति का निशानी है. इसी मंथन के क्रम में अपने अतीत के नायको को याद कर उनके प्रति देश तथा समाज अपनी कृतज्ञता जाहिर करता है. किन्तु अपने यहाँ इतिहास से सबक लेना तो दूर कुछ परम्परा का निर्वाहन भी इस रूप में करते है जिससे की इसको ढोना प्रतीत होता है. स्वाभाविक रूप से जब भारस्वरूप किसी को ढोया जाय तो कुछ तो हमसे छुटेंगे ही .
देश के स्कूलों में या अन्य सार्वजनिक मंचो से अपने अतीत के वीर सेनानियों को समय-समय पर याद करना अपने लिए गौरव तथा उन हुतात्माओ के प्रति श्रधांजली की परम्परा अब ज्यादातर कोनो से खोती जा रही है. शायद अब रश्मो का निर्वाहन भी हम करने में सक्छ्म नहीं लग रहे है. स्वतंत्रता संग्राम की लम्बी लड़ाई में शहीद हुए अनगिनत नायको में अब लगता है कुछ एक नाम को छोड़कर बाकि को भुलाने की कवायद की जा रही है. पत्रकारिता के सभी स्तंभ अभी तक अपने कर्तव्यों में पीडियो को उनके योगदान का स्मरण कराते आ रहे है,अब लगता है खुद को इससे विस्मृत करते जा रहे है.
आज एक राष्ट्रिय समाचार पात्र पड़ते हुए अचानक एक विषेश आलेख पर नजर गया. शीर्षक था आजाद की जन्मदिन पर विशेष . कमजोर स्मृति, न किसी समाचार चैनलो पर किसी प्रकार का प्रसारण,न ही बच्चे के स्कूलों में कोई आयोजन पड़ने देखने से लगा की आज दिनांक २ ४ जुलाई को शायद इस महान क्रन्तिकारी का जन्मदिन हो. किन्तु आलेख पड़ने से मन में कुछ छोभ उत्पन्न हुआ . क्योंकि वीर क्रन्तिकारी चंद्रशेखर आजाद का जन्मदिन २३ जुलाई ही थी . ऐसा लगा जैसे संपादक महोदय खानापूर्ति कर रहे है. आम जन की भी रूचिया विग्रह ,आग्रह अब इस कदर बदल गई है की बीती पीडियो का योगदान देश समाज के प्रति न होकर खुद के लिए किया गया कार्य प्रतीति होता है. इन रुचियों को पोषक अब मीडिया अपने जरूरतों के अनुसार दिन ब दिन करते जा रहा है. देश के स्वतंत्रा में अपना सर्वस्व त्याग करने वाले इन वीर नायको को अगर इतनी जल्दी विस्मृत करने लगे तो भविष्य सोचनीय है .
किसी भी क्रन्तिकारी का रास्ता और विचारधारा बहस का विषय हो सकता है किन्तु उनके योगदान को नाकारा नहीं जा सकता . जो समाज इस प्रकार का रास्ता चुने , आने वाले पीढ़ी के साथ एक प्रकार का धोखा है . आजादी के कितने दीवानों ने अपने आपको कुर्वान कर दिया उसकी कोई संख्या नहीं है, उनमे से कुछ को ही जान पाए. अतीत के अंधेरो से उन्हें ढूंडने की अब किसी को न ही समय है और न ही लगाव। . किन्तु जिन आजादी के मतवालों को उस समय का आजाद हिंदुस्तान नमन किया था कम से कम हम उन्हें तो विस्मृत न होने दे. जिनको समाज ने ये जिम्मेदारी दी है की समय समय पर आने वाली पीढ़ी को इनके योगदान की जानकारी देते रहे, वो खुद पाटो में इनको बाट दिया।
शायद वीर आजाद इनमे से किसी के भी पालो में अपने आपको नहीं पाते है . किन्तु अभी भी बहुतो की यादो में वे है .
"शहीदों की चिता पर लगेंगे हर बरस मेले ,
वतन पे मिटने वालो का यही बाकी निशां होगा ."
उन दिवानो के निशान पर बहुत जल्द कृतघ्नता का मैल चढने लगा है ,कही निशान मिट न जाये।
"शहीदों की चिता पर लगेंगे हर बरस मेले ,
वतन पे मिटने वालो का यही बाकी निशां होगा ."
उन दिवानो के निशान पर बहुत जल्द कृतघ्नता का मैल चढने लगा है ,कही निशान मिट न जाये।
Sunday 21 July 2013
दोषी कौन ?
खाट जिसकी रस्सीयां उसी के नस की तरह ढीली है।खाट की लकड़ी भी अब हड्डियो की तरह कमजोर हो रखा है। उसी का भार उठा रखा है क्योकि उसने बड़े जतन से अपने लिए वो खाट बनाया था।बड़ा ही निर्जीव खाट किन्तु खाट की संवेदना सजीव। चारो तरफ काफी भीड़-भाड़ है। मिटटी का घर किनारे गोबड़ का ढेर, प्रेमचंद साहित्य का गाँव अभी भी साठ साल बाद वैसे ही जीवंत तथा मुखर है, जैसे सरकार ने उनकी साहित्य की संवेदना को उसी रूप में रख उस अवस्था से कोई छेड़ -छाड़ न कर सच्ची श्रधान्जली दे रखी है। जाने कौन किसका मजाक उडाता हुआ? निचे एक पटिये पर महिला बेसुध पड़ी है। दो दिन हो गए जब उसका बेटा मर गया या मारा गया । सन्नाटा पसरा है मौत अपने साथ उसे ले के आया। कल तक बच्चो की किलकारी से परेशान उसका दादा अब आवाज को जैसे अपने पथरीली आँखों से दूंड रहा है।
लगता है क्या,पड्सो की ही तो बात है।भोलवा को भूख लगी थी । उसकी मतारी उसको कुछ देने के बजाय चमाटा खिलाये जा रही थी। तब तक खांसते-खांसते नाक से धुवा छोड़ते पूछा-
का बात है भोलवा की माँ नाहक काहे पिट रही हो ?
कपडे से झांकते काया को समटने का प्रयास करते उसकी माँ बुदुदाई -अब कुछ रहे तो न दे। बिहाने से दो-दो बार डकार गया है।अब दोपहरिया बित जाये तो कुछ बनाये अभी कहा से लाये।
बुड़े की पूरी उम्र कटते -कटते अब दहलीज पर आ गयी। परिवर्तन के नाम पर देखा तो बहुत कुछ किन्तु शायद अभी उसको या उसके जैसो को और इंतजार भाग्य ने या लिखने वाले ने लिखा है। उसे पता है पोते के पेट में जो आग लगी उसकी उष्णता कितनी तीब्र है।
उसी को ठंडक पहुचाने के लिए तो उसने उसे स्कूल भेजना शुरु किया। शिक्षा तो जरुरी है इसमें तो उसे कोई संदेह नहीं था। किन्तु सामाजिक विकास के गाड़ी पर कभी भी सवार होने का मौका नहीं मिला। किसको दोष दे? चलो स्कूल में ज्ञान मिले न मिले अन्न तो मिलता है।समय चक्र का क्या कहना कभी कहते थे शिक्षा होगी तो खाना अपने आप मिलेगा किन्तु अब खाना लेने पर शिक्षा मिलता है।
आज उसके हाथ में सरकार के बड़े अफसर एक कागज का टुकरा थमा गए। भोलवा पेट की आग को ठंडा करने में खुद ही ठंडा हो गया।
सोच रहा अगर भोलवा घरे में ऐसे चल बसता तो कोई पूछने भी नहीं आता,बस साथ में यही के दो चार पडोसी होते,किन्तु आज तो काफिला है गाँव में। भोलवा तो का कुर्वानी दे दिया की पुरे घर ही अब संबर जायेगा।
किन्तु बुड्ढा अभी भी ललाट की उभरी नसों पर जोर मार रहा है, ऊपर आती जाती सांसो से ही पूछने की कोशिस में।दुलधूसरीत काले पन्ने पर कुछ कालिख प्रश्न गली में फडफड़ा कर उड़ रहे। प्रश्न मुह बाये है,मुह पर हाथ है कोई आवाज नहीं बस दिमाग झनझना रहा है -भगवान मारता तो किसी से कुछ कह भी नहीं सकते, अच्छा है भोलवा की जान लेकर भोलवा के भाई को दो निवाला मिल गया। लेकिन क्या भोलवा के भाई को अपने जीते जी वहां पेट में ठंडक पहुचने भेज पायेगा? किन्तु भोलवा के जाने का दोषी कौन है ,उसकी मतारी ,वो खुद या कोई और ...........? सोचते -सोचते नजर उस कागज के टुकरे पे था, हर अंको के गोले में जैसे भोलवा का चेहरा दिख रहा हो ....
Wednesday 17 July 2013
सपनो की हत्या
त्रासदी ,विडंबना ,दुर्भाग्य क्या कहा जाय। इतने इतने बच्चो का बेवक्त इस दुनिया से रुखसत। उन फूलो की मौत ,उन चिरागों का बुझना जिसको लेके कितने उम्मीदे पाल रखी होगी। सपनो की अकाल त्रासदी। न जाने कौन गुदरी का लाल कल का कलाम होता,कौन इनमे रामानुजन की राह चलता ,किसको शास्त्री जी की कर्मठता अपनी और खिचती। जिन लोगो के आंशु पसीने के रूप में निकल कर बह गए उनके ही बच्चे थे, अब आंशु बचे भी नहीं होंगे क्या बहायेंगे ये बेचारे। अरमानो की पूरी स्वपन महल न जाने किनके करतूतों की वजह से उजाड़ गयी। क्या अपराध था इन बच्चो का क्या ये गरीब थे, या इन्होने ज्यादा भरोसा कर बैठा की कोई उसको उबरने का प्रयास कर रहा है।कमबख्त अपने ही घरो के आनाजो पर भरोसा क्या होता ,थोड़ी पेट ही खली होती, भूख से कुछ समय बिलखते,कुपोषण दूर करने गए खुद ही धरती से दूर हो गए।
सामान्य घटना तो नहीं है ,इसलिए असामान्य रूप से सभी मीडिया के बिभिन्न स्तरो पर चर्चा का केंद्रबिंदु है। घटना के बाद की प्रतिक्रियाओ से लगता है जैसे अब हम इन बातो के इतने अभ्यस्त हो गए है की इनका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। असामान्य रूप से संवेदनाये अपने -अपने स्वार्थ,हितो को देखते हुए असंवेदनशील रूप से व्यक्त किया जा रहा है।
चलो लौट जाये |
क्या सिर्फ व्यवस्थापक दोष के ही कारण ऐसे घटनाओ की पुर्नावृति हो रही है या समाज के हर स्तर पर हम सब किसी न किसी रूप में इस के लिए जिम्मेदार है विचारणीय है। किसी भी देश का बाल पूंजी इस प्रकार से काल के गाल में समां जय तो भविष्य पर प्रश्न चिन्ह लगना अश्वाम्भावी है। या इस तरह के प्रबंधो के निहित बच्चो को देश का भविष्य मानने में संकोच तो हम नहीं कर रहे है। आंकड़े कहते है की लगभग ४ ७ % बच्चे कुपोषण के शिकार है उनमे से कितने इस प्रकार के प्रबंध के तहत है उन आंकड़ो से क्या सिर्फ बैचैनी होती है की पता नहीं ये बच्चे कब इसका शिकार हो जाये।
हर घटना के बाद की जाँच की औपचरिकता पुनः इसके बाद भी दोहराया जायेगा। जिन माँ के गोद इसके कारन सुनी हो गई उनका क्या? गरीबी की मार से दबे इन परिवार के लोग अब ऐसे मार से दब गए जिसमे उनको उबरने में वर्षो लगेंगे। किसी भी मुवावजे की सूरत ऐसे नहीं हो सकती जिसमे अपने से जुदा बच्चो की तस्वीर ये परिवार वाले देख सके।
देश का भविष्य ? |
घटनाओ से हमें सबक सिखने की आदत नहीं। चाहे ये घटना हो या कोई और। प्राकृतिक या मानव निर्मित। ऐसे लगता है हम सिर्फ घटना सुनने के लिए या फिर सहने के लिए है।हर के बाद किसी और के होने की इंतजार का एक रोग लगा हुआ है तभी तो रोकने के नाम पर सिर्फ कागजो का दोहन कर उसे पुनरुत्पाद हेतु खोमचे वाले के पास दे आते।इस भ्रम में न रहे की इन घटनाओ का कोई आर्थिक आधार है ये किसी भी वर्ग के लोगो को कभी भी डस कर अपना शिकार बना सकते है। जैसे ये फूल खिलने से पहले मुरझा गए।
Monday 15 July 2013
जीवन क्या.................?
जीवन क्या ............... ?
पुष्प की अभिलाषा है,
या रस से भरी मधुशाला है,
खिली गुलाब की पंखुरियां है,
या काँटों से भरी पुष्प की डलियाँ है।।
जीवन क्या ................... ?
शांतनु का प्रेम- प्रलोभ है,
या भीष्म का राज निर्लोभ है,
कृष्ण का निष्काम कर्म योग है,
या अर्जुन का मोह संशय वियोग है।।
जीवन क्या ...................?
एकलव्य से गुरु के दक्षिणा याचना है,
या द्रोणाचार्य की शिष्य से संवेदना है ,
दुर्योधन की भार्त्र कपट लीला है
या लांछित कर्ण की दानशीला है।।
या अभिमन्यु का चक्रब्यूह प्रवेश है,
ध्रितराष्ट्र का अंध-पुत्र मोह है,
या युधिष्ठिर का अर्ध-सत्य संयोग है।।
जीवन क्या ...................... ?
कैकई की त्रिया-हठ कोप भवन वास है,
या पुरुषोत्तम राम का त्याग बनवास है ,
कामुक इंद्र की छल-प्रपंच लीला है,
या गौतम शापित अहिल्या की शीला है।।
जीवन क्या .......................... ?
हजारो तारो का अकुलित प्रकाश है,
या उद्योदित रवि का अट्टहास है ,
चाँद की शीतलता का मधुर पान है,
या अग्नि की तीब्रता का विषद ज्ञान है।।
जीवन क्या ......................... ?
खुशियों का ज्वार है,
या गम की तरल धार है,
आकंछाओ की अभिव्यक्ति है,
या मृगतृष्णा से खुद की मुक्ति है।।
जीवन क्या ........................?
पुष्प की अभिलाषा है,
या रस से भरी मधुशाला है,
खिली गुलाब की पंखुरियां है,
या काँटों से भरी पुष्प की डलियाँ है।।
जीवन क्या ................... ?
शांतनु का प्रेम- प्रलोभ है,
या भीष्म का राज निर्लोभ है,
कृष्ण का निष्काम कर्म योग है,
या अर्जुन का मोह संशय वियोग है।।
जीवन क्या ...................?
एकलव्य से गुरु के दक्षिणा याचना है,
या द्रोणाचार्य की शिष्य से संवेदना है ,
दुर्योधन की भार्त्र कपट लीला है
या लांछित कर्ण की दानशीला है।।
जीवन क्या ...................?
उत्तरा की नींद का आगोश है,या अभिमन्यु का चक्रब्यूह प्रवेश है,
ध्रितराष्ट्र का अंध-पुत्र मोह है,
या युधिष्ठिर का अर्ध-सत्य संयोग है।।
जीवन क्या ...................... ?
कैकई की त्रिया-हठ कोप भवन वास है,
या पुरुषोत्तम राम का त्याग बनवास है ,
कामुक इंद्र की छल-प्रपंच लीला है,
या गौतम शापित अहिल्या की शीला है।।
जीवन क्या .......................... ?
हजारो तारो का अकुलित प्रकाश है,
या उद्योदित रवि का अट्टहास है ,
चाँद की शीतलता का मधुर पान है,
या अग्नि की तीब्रता का विषद ज्ञान है।।
जीवन क्या ......................... ?
खुशियों का ज्वार है,
या गम की तरल धार है,
आकंछाओ की अभिव्यक्ति है,
या मृगतृष्णा से खुद की मुक्ति है।।
जीवन क्या ........................?
Sunday 14 July 2013
फुटपाथ
नीचे जिन कंक्रीट के रास्ते पर
दौड़ती सरपट सी गाडिया
शायद उनपर चलते बड़े लोग ।
पर ऊपर भी साथ लगा
है कुछ का आशियाना
संभवतः समय से ठुकराए लोग।
पेट की भाग दौड़ में
कारो और सवारियो की रेलम पेल में
दिन के भीड़ में गुम हो जाते है।
आहिस्ता-आहिस्ता सूरज खामोशी की ओर
चका चौंध और आशियाना जगमग
कुछ कुछ रुकती रफ़्तार है ।
पसीना में भींगी दो जून की रोटी
हलक में उतारा है गुदरी बिछा दी
पसर गए भूल कर आज,कल के लिए।
पहुचने के वेग मन के आवेग में
न खुद पे यकी, होश है नहीं कही
रास्ते को छोड़ा और जा टकराया है।
नींद में ही चल दिए,कुछ समझ भी न पाया
फुटपाथ पर ऐसे ही जिन्दगी मौत पाया है।
आज सब कुछ कल सा ही वही दौड़ती गाड़ी
बस पसरे हुए गुदरी का रंग बदल गया है ।।
Wednesday 10 July 2013
आज का सच ही बन्दन है
ब्यग्र मन कल की फिकर में
आज को ही भूल गया,
उज्वलित प्रकाश है चहु ओर फिर भी
सांध्य तिमिर ने घर किया।।
धड़क रहा दिल बार -बार पर
वो स्वर संगीत न सुन सका
कब तलक छेड़ेगी सरगम
फिक्र में ही बड़ता चला।।
है बड़ी दिल में तम्मान्ना
बौराई बादल बरसे यहाँ,
जब चली रिमझिम फुहारे
सर पे पहरा दूंडता फिर रहा।।
स्वप्न में पाने की चाहत
है नहीं किसके दिल में
पर नींद में भी रुक न पाया
पहली किरण की चाहत में।।
अर्थ पाने की चाहत,
खुशियो की जो मंजिले,
अर्थ का अनर्थ करते
जब सब कुछ इससे तौलते ।।
कल तो कल था , आयेगा कल,
कल को किसने देखा है।
आज की ही दिन है बस,
जो जिन्दगी की रेखा है।
फितरते अनजाने पल की
है मचलती धार सी,
तोड़ दे बंधन कब तट का
और बह जाये जिन्दगी।।
आज खुशियों का झरना
आज ही गिर कर संभालना
आज ही बस दुख प्लावित
आज ही अमृत का बहना
आज ही दुश्मनों का वार
आज ही दोस्तों का ढाल
आज का रज ही चन्दन है
आज का सच ही बन्दन है ।।
Sunday 7 July 2013
आज रविवार है।
काश सभी को इनका आनंद ...... |
दीवारों पे वार
अलसाई आँखों का
पलकों से जदोजहज
खुलने को तैयार नहीं
अरे कुछ और कर इंतजार
आज रविवार है।।
मोहे कहा विश्राम |
जब नजर टिकी उसपे
घडी की टिक-टिक
जाने कैसे चल-चल
यहाँ तक पंहुची
क्या वो भी ठमक गई
आज रविवार है।।
काट रहे जो पल
या पल जिनको काट रहा
जाने आज कहा की देहरी
हमारा रविवार कब आएगा ....? |
क्या भूख की होगी हार
कही भूख ठिठक गयी
आज रविवार है।।
समय के वार से
घायल कराह रहे
हर दिन शुष्क आंतो को
पसीने बहा कर ठंडक पहुचा रहे
दिन न बता बुझ जायेंगे
लड़ने दे कुछ और दिन,चाहे
आज रविवार है।।
Thursday 4 July 2013
श्रधान्जली के मायने
लाल गलियारा एक बार फिर से कर्तव्यनिष्ठ के रक्त से सन गया। उदेश्य विहीन उदेश्य ने कुसमय काल चक्र के घेरे में लील कर मासूमो को अपने से दूर कर दिया। गलतिय उनसे हो गई अपने को बंधे ढर्रे में घीसी पिटी कानूनों के लकीर पर चलने का हौसला जो कर बैठे। प्रत्येक अख़बार ने अपने कागज काली कर दी। समय समय पर जो इनके समर्थन और अत्याचारों की अनगिनत कहानियो से कलमो की स्याही सुखाते रहे है।उनके कलमो में कुछ स्याही इन समय के लिए भी बची हुई है। जो उजाड़ दिए गए शहीद का दर्ज पा गए। रशमो अदागाई में कोई कमिया नहीं रह गई है।इस कवायद में इतने अभ्यस्त हो गए है की हर बार सिर्फ इन आतंक का शिकार होने वाले के नाम बदल जाते है बाकि सब पूर्ववत सा होता है। फिर से वही घटना स्थल का दौर , वही खामियों का विशलेषण, मुआवजे ज की घोषणा संतप्त परिवार को दिलासा।यही तो नियति है यही तो कर्म है इन कर्मो से कैसे कभी बिमुख नहीं होते। इन आचरणों को निति नियंता ने अपने में आत्मसात कर रखा है। शायद इनके कर्मो की पूर्णाहुति इन्ही आडम्बरो से ढक दिया जाता है की इन घटनाओ का दुहराव कैसे हो जाता है इस पर इनको सोचने का वक्त नहीं मिलता या जरुरी नहीं समझते।पुनः रणनीति बनाई जाएगी ,मुख्यधारा में लेने के लिए अनेको घोषणा का अम्बार लग जायेगा। किन्तु साथ-साथ इनसे लड़ने के लिए तैयार बैठे जांबाजो को सद्विचार दिया जायेगा की ये भी अपने ही है कुछ समय के लिए ये गुमराह हो गए या भटक गिये है। अपने कर्तव्य के दौरान इन बातो को कभी नजरंदाज नहीं करे नहीं तो आप मानवाधिकार के उलंघन के दोषी पाये जायेंगे।लालधारियो को बेशक हम पकड़ने में अक्छम हो किन्तु आपको अन्दर करने में हमारी छमता जग जाहिर है। आखिर हमने तो आपको कहा नहीं की इस सेवा में आपकी जरुरत है आप अपनी इक्छा से आये है येही तो इसका श्रृंगार है।
भटक तो बहुत कोई जाते है उनको ही रास्ते दिखाने के लिए हर साल इन जम्बजो को सपथ दिलाई जाती है न की निति नियंता के अकर्मण्यता का शिकार बनने के लिए विचारणीय है। इस प्रकार से अगर इन पूंजियो को हम नपुंशक विचार और अक्छम कार्यशैली के हाथो किसी गुमराह की बलि चड़ने दे तो वो दिन दूर नहीं जब रास्ता दिखने वाले खुद ही गुमराह हो जाये।देश के वास्तविक तान बाना कमजोड न परे इसके लिए मजबूत निर्णय सिर्फ कागजो पर न होकर वास्तविकता के धरातल पर उसका परिलक्छन दिखाई पड़ना चाहिए।भय बिन होहु न प्रीत ऐसे ही नहीं कहा गया है।
अंत में उसी रश्म का निर्वाह करते हुए किन्तु दिल से मै इस कायरता पूर्वक अंजाम दी गए घटना में शहीद हुए कर्तव्यनिष्ठ अधिकारिओ के प्रति हार्दिक संवेदना तथा उनके परिवार को इस दुःख से जल्द से जल्द उभरे ऐसा भगवन से कामना करता हु।
Monday 1 July 2013
प्रकृति की प्रवृति
उत्तराखंड की तबाही दिल दहलाने वाली है। हजारो अनगिनत लोगो का इस प्रकार काल के गाल में समा जाना सचमुच दुर्भाग्यपूर्ण ही नहीं दिलो को झकझोरने वाला है। पल भर में भगवान के दर्शन को जाने वाले तीर्थयात्री भगवान के पास पहुच गए। जिन किसी ने भी अपने परिचित या और भी कोई खोया सिर्फ वो ही नहीं हर कोई इस त्रासदी से दुखी है।इसे प्राकृतिक घटना कहे या मानवीय भूलो भूलो की दुर्घटना, जाने वाले चले गए।सामने आई आपदा पर जोर - जोर से चिल्लाना और फिर उतनी ही तेजी के साथ उसे भुला देना सामान्य सी आचरण हो गई है।किस-किस को कोसु किसको-किसको दोषी माने।और यही पूर्बवत सा आचरण इस के बाद पुरानी फिल्मो के प्रसारण की तरह जारी है। हर कोई दोषी को ढुंढने में लगा है। इन शोरो में हजारो दबे लोगो की चीख ,सहायता के लिए पुकारते लोगो की आवाज दब कर रह गयी है।फिर भी जो कर्मयोगी है किसी न किसी रूप में इनके पास पहुचने का प्रयास कर ही रहे है।
आखिर इतने बड़े विनाशलीला में किसका हाथ है। जब विनाश लीला प्रक्रति ने मचाया है तो उसमे साधरण मानव का हाथ भला कैसे हो सकता है। कुछ लोगो या ये कहे की पर्यावरण के विशेषज्ञ ने तो सीधा मत व्यक्त किया है की हम लोगो ने अपने पर्यावरण के साथ अनावश्यक छेड़छाड़ कर रखा है ये उसी का दुष्परिणाम है। अगर हमने ये छेड़छाड़ बंद नहीं किया तो आने वाले समय में और भयावह परिणाम हो सकते है। मुझे ये पता नहीं की 1 9 9 9 में उड़ीसा में 2 5 0 की मी की भी तेज रफ़्तार से आई उस महाविनाशकारी चक्रवातीय तूफान में मानवीय धृष्टता कितनी थी जिसने कुछ ही पलो में कितने सपने हवा के झोको में उड़ाने के साथ-साथ जल प्लावित कर दिए।बीते वर्षो में बिहार और गुजरात में आये भूकंप यदि हमारे विकास का परिणाम है तो 1 9 3 4 ई की बिहार का भूकंप किसका दुष्परिणाम था जिसमे लिले गए लोगो का शायद सही आकड़ा भी न हो,यही स्तीथी आज भी कायम है अलग अलग कोनो से अपने अपने आकडे दिए जा रहे है।।शायद चीन अठारवी सदी में आई भुखमरी के लिए या फिर पिली नदी के बाढ के लिए इस प्रकार विकसित हो की उसे छेड -छाड़ माना जाय ऐसा इतिहास तो नहीं कहता।
प्रकृति सदा से शक्तिशाली है इसमें शायद किसी को संदेह हो किन्तु लगता है हमने उससे शक्तिशाली होने का भ्रम पल लिया है। और अगर विकास छेड़ छाड़ है तो क्या उत्तरांचल को वैसे ही रहने दिया जाय या फिर कश्मीर में श्रीनगर से रेल के जुड़ने को आने वाले समय की किसी आपदा का सूचक माना जाय।क्यों न सभी पहाड़ी जगह को अन्य स्थान सम्बन्ध विच्छेद कर दिया जाय।जैसे की अंदमान निकोबार के कुछ स्थान है। जब कोयले की सीमित भण्डारण ज्ञात है तो अब क्यों न पहले की तरह लालटेन युग का सूत्रपात किया जाय। दोनों बाते तो साथ-साथ नहीं हो सकती। क्या इतनी बड़ी तबाही का कारण विकास हो सकता? ये सोचने के लिए भी तो विकास करना ही होगा।डायनासोर का इस पृथ्वी पर से अनायास विलुप्त हो जाना,कुछ तथ्यों का पौराणिक कथा में परिवर्तन हो जाना क्या मनुष्य के क्रमिक विकास से कोई लेना देना है?आदि काल से प्रकृति की यही प्रवृति है,ज्वालामुखी की प्रकृति उसके लावा में है ,सुमद्र अपने प्रकृति से लहर को कैसे अलग कर सकता है,नदियो का श्रींगार उसकी उफनती धारा है।ये प्रवृति तो विकास के कारण प्रकृति ने विकसित नहीं किया है। सृष्टी के आरंभ से ऐसा ही है। सीमित और पर्यावरण संतुलित विकास का कोई नया फार्मूला जब तक इजाद नहीं होता ये क्रम तो ऐसे ही चलेगा।
जिन चीजो पर हमारा बस नहीं उसको किसी का कारण मानना शायद अपने आपको धोखा देना होगा। जिन के ऊपर हमारा बस है वैसे सूचना हम नजरंदाज कर गए,हमें करना क्या है वो सोचने में घंटो गुजर गए,देश के सभी नागरिक न होकर अपने-अपने प्रांतो के लोगो को फूल मालाओ से स्वागत में लग गए।संभवतः यही सोच का विकास जहरीली लत की तरह सभी की सोच को सोख कर सारे पर्यावरण को प्रदूषित कर रहा है जिससे जिन्हें हम अपने बीच बचा कर ल सकते थे उन्हें भी खो दिया। हमें कोसने की बजाय हम क्या कर सकते है ऐसे आपदा के समय ये सोचने की जरुरत है। जरुरत इस बात की है सिर्फ आधुनिक उपकरण रखे नहीं वक्त से उसका सही इस्तेमाल भी हो। आपदा प्रबंधन की इकाई बना देने से सिर्फ आपदा रूकती नहीं ,आपदा होने पर उसका निपटने की छमता पे बहस करने की प्रवृति हो। हमारे एजेंसिया हमें सही हालत की जानकारी दे न की संयुक्त राष्ट्र की शाखाये हमें बताये।जब प्रकृति का आरम्भ ही महा प्रलय से है तो भिन - भिन रूपों में वो चलता ही रहेगा बात सिर्फ इतनी है की जो हम कर सकते है वो करे या फिर किसी अन्य आपदा के लिए अभी से बहाने सोचे।
Saturday 22 June 2013
है हमने किया, क्या गुनाह ?
है हमने किया,क्या गुनाह ?
जो नभ ने यु ठान लिया
अमृत बरसे जिस दरिया से
धार काल बन क्यों निगल गया ?
धरती गरजे अम्बर गरजे
थर्राई पाषाणों की शिला
देव भूमी के इस आँचल को
कफ़न बना किसने है लीला ?
कफ़न बना किसने है लीला ?
मलय कांति की खुसबू फैलती
डमरू तुरही चहुँ दिश बजती
वो गुंजित मंगल सी ध्वनी
क्रंदन में कौन बदल गया ?
है हमने किया,क्या गुनाह ?
जो नभ ने यु ठान लिया,
अमृत बरसे जिस दरिया से,
धार काल बन क्यों निगल गया ?
पुष्प लता तरुवर से शोभित,
मृगछाला से सदा शुशोभित,
उस भोले के आसन प्रांगन में
रेत पाषण कौन बिछा गया ?
कणक किरण से सजने वाले ,
अमृत वन से छाने वाले ,
इस धरा पे किसने ऐसा
कलुषित गरल बौछार किया ?
है हमने किया, क्या गुनाह ?
जो नभ ने यु ठान लिया
अमृत बरसे जिस दरिया से
धार काल बन क्यों निगल गया ?
Sunday 16 June 2013
मंजिल की निशां नहीं बस दिल में आशाये है
क्या पाना हमें जिन राहों पर कदम बढते आये है?
मंजिल की निशां नहीं बस दिल में आशाये है।
न दीखता कोई दूर तलक मेरे आगे ,
फिर भी ख्वाब हमने सजाये है।
ये पत्तिया ये दबे दूब सारे ,
कर तो रहे कुछ ये भी इशारे।
इन्ही पगडंडियो पर कोई तो है गुजरा
जिनको इन्होंने दिए कुछ सहारे।
इन्हें देख कर दिल में रौशनी झिलमिलाये है।
मंजिल की निशां नहीं बस दिल में आशाये है।।
चले हम कहा से अब कहा जा रहे है ?
उलझते सुलगते बस बड़े जा रहे है।
जिनको सुना मंजील अब मिल गई है,
इन्ही राहो पे वो भी टकरा रहे है।
दिखा दूर झिलमिल वो मिलता किनारा
पास आने पे खुद को वही पा रहे है।
पर चलने की चाहत नहीं डगमगाए है।
मंजिल की निशां नहीं बस दिल में आशाये है।।
ये जीवन है पथ, पथिक हम चले है,
क्या पाना है मुझको ये द्वन्द लिए है।
कर्तव्य पथ पर तो बढना ही होगा ,
पर पाना है क्या यहाँ कौन कहेगा ?
कदम दर कदम ख्वाहिश गहराता जाता
किसी मोड़ पर काश कोई ये बताता।
है उम्मीद पे दुनिया बिश्वास गहराए है।
मंजिल की निशां नहीं बस दिल में आशाये है।।
मंजिल की निशां नहीं बस दिल में आशाये है।
न दीखता कोई दूर तलक मेरे आगे ,
फिर भी ख्वाब हमने सजाये है।
ये पत्तिया ये दबे दूब सारे ,
कर तो रहे कुछ ये भी इशारे।
इन्ही पगडंडियो पर कोई तो है गुजरा
जिनको इन्होंने दिए कुछ सहारे।
इन्हें देख कर दिल में रौशनी झिलमिलाये है।
मंजिल की निशां नहीं बस दिल में आशाये है।।
चले हम कहा से अब कहा जा रहे है ?
उलझते सुलगते बस बड़े जा रहे है।
जिनको सुना मंजील अब मिल गई है,
इन्ही राहो पे वो भी टकरा रहे है।
दिखा दूर झिलमिल वो मिलता किनारा
पास आने पे खुद को वही पा रहे है।
पर चलने की चाहत नहीं डगमगाए है।
मंजिल की निशां नहीं बस दिल में आशाये है।।
ये जीवन है पथ, पथिक हम चले है,
क्या पाना है मुझको ये द्वन्द लिए है।
कर्तव्य पथ पर तो बढना ही होगा ,
पर पाना है क्या यहाँ कौन कहेगा ?
कदम दर कदम ख्वाहिश गहराता जाता
किसी मोड़ पर काश कोई ये बताता।
है उम्मीद पे दुनिया बिश्वास गहराए है।
मंजिल की निशां नहीं बस दिल में आशाये है।।
वक्त की बात
बिहार की राजनीती पर चंद पंक्तिया ........
न हमको है फायदा न उनको कोई लाभ
फिर क्यों चले हम यु साथ साथ।।
बिहार में भले टूटी है तारे
सभी को दिखाई देती है दरारे।।
मगर हमारी मंजिल तो दिल्ली है यारो
दिवालो पे लिखे इबारत खंगालो।।
कर्म ही धर्म है सब कहते रहे है
सेक्युलर का खेल यु ही चलते रहे है।।
अगर ये पासा अभी हम न फेके
वो बैठे ताक में हमें नीचे घसीटे।।
इन बातो को दिल पर न रखना सदा
वक्त को आने दो हम दिखाएँगे वफ़ा।।
कुछ दूर अलग अलग होंगी राहे
कुछ तुम जुटालो कुछ हम बनाले।।
फिर ये दरारे खुद मिट चलेगी
अगर दिल्ली की गद्दी एन डी ए को मिलेगी।।
राजनीती में ये सब चलता रहा है
वक्त की बाते है सब घटता रहा है।।
Friday 14 June 2013
आज का पल
इसी दौड़ - दौड़ के जीने का मजा है
दौड़ने को न मिले मौका वो जिन्दगी सजा है ।।
जियो मस्ती में |
सीरियल को देख के समय ना गबाओ
कुछ समय माँ के चरणों में भी बिताओ।।
रेत पे नंगे पाँव टहलने वाले अब भी टहलते है
जो चैनल् में है उलझे उनका मन कहा बहलते है।।
रखने वाले इन्टरनैट के साथ पड़ोस का भी हल रखते है
दोस्ती निभाना जानो तो ऐसे तार भी मिलते है।।
जिन्हें प्रकृति से प्यार है उन्हें सब याद है
डूबते और उगते सूरज बीती नहीं ,आज की ही बात है।।
कमबख्त इस दुनिया में अभी भी बहुत मजा है
आप लूटना न जानो तो ये आपकी सजा है।।
पल-पल को गुजरे वक्त से जोड़ना बेमानी है
हर पल को जो न जिए उसकी नादानी है।।
कल गुजर गए आज बस आज का ही राज है,
जो जिए इन पलो को वही असली महाराज है।।
Sunday 28 April 2013
मर्दित होते मान बचाये
भ्रमित मन पग पग पर है भ्रम ,
हवा दूषित आचार में संक्रमण ,
क्या घूम चला विलोमित पथ पर
अब संस्कार का क्रमिक संवर्धन ?
पशु जनित संस्कार कुपोषित ,
सामाजिक द्व्दन्द बिभाजित ,
कानूनों की पतली चादर
कटी फटी पैबंद सुशोभित।।
हाहाकार मचे अब तब ही ,
नर पिशाच जब प्यास बुझाये।
काली दर काली हो कागद ,
और नक्कारे में भोपू छाये।।
बंजर चित की बढती माया
काम लोलुप निर्लज्ज भ्रम साया,
अविकारो का विशद विमंथन
गरल मथ रहे गरल आचमन ।।
भेदन सशत्र अविकार काट हो
शल्य शुनिश्चित चाहे अपना हाथ हो।
हाथ बड़े अब रुक न पाए
मर्दित होते मान बचाये ।।
हवा दूषित आचार में संक्रमण ,
क्या घूम चला विलोमित पथ पर
अब संस्कार का क्रमिक संवर्धन ?
पशु जनित संस्कार कुपोषित ,
सामाजिक द्व्दन्द बिभाजित ,
कानूनों की पतली चादर
कटी फटी पैबंद सुशोभित।।
आओ अपना हाथ बढाये |
हाहाकार मचे अब तब ही ,
नर पिशाच जब प्यास बुझाये।
काली दर काली हो कागद ,
और नक्कारे में भोपू छाये।।
बंजर चित की बढती माया
काम लोलुप निर्लज्ज भ्रम साया,
अविकारो का विशद विमंथन
गरल मथ रहे गरल आचमन ।।
भेदन सशत्र अविकार काट हो
शल्य शुनिश्चित चाहे अपना हाथ हो।
हाथ बड़े अब रुक न पाए
मर्दित होते मान बचाये ।।
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