Sunday 13 October 2013

रावण दहन


                
 स्वधर्म का बोध नहीं रहा 
बिंबों  पर कुंठा निकालते है 
कितने चिंगारी भरकाने वाले 
दशानन पर तीर चलाते है।  
पुरातन को ढोते आये  
वर्तमान को खोते जाते है 
अपने ग्रह का ध्यान नहीं 
नव ग्रह की चिंता जताते है।  
मौके की तलाश है बस 
छद्म भेष में मारीच छाये है
जलते दशानन हर वर्ष की भांति 
फिर खुद के हाथ जलने आये है। । 

------मंगलकामना एवं विजयादशमी की
 हार्दिक शुभकामनाओं सहित-------------- 

Thursday 10 October 2013

सचिन तेरे बिन


                               अंतत वही हुआ जिसका डर था।  आये है सो जायेंगे ये तो शास्वत सत्य है,चाहे जीवन का क्षेत्र हो या खेल का मैदान हो  किन्तु बिलकुल वैसे ही जैसे हर इन्सान ज्यादा से ज्यादा इस संसार में अपना समय  गुजरना चाहता है और काया  के प्रति मोह नहीं जाता। वैसे ही हम तुम्हे ज्यादा से ज्यादा खेलते हुए देखना चाहते थे,इस अंध मोह का क्या कारण है ये तो विश्लेषण का विषय होगा। किन्तु  ये क्या अचानक सन्यास की घोषणा कर ऐसे ही लगा की अब क्रिकेट में मेरे लिये बस काया  रह गया और उसका आत्मा निर्वाण  के लिए प्रस्थान कर गया। 
     ढाई दशक की यात्रा किसी खेल में कम नहीं होती और उसपर भी अपने आपको शीर्ष पर बनाए रखने का दवाव उफ़ । किन्तु हमारा मन कभी ये मानने को तैयार नहीं था की तुम भी इसी हाड मांस के साधरण मानव हो। हमारे  नजर में तुम एक अवतार से कम नहीं थे। जिसका दिव्य प्रभाव सिर्फ क्रिकेट के मैदान को ही आलोकित न कर ,उसके बाहर की भी दुनिया इस चमत्कार से हतप्रभ रहा। हर किसी ने तुमसे किसी न किसी रूप में प्रभावित रहा। बेसक वो क्रिकेट का कोई जानकार रहा हो  या इस खेल से दूर तक नाता न  रखने वाले  मेरे बाबूजी रहे हो । 
        तुम्हारे आंकड़े जो की खेल के  दौरान मैदान पर  बने वो तो पन्ने में दर्ज है उसकी क्या चर्चा करना। वो तो "हाथ कंगन को आरसी क्या और पड़े लिखे को फारसी क्या" वाली बात है। किन्तु मैदान से परे का  व्यक्तित्व ही तुम्हे एक अलग श्रेणी बना दिया जहा न जाने कितने वर्गो में बटे यहाँ  के लोग भी तुम्हारी बातो पर अपना भरोसा कायम करना नहीं भूले,और बाकि धर्म के साथ-साथ क्रिकेट धर्म भी पनपा जिसके तुम साक्षात् अवतार यहाँ माने गए। इतिहास में कई महान विभूति हुए होंगे जिनपर लोगे ने ऐसे भरोसा किया होगा ,किन्तु आज के  भारत में ऐसा तो नहीं कोई दीखता।  नहीं तो क्या ये सम्भव होता की क्रिकेट जब अपने गर्त में जा रहा था और उसके मुह पर सट्टे बाजी की कालिख लगी हुई थी और सभी को इस खेल से वितृष्णा हो रखा था तो किसी मार्ग दर्शक की भाँती आगे बढ़ कर की गई अपील को किसी ने ठुकराया नहीं,तुमपर भरोसा अपने से ज्यादा करते । जब क्रिकेट साम्प्रदायिकता   के  पत्थर से लहूलुहान हो रहा था ,तो आगे आकर अपने भावुक वाणी की कवच से तुमने क्रिकेट और मानवता की रक्षा की। शायद हम इस मनोवृति के संस्कारगत शिकार रहे है जिसका परिणाम है की भगवान् की तरह लोग  तुम्हारे ओर देखने लगे। ये कैसे सम्भव हो की हिमालय की अडिगता ,समुद्र की गंभीरता  ,वायु की ,पलता से लोग तुम्हे अलंकृत न करे। खैर ये सभी आभूषण तो कवि और लेखक की कल्पनाशीलता है जबकि तुम कल्पना न होकर मूर्त हो। जिसे की हम पिछले पच्चीस वर्षो से अपने आस -पास देख रहे है,फिर भी दिल है की मानता नहीं । 
    सचिन तेरे बिन अब भी क्रिकेट के मैदान वैसे ही सजंगे किन्तु अब उसमे वो रौनक नजर नहीं आएगी। चौके -छक्के भी लगेगे किन्तु उसमे वो उल्लास नहीं आएगा। मैच के निर्णय ही मायने रखेंगे किन्तु उसमे संभवतः वो आनंद का संचार नहीं होगा। मै कभी ये विचार नहीं किया की मै  क्रिकेट प्रेमी हु ,या इस खेल में संलग्न देश प्रेमी किन्तु ये कभी संकोच नहीं रहा की मै सचिन प्रेमी हु। तेरे बिन अब क्रिकेट वैसे ही अनुभव करूँगा जैसे की किसी खुबसूरत गीत का विडिओ देख रहा हु किन्तु आवाज नदारद है। जैसे की तुम क्रिकेट की बिना जीवन की कल्पना नहीं करते सम्यक वैसे ही मै सचिन के बिना क्रिकेट की कल्पना नहीं करता,मुझे डर बस ये है की कही गलती से इतिहास यदि अपने आपको दोहराएगा तो कौन तुम्हारे भार को वहन करेगा ,खिलाडी है तो मैदान पर तो वो इसे संभल लेंगे । 
   गतिशीलता जीवन की धुरी है और पूर्ण ठहराव अंत। मुझे लगता है की क्रिकेट के खेल के प्रति पूर्ण ठहराव बेशक न हो किन्तु ये एक अल्प विराम तो अवश्य ही है। जब तक की कोई और सचिन अवतरित नहीं होता या किसी को सचिन के अवतार के रूप में नहीं देखता। तब तक सचिन तेरे बिन क्रिकेट बिना स्याही की कलम ही है……। 

Wednesday 9 October 2013

एक याचना


माता तेरे नाम में   
श्रद्धा अपरम्पार है
झूम रहे है  भक्त सब
नव-रात्र की जयकार है । ।

शक्ति सब तुम में निहित
तुम ही तारनहार हो
सृष्टि की तुम पालनकर्ता 
तुम कल्याणी धार हो  । । 

माता तेरे आगमन पर
कितने मंडप थाल  सजे
क्या -क्या अर्पण तुझको करते
शंख मृदंग करताल बजे। ।

कुछ भक्त है ऐसे भी
जो अंधकार में खोये है
करना चाहे वंदन तेरा
पर जीवन रण में उलझे है। 

क्या लाये वो तुझे चढ़ावा 
जब झोली उनकी खाली है 
श्रद्धा सुमन क्या अर्पित करते 
तेरे द्वार भरे बलशाली है। । 

तू तो सर्व व्यापी मैया
ऐसे  क्यों तू रूठे है
उन्हें देख कर लोग न कह दे  
तेरे अस्तित्व झूठे है। । 

है बैठे  फैलाये झोली कब से 
तेरी कृपा की वृष्टि हो 
बस भींगे उसमे तन मन से 
उनमे भी एक नए युग की सृष्टि हो। । 

Sunday 6 October 2013

विरोधाभास

                        


         नव शारदीय नव रात्र  की सभी को हार्दिक शुभकामना एवं बधाई।  इस रचना को किसी प्रकार के धार्मिक बन्धनों में बंध कर न देखे। स्वाभाविक रूप से किसी के आहात होने से खेद है  -----   

आडम्बरों  के  पट खुल गए ,
मन के कुत्सित सेज पर ,
पवित्रता के आवरण झुक गए  । 
मूर्त शक्ति की परीक्षा हर रोज, 
अमूर्त शक्ति पे सब शीश झुक गए। 
नव शारदीय उत्साह का संचार
भाव -भंगिमा बदले ,नहीं विचार। 
विरोधाभास के मंडपों में ,
कुम्हार के गढ़े कच्चे रूपों में ,
श्रधा जाने कैसे उभर आते  है। 
जिस धरा पर लगभग हर रोज ,
कितने कन्या पट खुलने से पूर्व ,
विसर्जित कर दिए जाते है। 
आँगन में शक्ति का आंगमन 
हर्ष नहीं ,विछोह से मन 
परम्पराओ में जाने क्यों ढोते है, 
ऐसे विरोधाभास कैसे बोते है। 
माँ इस बार कुछ अवश्य करेगी 
कुत्सित महिषासुर के विचारो पे 
सर्वांग शस्त्रों से प्रहार करेगी। । 

Wednesday 2 October 2013

एक आत्मा की पुकार

हो आबद्ध युगों -युगों से
निरंतर दर-दर बदलता रहा
मुक्ति की खोज में
अब तक किसी न किसी 
काया संग युक्त ही चलता रहा.…। 

 मै अजन्मा ,जन्म काया
निर्लिप्त ही, न मोह पाया
शस्त्र ,वायु या अग्नि
अशंख्य पीड़ा की जननी  
अन्य भी न संहार पाया  ……. । 

किन्तु अब घुटता यहाँ
काया में बसता जहाँ
मलिनता छा रहा
मै  आत्मा अब
खुद पर ही रोता रहा ……. ।  

सतयुग से भटकता   
कदम बढाता कल्कि तक पंहुचा 
शायद मै  हो जाऊ मुक्त 
अंतिम सत्य से दर्शन 
युगों युगों से अब तक विचरण ……. ।  

धृष्टता सब युगों में देखि
किन्तु अब ये संस्कार 
मन मलिन काया संग करता 
मै आत्मा वेवश लाचार
किन्तु दोष ले पुनः भटकता…… . । 

जीर्ण -शीर्ण रक्षित देह 
व्याकुल विवश कितने से नेह 
मृत जग न छोड़ जाना चाहे 
किन्तु मै हर्षित हो अब 
महाप्रयाण करू इस जग से परे…….. . ।  

करुणा पुकार अब श्याम करू 
इन दिव्यता से उद्धार कर  
मै  भी चाहूँ मुक्ति अब 
खुद से अब इस आत्मा का 
इस धरा से संहार कर…… . । 

Sunday 29 September 2013

खो गए सभी


उन्मुक्त गगन 
शीतल पवन
निर्मल जल 
विहंग दल
रेशमी किरण
भौरों का गण
सतरंगी वाण
बूंदों की गान  
ऋतुओ से मेल 
झिंगुड़ का खेल 
टर्र-टर्र का राग
आँगन में प्रयाग 
चन्दन से धुल 
मिल पराग ऑ फूल 
उठता गुबार 
गोधुली में अपार 
कचड़ो का हवन 
सर्द सुबहो में संग 
सकल गाँव का प्यार 
जो पूरा परिवार 
है खो गए सभी 
जब से छूटा वो जमीं। । 
क़दमों के चाल 
संग जीवन के ताल 
उदेश्य विहीन 
नहीं कुछ तर्क अधीन 
पथ पर सतत 
यात्रा में रत 
तन बसे कहीं 
पर मन वहीं 
डूबा प्रगाढ 
मिट्टी संग याद 
ए  काश कही 
हो जाये यही 
घूमे जो काल 
विपरीत कर चाल  
फिर जियूं वहाँ 
याद बसी जहाँ। । 

Saturday 28 September 2013

इज्जत का जनाजा है ...


इज्जत का जनाजा है 
बेशर्म आसुं बहा बहा रहे है,
बहरों की बाराती में
देखों भोपूं पे कई गा रहे है। ।

कौन किससे अर्ज करे
हर हाथों में शिकायत का लिफाफा है,
जिनको बिठाया है गौर करे
रौशन नजर उनका कहीं जाया है। ।

खुशहाली को बयां कैसे न करे
गोदाम अनाजों से नहाया है,
कमबख्त अंतरियों को खुद गलाते  है
अब तक कार्ड नहीं बनाया है। ।

मानणीयोँ को मान देना न भूले
कभी कदम बहक जाते है,
जम्हुरिअत इनसे ही जवां है
वरना कौन इसमें कदम बढ़ाते है। ।

हर कोई खफा है इन झोको से 
ये लौ बहक न जाये कही ,
आशियाने जो बनाये है ख्वावो के 
पल भर में धधक न जाये कही। ।  

Thursday 26 September 2013

सीमा

(चित्र :  गूगल साभार )
काश हम सब आपस  में
एकाकार हो पातें  ,
मानव अगर सीमाओं से
आजाद हो जाते। । 
कटीली तारों के जगह
अगर गुलिस्ता फूलो का होता
महक बारूद की न घुलती
वहां विरानियाँ न होता।
सरहदों के नाम न  कोई
सभी अनजान ही होते
मानव अगर सीमाओं से
आजाद हो पाते। ।
क्यों खिंची है ये रेखा
उलझते घिर रहे है हम
कही जाती का बंधन है
कभी सीमाओं पर लड़ते हम।
है धरती माँ अगर अपनी
हम संतान हो पाते
मानव अगर सीमाओं से
आजाद हो पाते। ।
कभी था विश्व रूप अपना
न कोई और थी पहचान
मानव बस मानव था 
अब भ्रम फैला है अज्ञान
वो संकीर्ण विचारो को
अगर हम मिटा पातें
मानव अगर सीमाओं से
आजाद हो पाते। ।
ये कैसी जकडन है
जो हम खुद को दबाते है
प्रकृति में कहाँ कही बंधन
मानव क्यों सिमटते जाते है
अगर इन बन्धनों से हम 
खुद को दूर कर पाते 
मानव अगर सीमाओं से
आजाद हो पाते। ।
अगर ऐसा जो हो पाता 
कभी रणभेरियाँ न बजता 
सरहदों सी मौत की रेखा 
वहां कभी रक्त न बहता 
इन्ही रक्तो से सिच कर धरती 
स्वर्ग सा रूप दे पाते  
मानव अगर सीमाओं से
आजाद हो पाते। ।     

दूरियाँ


किसी तीली की वहां जरुरत नहीं,
दिल जहाँ लोगो के जलते है,
कौन यहाँ आग बुझाये अब,
पानी की जगह नफरत ढोते है। ।

किसी पे अब ऐतबार क्या करे,
अब सब खुद में अनजाने से है,
जिनको समझा था मददगार,
उन्ही हाथों ने आशियाने जलाएं है। ।

प्रेम से नफरते बढ़ रही है अब ,
नफरत से भी प्रेम का जूनून है,
इन्शानियत अब सरेआम चौराहे पर,
इन दोनों के बीच पीसने को मजबूर है। ।

बढती जा रही बंजर जमी में,
जज्बे दलदलों में धंस सी रही ,
दिलों की हरयाली मुरझाई सी,
नागफनी हर जगह है पनप रही। ।

कौन ये बेचता है और खरीदार कौन,
भरे बाजार में इनका मददगार कौन,
सब जान कर भी अनजाने से रहते है,
जिन्दा लाश से हर जगह दीखते है। ।           

Sunday 22 September 2013

चौक -चौराहे

जबसे चौक बाजार बन गए
दिल बेजार से हो गए,
अब मिलता  नहीं कोई मुझे
लोग उधार से हो गए।
कभी इस जगह पे
जमघटों  का दौर था ,
गाँवों के ख़ुशी और गम का
वो रेडियो बेजोड़ था। 
एक कप चाय का प्याला ही नहीं
दिन भर की उर्जा उसमे ओत-प्रोत था,
और जो शाम को थक कर लौटा तो
थकान मिटा दे ऐसे गर्म धारा का स्रोत था। 
अब हम मिलते है वहां
बस एक खरीदार की तरह ,
बातों के भाव भी बदल गए है
बाजार की तरह।
विकास जबसे गाँव में छाया  है ,
चौक  भी नए  रूप में आया है ,
सुख-दुःख का मोल करे 
ऐसे नोट कब कहाँ मिलते है ,
इसलिए चौक -चौराहे पर अब 
आम-जन नहीं बस खरीदार दीखते है। । 
            

Saturday 21 September 2013

मेरे उद्दगार


मै कोई पथ प्रदर्शक
 या तारणहार नहीं ,
उठती लहरों को मैं बांधू 
ऐसा खेवनहार नहीं। 
मेरे बातों में न कोई
 भविष्य की पुकार सुने ,
मेरे उद्दगारों में अपने 
सपनों के अल्फाज चुने। 
मै तो हूँ बस पथिक राह का 
कदम बढ़ता चलता हूँ ,
कंटक मार्ग या पुष्प शुषोभित 
कर्म निभाता बढ़ता हूँ।  
धरा धुल सा बेशक हूँ  पर
इतना भी कमजोर नहीं ,
ठोकर खा मै सर चढ़ जाऊ
 इन जोशो में नहीं कमी ,
अंगारे  जब राह में पाया 
दिल बेशक कुछ शुष्क हुआ 
हिमवान सा धीरज धर मन 
डगर शीतल अनुकूल किया।
मैं चाहूँ जिस राह से गुजरू 
वहां न ही कोई शूल रहे 
आने वाले पथिक न अटके 
और पीड़ा से दूर रहे। 
 हो सकती है भूल ये संभव 
   राह अगर मै  भटक गया , 
मुमकिन है दिग्भ्रमित होकर 
कही बीच डगर में अटक गया। 
कोशिश होगी अपनी दृष्टि 
खुद अपने में लीन करू ,
सत्य पुंज जो राह दिखा दे 
खुद को यूँ तल्लीन करूँ। 

Thursday 19 September 2013

बिंब

ऊपर खुला आसमान
निचे अनगिनत निगाहें
निगाहों जुडी हुई
अनगिनत तंत्र सी रेखाएं,
मन में प्रतिबिंब का क्या है मायना 
जिससे जुड़ी है सभी निगाहों का कोरा आयना।
क्या बिंब सभी की आँखों में
बस एक सा उभरता है
क्या देखते है हम ,
क्या देखना चाहते है
फर्क दोनों में पता नहीं ,
ये तंत्र कैसे कर पाते है?
बादलो से छिटकती किरणे
देव के मस्तष्क की आभा
किसी में  उभर आता है,
कोई घनी केसुओ को लहराते हुए
देख कर मचल जाता है।
चाँद में किसी को दाग नजर आता है ,
कोई सुन्दरता का पैमाना उसे गढ़ जाता है।
अनगिनत टिमटिमाते तारों की लड़ी
सर्द हाथों में गरमाहट की उमंग है ,
किसी को व्याकुल पौष में शोक का तरंग है।
पथ्थर को देव मान कोई पूजता है ,
कोई उसी से रक्त चूसता  है।
तंत्र की संरचना में कोई फर्क नहीं ,
तत्व हर एक में बस है एक सा ही,
फिर ये दोष कहाँ से उभर आता है,
है आखिर क्या जो बिंब के भावों को गढ़ पाता है ?
एक ही बिंब को हर दृष्टि में बदल जाता है ?

Saturday 14 September 2013

मायने

कभी मै  गम पीता हु 
कभी गम मुझे पीता है
मरते है सब यहाँ ,
पर सभी क्या जीता है ?
जीने के सबने मायने बनाये है
उनके लिए क्या 
जो कफ़न से तन को ढकता  है ?
मेरी मंजिले वही 
जहाँ कदम थक गए
निढाल होकर  जहाँ 
धरा से लिपट गए। 
सभी राहें वही
फिर राह क्यों कटे कटे
विभिन्न आवरण से सभी 
सत्य को क्यों ढकता है ?
कदम दर कदम जब 
फासले है घट रहे 
मन में दूरियां क्यों 
बगल से होता जाता है ?
जहाँ से चले सभी 
अब भी वही खड़े 
विभिन्न रूपों में बस  
वक्त के साथ बदल पड़े। 

कुछ हिंदी दिवस पर

चित्र :गूगल साभार  
अपनों से जो मान न पाए,   औरों से क्या आस करे 
निज के आगन में ठुकरायें,  उसे कौन स्वीकार करे।  
जिनको आती और भी भाषा ,   हिंदी भी अपनाते है
केवल हिंदी जानने वाले थोडा -थोड़ा सा सकुचाते है।
जिनकी  रोजी-रोटी हिंदी ,उनको भी अभिमान नहीं
उनुवादक से काम चलाये और भाषा का ज्ञान नहीं।
जाने इनके मन में ऐसी कौन सी ग्रंथि विकसित है
कृत्न्घ्नता का बोध नहीं जो भाषा उनमे बसती  है।
मुठ्ठी भर ही लोग है ऐसे जो निज भाषा उपहास करे
ऐसा ज्ञान किस काम का जो दास भाव स्वीकार करे।
भाषाओ के खिड़की  जितने हो, इससे  न इंकार हमें                                  
पर दरवाजे हिंदी की हो, बस इतना ही  स्वीकार हमें।
मातृभाषा में सोचे सब और हिंदी में अभिव्यक्त करे 
प्रेम की भाषा यही जो हमको,  एक सूत्र में युक्त करे 
है उन्नति सबका इसमें ,  ज्ञान-विज्ञान सब बाते है 
भाषा की बेड़ी  को जो काटे अब वो  आजादी लातें  है। ।  

Wednesday 11 September 2013

नफरत की दिवार

क्या दीवार हमने बनाई है, 
न इंट न सीमेंट की चिनाई है ,
पानी नहीं लहू से सिचतें है हम , 
कभी-कभी रेत की जगह, 
इंसानों के मांस पिसते है हम। ।  
पुरातन अवशेषों से भी नीचे 
धसी है नींव की गहराई ,
शुष्क आँखों से दिखती नहीं 
बस दिलों में तैरती है परछाई। । 
भूतो का भय दिखाकर 
भविष्य ये बांटता है 
धधकती है आग इसके रगड़ से 
इन पर बैठकर कोई 
अपना हाथ तापता है। ।   
जाने कब कहाँ ये खड़ी हो जाये 
ख़ुशी के खेत थे जहाँ 
नागफनी पनप जाये। 
ये दिवार सब सोंखता है 
इन्सान का इंसानियत पोंछता है 
क्या मासूम ,क्या बुजुर्ग ,क्या महिलाये
कल तक जो मिले थे गले से गले 
इनमे टकराकर इसमें समां गए 
कुछ उठी और ऊँची 
और जाने कब-कब टकराते गए। । 
कुछ के  कफ़न से ढककर 
ये दिवार छुप सा जाता है 
शायद इस बार टूट गई 
ऐसा भ्रम दिखा जाता है। । 
प्रेम दरककर जब जुट जाता 
गांठ भी साथ अपने  ले आता 
ये दरककर जब जुटते है 
और मजबूत होकर उठते है। 
इन्सान कैसे हैवान है 
ये इसका सबूत होता है 
इसे गिराना है मुश्किल 
नफरत की दिवार
बहुत मजबूत होता है। ।   

Sunday 8 September 2013

मांग स्वरुप

                 आज हरितालिका व्रत है।  मनाने वाली महिलाओं  में इस व्रत का उत्त्साह विशेष रहता है ,कारण सभी रूपों में कई प्रकार के हो सकते है ।     बदलते समय का सामजिक परिवेश का प्रभाव निशित रूप से दृष्टिगोचर हो रहा है।  वैसे तीज के साथ-साथ ही हमारे यहाँ चौठ चन्द्र  व्रत भी होता है अपभ्रंस में चौरचन कहते। बाल्यकाल से चौठ  की महिमा ज्यादा हमारी नजरो में था क्योंकी  प्रसाद की अधिकता हमें उसी व्रत में दीखता था अतः महता उसकी स्वंय  सिद्ध थी।  धर्म के प्रति यदपि स्वाभाविक लगाव है तथापि  उसके बन्धन सिर्फ विशेष उत्सवो या त्योहारों अथवा मंदिर के अंतर्गत न होकर हर जगह महसूस करता हु। 
          
    श्रीमतीजी के पहले तीज व्रत से ही आग्रह रहता था की इसकी कथा मै स्वंय  उन्हें सुनाऊ  जिसकी इच्छा पूर्ति इस वार भी की गई।  ऐसे तो हरितालिका के कथा  वाचन से कई प्रकार के शंका से खुद ग्रसित हो जाता हु किन्तु किसी प्रकार से आस्था को ठेस न पहुचे अतः कोई वाद -विवाद से हम दोनों बचते है। खैर आज उनका विशेष आग्रह था की कोई कविता इस व्रत के ऊपर या उनके लिए ही लिख दू  तथा उसको अपने ब्लॉग पर भी  दूँ  , उनके लिए विशेष दिन है इसलिए आग्रह टाला नहीं गया और कुछ पंक्तिया   …………………………टूटी-फूटी कुछ  तुकबंदी कर दिया . त्रुटियाँ संभव है।

                       
          (१ )
              महिमा 

 है उत्सर्ग कई रूपों में
किसका मै गुणगान करू
माँ की महिमा  महिमा ही है
उसका क्या बखान करू। 
जो भी रूप में आये हो
रूप बड़ा ही न्यारा है
जीवन के हर सोपानों में
उसने हमें सवारा है। 
हर रूपों में त्याग की मुरत
अर्धांग्नी या माँ की सूरत
कितने व्रत है ठाणे तूने
विभिन्न रूप में माँने तूने
हा अब ये निष्कर्ष है लगता
जननी ,पालन हर रूप में करता।। 


             (२)
          कंचन के नाम 
माँ ने मुझको
जिन हाथो में
ऐसे ही जब सौप दिया ,
था मै किंचित शंकालु सा
क्या नेह का धागा तोड़ दिया। 
तुम संग हाथ में हाथ का मिलना
दिल खुद में तल्लीन हुआ ,
उल्काओ के सारे शंके
आसमान में विलीन हुआ।
तेरा साथ कदम नहीं
खुशिओं के पर पाए है ,
कंचन नाम युहीं नहीं
सब पारस के गुण पाए है।
बहुत कुछ कहने को है ,
हर भावों को गढ़ने को है,
पर मेरे शब्द समर्थ नहीं है,
हर शब्द का बस अर्थ तू ही है।।  

Friday 6 September 2013

रोज कहानी नयी मैं गढ़ता ।।

जीवन के हर लघु डगर पर
उम्मीदों के बल को भर कर
है कांटे या कली कुसुम का
राहों की उस मज़बूरी पर
कभी ध्यान उसपर न रखता
रोज कहानी नयी मैं गढ़ता ।।

सुबह-सुबह  रवि है मुस्काए
या बैरी बादल उसे सताये
शिशिर सुबह की सर्द हवाए
या जेठ मास लू से अलसाए
उस पर मै  न कभी विचरता
रोज कहानी नयी मैं गढ़ता ।।

हर दिन में एक सम्पूर्ण छवि है
ब्रह्म नहीं मानव का दिन है
कितने क्षण -पल है गुजरते
उन सबका अस्तित्व अलग है
हर क्षण को जी-जीकर कर ही बढ़ता
रोज कहानी नयी मैं गढ़ता ।।

        मंजिल यही कहाँ है जाना        
प्रारब्ध नहीं बस कर्म निभाना  
हर  कदम की महिमा न्यारी 
जैसे बिनु  दिन  वर्ष बेचारी
कदम जमा  कर आगे बढता 
रोज कहानी नयी मैं गढ़ता ।।

पूर्ण जीवन एक महासमर है
हर दिन का संग्राम अलग है
अमोघ अस्त्र है पास न कोई 
डटें रहना ही ध्येय मन्त्र है 
घायल हो-होकर मै  उठता 
रोज कहानी नयी मैं गढ़ता ।। 

परजीवी का भाव नहीं है
याचक सा स्वभाव नहीं है
आम मनुज दीखता हूँ बेवस
पर दानव सा संस्कार नहीं है 
अपनी क्षुधा बुझाने हेतु 
खुद का रक्त ही दोहन करता 
  रोज कहानी नयी मैं गढ़ता ।। 

ज्यों-ज्यों रवि पस्त है होता 
तिमिर द्वार पर दस्तक देता 
जग अँधियारा मन प्रकाशमय 
ह्रदय विजय से हर्षित होता
है संघर्ष पुनः अब कल का 
पर बिता आज ख़ुशी मन कहता  
रोज कहानी नयी मैं गढ़ता ।। 

Thursday 5 September 2013

बस कह दिया

बातो को कितना अब आसान कर दिया 
हर भाव को दिन के अब  नाम कर दिया। 

रफ़्तार जाती बढती समय अब है कम 
कैसे निभाए हर रोज रिश्तो का मर्म। 

फासले कदम के जब घट रहे है यहाँ  
दिलों के बीच जैसे बढ रही है दूरियां।  

कुछ हम अब चिंतनशील  हो रहे  
परिवार बढ रहे एकल बिम्ब हो रहे। 

भाव पहले जिनका कोई मुल्य न लगाया  
उसको भी बाजार के अब हम नाम कर रहे। 

हर तरह के रिश्ते दिन में सिमट गए
उतर से दिल के अब कार्डों पर छप गए। 

सुख रहा दिलो में प्यार भाव सुख रहा   
कैसे निभाए हर रोज जब सब बिक रहा। 

अब गुरु के बताये मार्ग कैसे हमें दे तार   
रोज है जिनकी जरुरत याद करते एक बार। । 

Monday 2 September 2013

मन का आपातकाल

सरसराहट ,हलचल ,लहर ,तूफान 
सभी उठते है मन में कई बार 
पर टकराकर न जाने किस तट से
कही  गुम हो जाते  है। 
चाहता हूँ की खेलूं इन लहरों से 
पर रशोई की चिंगारी या बच्चे की किलकारी 
जिससे शायद ढंका है मन का दिवार   
ये लहर भेद नहीं पाते और भटक जाते है। 
कही कोने में अक्सर 
शुन्य का भंवर घुमड़ता है 
निरीह क्रंदन ,बेवस आँखे 
सेवक का जनता से  
विश्वासघात की बाते 
और न जाने क्या -क्या 
उस भंवर में सिमट आता है। 
सब कुछ लीलता है बिलकूल 
चक्रवात की तरह और फिर 
सिमट पड़ता है मन के किसी कोने में निर्जीव
सुनामी के बाद के प्रहार की तरह। 
आपातकाल मन में छा जाता है 
हम उठते है उसके बाद 
तंत्रिकाए -स्नायू तंत्र सभी 
इनसे उबरने के प्रयास में लग जाते है।  
पुनः शब्दों को संजोते है 
खामियों  की स्याही में भिगोंते है 
वाक्यों का विन्यास नए रूप में आता है 
एक बार पुनःकुछ-कुछ पहले जैसा  
मन का आपातकाल चला जाता है। । 

Sunday 1 September 2013

न्याय-अन्याय


                                                                           चित्र :गूगल साभार 
कितने मोम पिघल गए ,
जो न्याय पाने के लिए जलाये गए 
पिघले हुए खुद में एकाकार हो गए 
क्या गर्म होना, जब बेकार हो गए। 
किसके साथ अन्याय हुआ ?
न्याय ने सिर्फ खुद से न्याय किया। 
उसे रुंह के झकझोड़ने से कोई सिहरन नहीं होता, 
सिसकते चीत्कार से कान मर्म नहीं होता ,
देखकर भी वो देखता नहीं है, 
आँखों में जड़े पथ्थरों से 
क्या कभी, काम भी  होता है ? 
लिखी हुई हर्फो को देखता है, 
आज में नहीं कल में ढूंढ़ता  है। 
उम्र कम है कुकर्म का मिसाल है ,
क्या करे लिखे पर चलना यहाँ आचार है। 
कुछ और ऐसे मिसालो की तलाश है, 
नाबालिग को बालिग करना क्या मामूली बात है।  
इंतजार तब तक न्याय करेगा, 
भला अभी क्यों खुद से अन्याय करेगा। 

Saturday 31 August 2013

अस्तित्व


कुछ शेष रह जाते यहाँ
यादो की परछाई में
कुछ के निशां भी नहीं होते  
बह जाते है वक्त की पुरवाई में। 
किसकी किस्मत क्या  है
ये तो बस बहाना है,
गुजरे कर्मो को इस लिबास से
ढकने का रिवाज पुराना है। 
खुद में रहकर ही ,
खुद के लिए जो  गुजर जाते है ,
उन मजारो पर देखो जाकर
वहाँ घास-फूसों का आशियाना है। 
अपने आप को छोड़कर जो
औरों के लिए दर्द  लेते है 
अपनी पलकों के नींद किसी और को देते है
जिनका हाथ किसी गैर का सहारा है 
कंधो पे भार खुद का नहीं 
अरमानों का बोझ कई का संभाला है 
जो आवाज है कई 
हकलाती जुवानों का 
जिनके कानों में गूंजती है टीस 
किसी के कराहने का। 
उनके अस्तित्व ढूंढे नहीं जाते
वो सोते है गहरी नींद में
और लोग रोज उन्हें जगाने वहाँ आते 
झुके हाथों से नमन उन्हें करते है 
तुम हो साथ मेरे बस ऐसा कहते है। । 
इन बातों को शब्दों में गढ़ना कितना आसान  है ,
लगता नहीं कोई इससे अंजान है , 
हम उनसे अलग नहीं कोई 
किन्तु सोच शायद, कभी कर्म में बदल जायेगे 
कोई अस्तित्व हम भी गढ़ जायेंगे। । 

Wednesday 28 August 2013

शुभ-जन्माष्टमी

आप सभी को जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामना 


अब आडम्बर कोई नहीं,सब तेरा प्रभु इंतजार करे ,
कुछ शुक्ल नहीं दिखता बस चारो ओर अज्ञान भरे। 

कल्कि का कालिख उड़ रहा सब ओर तम  अँधेरा है,
भीग रहे कितने नयने यहाँ छाया अँधियारा गहरा  है। 

कर्तव्य का कोई मोल नहीं मोह ने सबको लीला है, 
गीता ज्ञान की बाते सिर्फ टकराती मंदिर शिला है। 

जो लाँघ चले मंदिरशाला तेरे विकृत गुणगान करे 
चौसंठ कला नहीं कोई बस रसिया कह सम्मान करे। 
  
इस बार फिर तू आएगा हम मधुर धुन पर नाचेंगे
कितने ही बिकल विलापो को बस कुछ पल ही  ढाकेंगे। 

अबकि आकर मुरली मनोहर कुछ ऐसा चक्र चला देना 
शिश अलग अज्ञान का कर पुनः ज्ञान रवि फैला देना। 

Monday 26 August 2013

मै सिर्फ मै हूँ

सफ़र कितना कर लिया 
शून्य से निकला ,भंवर में बिखरा 
कितने अणुओं -परमाणुओं के 
आकर्षण और विकर्षण से ठिठका 
तरल हो कब तक था उबला 
जैसे किसी संताप से निकला  
फिर भी चलता रहा अब तक 
अबाधित ,कुछ प्रायोजित 
जाने किस महाहेतु से।
शून्य के द्वार से ,
महा प्रलय के प्रहार तक। 
है सभी का कुछ न कुछ मुझमे 
सींचा है पञ्च तत्व पग में 
मन का पाया विस्तार अनंत 
न किंचित दूर छिटके कोई भी कण 
अबाधित ,कुछ प्रायोजित 
एकात्म के ही महाहेतु से।
किन्तू अब इस पड़ाव पर 
निरुदेश्य सा बेचैन,दिग्भ्रमित 
सत तत्व का सब  अक्स  धुल रहा जैसे  
रह गया बस राख का रज जैसे  
थी  मुझमे असीम आकांक्षा 
और था सामर्थ्य भी 
अनंत व्योम को खुद में समाहित 
या हो जाऊ उसमे विलीन।
प्रकाश पुंज अब छिटकता जैसे  
महाउद्देश्य से भटक गया , 
"हम" है अब भी  कितना दूर मुझसे 
"मै" सिर्फ "मै" हूँ ,में  रह गया। । 

Sunday 25 August 2013

पुनरावृती ...?

समंदर के किनारे ,
रेत पर बनती आकृतिया ,
कैसे लहरों के संग विलीन होकर
सागर में समां जाती है।
वो उकेरता है फिर भी,
कुछ रंग भरने की चाहत समेट नहीं पाता ,
है अन्जान नहीं की ,
लहरे फिर से आनी है ,इसको समां जाना है।
कितना अजीब है पर
हम इसको ही दोहराते है। ।

जो आया है खुशी  में उसके ,
और जो चला गया ,
दुःख में अहसास कर,
बरबस चेहरे पर निकल छा जाते।
ये आंसू है खारे ,सभी जानते है ,
पर  मोह  जिसे नित मानते है।
बरगद का जड़ जैसा मन,
कितना भी तोड़ो मोह से जुड़ जाते ।
कितना अजीब है पर
हम इसको ही दोहराते है। ।

कमबख्त दिनों-दिन तक उलझे रहे ,
न बुझने पाए रसोई की ताप।
ठन्डे हो जाने पर भी ,
 इन उष्ण लपटों की चाहत से ,
खुद को बचा पाते नहीं।
सब सामने है ,सब कुछ दीखता है,
रोज वही लहरों का उठाना,
और एक नई  इबारत  की कोशिश और टूटना।
कितना अजीब है पर
हम इसको ही दोहराते है। ।

स्वर्ग-नरक

                                                                                                                                                                                   (चित्र :गूगल साभार )


एक रोज सुबह -सुबह दरबार में,लाल-पीले यमराज ,
बोले अबतक क्यों नहीं आया,  चित्रगुप्त महराज।।

उनको बोलो जाकर जल्दी,सभी बही खता ले आएगा,
पृथ्वी लोकआयोग का फाइल जल्द यहाँ भेजवायेगा।।

कुछ दिनों से देख रहा हु, कुछ तो गड़बड़झाला है,
यमलोक के कामो पर अब  उगली उठने वाला है। । 

जिसने जो भी कर्म किये है वैसा ही उपदान करो ,
जैसे भी हो लंबित मामले जल्दी से निपटान करो।।

तब तक भागे-भागे पहुचे वहा चित्रगुप्त महराज,
भाव-भंगिमा चिंतित मुद्रा, बोले जय महराज।।

 बोले जय महराज गजब क्या अब घटना बोलू ,
नहीं मिल रहे फ़ाइल् अब क्या मुह मै खोलू।।

समझ कुछ नहीं आ रहा कैसे ये सब हो गया ,
मानव लोकआयोग का फ़ाइल् ही केवल खो गया।। 

थी नामे कई बड़ी मानव, जिस पर था इल्जाम बड़ा ,
कैसे उसने सेंध लगाया द्वारपाल था जब खड़ा ।।

लगता है लंबित मानव ने कोई नई  युक्ति लगाया 
दीमक से साठ-गांठ या द्वारपाल रिश्वत से मिलाया। ।  

यमराज की चडी त्योंरिया ,गरजे तब भरे  दरबार ,
कोई केस न लो मानव का लिख भेजो ब्रह्म के द्वार। 

पृथ्वी लोक के बाकी जीवात्मा वैसे ही चलेगा, 
मानव को करो वर्जित तब यमलोक बचेगा। । 

पृथ्वी लोक के आत्मा भी अब स्वक्छ नहीं रह पाता 
दूषित हवा पानी सब लेकर यहाँ संक्रमण फैलता।।

जिसका जो है कर्म का लेखा ,ब्रह्मा को सब भेजवाओ,
ले-लो साथ महेश का गण और वही सजा दिलवाओ। ।  

तब विश्वकर्मा ने  पृथ्वी पर ही  दोनों रूप बनाया , 
मानव अपने कर्मो का फल तब से यही है  पाया।।

Friday 23 August 2013

जीवन में कविता है और कविता में जीवन।।

                                                                                                                                                                              (चित्र :गूगल साभार )
जीवन की गति कुछ-कुछ यूँ बढती है,
जैसे कोई स्याही कागद पे चलती है। 
क्षण-क्षण अक्षरों का मिलता है जैसे,
पलों का  रूप शब्दों में ढलता  है वैसे।
हर कोई कुछ अर्थ गढ़ना चाहता है ,
कुछ क्षण, पल भी ठहरना चाहता है। 
कौमा ,अर्ध कौमा जैसे ठहर पड़ता है ,
पंक्तिया धर रूप निखर चलता है। 
बढ़ते हुए पर  दोनों भावों में है  मन ,
जीवन में कविता है या कविता में जीवन।।

छंद ,मात्र ,अर्ध बिंदु पर नजर है गड़ाए,
अटक-अटक कर पर नीव बढती ही जाये। 
अलंकारो की चाहत उलझती है जब-जब ,
चौराहों में कही खड़े पाते है तब -तब। 
जिनको मिला भाव संवरकर वो आगे,
जीवन के सुर में है खूब  गोते लगाते।
बढ़ते हुए पर  दोनों भावों में है  मन ,
जीवन में कविता है या कविता में जीवन।।

कोई मुक्तक है छेड़े,उन्मुक्त ही बड़ा है  ,
ढूंडता सार उसमे ,बस कोई अर्थ गढ़ा है। 
नागफनी के भी श्रृंगार कोई कर है बढता,
कोई खुसबू में उलझ कर ही रहता। 
जीवन क्या सोच-सोच कर है गढ़ते ,
या गढ़-गढ़ कर सदा सोचते है रहते ? 
बढ़ते हुए पर  दोनों भावों में है  मन ,
जीवन में कविता है या कविता में जीवन।।

ॐ नाद जीवन, जब श्रृष्टि ने पुकारा , 
ऋचा वेद कविता की संग बही धारा।  
जीवन में कविता जैसे सरिता में नीर ,
कविता में जीवन भड़े  भाव गंभीर। 
मधुकर ये जीवन जब कवित्व घुलते है,
काया बिन आत्मा, नहीं तो ये दिखते है। 
है पूरक ये दोनों, जीवन आकृति उकेड़ा ,
कविता ने भर-रंग ,जीवन छटा बिखेरा। 
बहते हुए इन भावों में अब कहता है मन ,
जीवन में कविता है और कविता में जीवन।। 

Thursday 22 August 2013

निशा मौन तुम क्यों रहती हो ?

                                                                                     (चित्र :गूगल साभार )
निशा मौन तुम क्यों रहती  हो ?
क्यों भय तुम ऐसे करती हो,
दिनकर से भला लाज हया क्यों,
क्यों तुम दवे पाँव इस आगन
हौले-हौले यु धरती हो। 
निशा मौन तुम क्यों रहती  हो ? 


जब सब कुछ है  एक बराबर,
बाँट रखा है धरा या सागर,
स्नेह मान जब सभी  करते है,
जैसे थक, माँ का आँचल धरते है।
रक्त आवरण धर आते रवि तुझे लेने
क्या उससे ही भय खाती  हो?
निशा मौन तुम क्यों रहती  हो ?

श्याम आवरण रूप भला क्या
कृष्ण की  प्रीत परछाई है,
निशब्द घूँघट ओढ रखी जैसे
रोज आते कन्हाई है।
कोई आहट कंस न आये,
क्या इससे तुम घबराती हो ?  
निशा मौन तुम क्यों रहती  हो ?

किनते जुगनू चमक-चमक ,
तुम पर रीझ कर मिट गए।  
बाह फैलाये अरमानो  के 
तारे कितने टूट गए। 
न जाने किसकी चाहत में ,
ऐसे रोज सिसकती हो ?
निशा मौन तुम क्यों रहती  हो ?
                                                                                                             

Monday 19 August 2013

विघटन

उनके पदचाप कानो को भेदती है, 
पलट के देखता हु तो बस निशान बाकि है। 
हरे भरे पेड़ अगर अनायास लेट जाये तो, 
धरती भी भार को महसूस करती है ,
जीवन न होकर पानी का बुलबुला हो ,
क्या खूब आँखों में समाती है। 
पल भर में सृष्टि का रूप धरकर ,
गुम हो जाती है जैसे बिजली कौंधती हो। 
क्या कौन महसूस करता है, 
पास होकर भी कोई दूर होता होता है, 
कुछ चमकते है सितारों में ,
जो रोज खामोश शामो में पास होता है। 
बेशक आखो में कोई ठोस रूप ,
अब परावर्तित न होगा। 
हलक से निकली  तरंगो का इस कानो से ,
सीधा तकरार न होगा। 
न होगी कोई परछाई को भापने की कोशिश  ,
क्योकि लपटो का ह्रदय पर पलटवार जो होगा। 
सत्य तो सत्य है ,सभी जानते है, 
काया धरा की कोख जाएगी मानते है ,
पंच तत्वों का विघटन अश्वम्भावी है, 
जीवन नस्वर बस ह्रदय मायावी है। 


(ये रचना हमारे एक सहयोगी के आकस्मिक देहांत हो जाने पर श्रधांजली स्वरुप है ,भगवान उनकी आत्मा को शांति प्रदान करे तथा परिवार के सदस्यों को धौर्य दे  )

Sunday 18 August 2013

पटाछेप

                            कब से इंतजार  कर रही थी ,कितना समय लगा दिया।स्वर के अन्तर्निहित प्रेम में रोष का आवरण था ।
              और ये आज  यहाँ से गुजरती ट्रेन पता नहीं कानो को क्यों रौंद रही थी  ,पहले तो इसकी धर-धर करती आवाज दिल को कितना रोमांचित करता  था, पर आज ये पटरियो से टकराती पथ्थरे लगता था जैसे कि  दिल पे ही चोट कर रही है। शायद तुम्हारे आने में विलम्ब से ये दिल कुछ घबरा सा गया होगा। तुमको पता है थोड़ी देर पहले कितने-काले -काले बादल घिड़ आये थे ,तुम्हारे  आते ही न जाने  कहा चले गए। कमबख्त कुछ फुहारे तो छोड़ जाता ,खामोखाह कुछ देर के लिए आशाओ को  धुंधला कर गया। आहा क्या मजा आता जब हम साथ साथ भीगते।  वर्षा की बुँदे जब-जब गुंथे हुए हाथो पे टपकती है तो उसकी उसकी धार उंगलियो से सीधे दोनों के  दिलो तक पहुचती है,जिससे रक्तो में स्नेह का मिलन हो जाता है। बोलते -बोलते चेहरा  जैसे सूर्यमुखी की तरह खिल उठा । किन्तु वह  अनमस्यक सा उसे देख रहा था


                        खैर चलो तुम आ गए पता नहीं दिल में क्या -क्या ख्याल उठ रहे थे।  सांसो की धड़कन में जैसे लगता था कि कोई विरहा  राग की आलाप हो,धड़कन की ध्वनि न होकर आलाप की आरोहन -अवरोहन ज्यादा लग रही थी,थोड़ी देर के लिए पलको  में प्रेम-आलिंगन भी हो गया ,लगा की गहरी सुरंग  के भंवर-शून्य में कुछ मेरा अपना छीनता  जा रहा है  । ऐसी बातो से घबराहट तो होती है न बोलो,देखो तब से ऐसे ही  बैठी हूँ । पलकों को सजा दे रखी है अपलक बस तुम्हारी राह को ही निहारे।   कितनी मुर्ख हूँ  मै  और ये मन भी न  जाने क्या-क्या सोचने बैठ जाता है।अब मन का क्या, उसे तो सभी बावरा ही समझते, मेरा कोई अनोखा तो है नहीं जिसमे बसता  है उसीको देखना चाहता है।  नहीं तो छिप -छिप कर यूँ ही आसमान को तो न निहारता ?लहरे क्यों बार-बार तट की ओर भागती? जानते हो हवा से सुखी पत्तीयाँ  क्यों खड़खड़ाती है, उसको लगता है की अभी तक तो चलो टूटने के बाद भी अपने पेड़ के आगोश में था  किन्तु जैसे ही हवा चलती है बिछोह के डर से उनकी आत्मा चिल्ला उठती है। देखो न पहले भी तो कई बार इंतजार कराये तुमने पर तब तो ऐसे उल जुलूल ख्याल मन में न आया कभी , किन्तु आज,स्वयं से प्रश्न … नहीं …. निगाह तो उसपे जमी थी।
                       आज उसको निर्णय का इंतजार था। प्रेम के लिए निर्णय जरुरी नहीं है किन्तु मिलन में बहुतो की निर्णय और अधिकार स्वयं सिद्ध होता है। आज  भावनाओ का निस्तारण सामाजिक रंग -पट के कलाकारों के द्वारा होना था, पट-कथा जिसकी शुरुआत इन दोनों ने की थी उसका अंतिम दृश्य को चंद लोगो  को लिखना था या शायद लिखा जा चूका था जिसे सुनाने के लिए उसे बुलाया गया था।  बेशक प्रेम का कोई रूप न हो वो निराकार हो , लेकिन अभिवयक्ति जैसे -जैसे  साकार होती जाती है मानदंडो की अलग-अलग लाक्षा गृह  की कोठरियो  से गुजरते हुए साबित करना पड़ता है की  पारिवारिक मर्यादा , सामाजिक रीति-नियम कही प्रेम की ऊष्मा-आँच से गल कर ढीले तो नहीं पर जायेंगे।                            
              अरे तुम कुछ बोलते ही नहीं। किस सोच में डूबे गए।
       उसने उंगलियों के गठबंधन से अपने उंगलियो को आजाद या किसी के  पराधीन किया। धीरे -धीरे कदम वापिस उसी ओर बढ चले जिधर से आया था।
         उसके पास अब कुछ समझने को नहीं था ,बस उसके कदमो  के निशां अपलक देख रही थी।
         पुनः बादल घिर  आये थे  और रेलगाड़ी धर-धर कर वैसे ही गुजर रही थी।
लगता है  इतना सफ़र तय करने के बाद भी प्रेम कुछ  बन्धनों का घृणित पात्र अब भी बना हुआ है। शायद वो बताना चाह रहा था की मर्यदाओ का प्रेम मिलकर उसके प्रेम को लील गया,किन्तु बोल न पाया। बगल से गुजरती रेलगाड़ी कही दूर किन्तु उसकी आवाज कानो में जैसे और तेजी से कौंधते जा रही थी।