Tuesday 15 January 2019

उड़ी-द सर्जीकल स्ट्राइक

                      पिछली फिल्म "केदारनाथ"देखते समय "उड़ी-द सर्जीकल स्ट्राइक" का ट्रेलर देख ये निश्चित था कि इसे देखना है।क्योंकि फ़िल्म की कहानी का विषय वस्तु ही कुछ ऐसा है कि वो पहली नजर से ही आपको आकर्षित करने की क्षमता रखता है।किंतु दिन और समय निश्चित नही था। क्योंकि हमारे दिन की निश्चिन्तता पर अनिश्चिन्तता के बादल सदैव भ्रमण करते रहते है।खैर

        वैसे तो हर किसी के फ़िल्म देखने का नजरिया और पसंद व्यक्तिगत होता है।लेकिन अच्छे और घटिया का लेबल जहाँ बॉक्स ऑफिस का निर्धारण करता है वही समीक्षकों की राय भी काफी मांयने रखता है। मेरा अपना मानना है कि यह फ़िल्म किसी को पसंद आएगी तो किसी को बहुत ।लेकिन अगर मैं सीधे और सरल शब्दों में कहूँ तो यह फ़िल्म धमाकेदार और मनोरंजक है। 

               फ़िल्म अपनी पहली ही शॉट से आकर्षित करता है, जहाँ उत्तर-पूर्व के जंगलों का फिल्मांकन बैक ग्राउंड संगीत के साथ आपको बांध लेता है।जैसा कि नाम से ही इसकी कहानी जाहिर है।किंतु निर्देशक ने पूर्व के घटनाक्रम को एक सूत्र में पिरोते हुए कुल पांच अध्यायों में घटनाक्रम को फ़िल्मता है और कही से भी कोई सूत्र इन अध्यायों में आपको खलेगा नही। सारे घटनाक्रम फ़िल्म ने समाचार और कहानी के रूप में ऐसे पिरोये हुए है कि वो आपके सामने तैरने लगेंगे।

          ऐसे फिल्मो के स्क्रीनप्ले में भावनाओ के विभिन्न रंगों दर्शाने की गुंजाइश कम होती है। फिर आप अगर इसको जबरदस्ती शामिल करते है तो यह बोझिल बनाने के अलावा कुछ और नही करता। इसलिए युद्ध की पृष्ठभूमि पर "बॉर्डर" को छोड़ हाल के वर्षों में और कोई दूसरी फिल्म ने ऐसा कोई छाप नही छोड़ा। न ही बॉक्स ऑफिस पर और न ही समीक्षकों की नजर में। इस रूप में अगर देखे तो "उड़ी-द सर्जीकल स्ट्राइक" ने अपना लक्ष्य और नजरिया साफ रखा। निर्देशक आदित्य धर ने बेशक कहानी के घटनाओं को जोड़ने में जो एक कलात्मक कल्पनाशीलता लिया होगा वो कही से भी आपको खलेगा नही। चाहे मुख्य किरदार की घरेलू वजह से दिल्ली पोस्टिंग हो या फिर कुछ दृश्य राजनैतिक परिदृश्यों पर हो।लेकिन आपको अतिशयोक्तिपूर्ण कुछ भी नही दिखेगा। फ़िल्म शुरुआत से ही निर्देशक के गिरफ्त में रहता है और वो कही से भी भटकते नही दिखते है। निर्देशक क्या दिखाना चाहता है और उन कहानी को कैसे पिरोना है ये भी स्पष्ट है। शायद स्क्रीनप्ले और निर्देशन दोनों आदित्य धीर का है,इसलिए वो क्या चाहते है उनको पहले से स्पष्ट है। इस प्रकार की एक्शन पृष्टभूमि जिसका क्षेत्रीय भूभाग का आधार कश्मीर  हो तो समझिए फ़िल्म के सफल और असफलता में सिनेमेटोग्राफर की कैमरे के पीछे भूमिका अहम होती है। कई बार सिर्फ घूमते कैमरे कहानी को कैसे कहते है ,वो आपको इस फ़िल्म में देखने को मिलेगा। इस फ़िल्म के सिनेमेटोग्राफर मितेश मीरचंदानी ने फिर से एक बार दिखाया कि फ़िल्म "नीरजा" के लिए फ़िल्म फेयर का बेस्ट सिनेमेटोग्राफर अवार्ड उनको ऐसे ही नही दिया गया था। ऐसे भी उनका मानना है कि " यदि कहानी की मांग दृश्य की प्रमुखता है, तब तो वो केंद्र में है नही तो उनका काम कहानी का पूरक है  और यह काम दर्शकों का ध्यान दृश्य की ओर सिर्फ खींच कर नही किया जा सकता है।"

        जहां तक इस फ़िल्म के कलाकार और अभिनय की बात है तो सभी ने अपनी भूमिका के साथ पूरा न्याय किया है।वैसे मुख्य रूप से शुरू से अंत तक विकी कौशल छाये हुए है और अभिनय की गहराई का इसी से पता चलता है कि किसी भी दृश्य में वो आपको अभिनय करते हुए नही लगेंगे ।इससे पूर्व फ़िल्म राजी इनका मैंने देखा था उसमें एक पाकिस्तानी सेना के रूप में रम जाना और अब मेजर विहान सिंह शेरगिल के रोल में, फिर दो अलग चरित्र में जब आपको कोई सामंजस्य नही दिखेगा तो आप समझ जाएं कि उनके अभिनय में कितनी गहराई है। फ़िल्म "संजू" और उससे पूर्व "विककी डोनर" में उनके अभिनय को समीक्षकों ने सराहा है।वैसे मैने ये दोनों फ़िल्म देखी नही इसलिए कुछ कहना मुश्किल है।अन्य कलाकारों में मोहित रैना को अच्छा स्पेस दिया गया है और मोहित मेजर करण के रूप में जंचे भी है। इससे पूर्व टी वी धारावाहिक "देवो के देव महादेव" में मुख्य भूमिका निभाने वाले मोहित रैना के महादेव वाले मुस्कान भी इसमें आपको नजर आएंगे। बाकी यामी गौतम और कीर्ति कुलकर्णी भी आपको प्रभावित करेगा।परेश रावल तो खैर परेश रावल ही है तो उनके विषय मे क्या कहा जाय, वो आपको अजित डोभाल के समकक्ष रोल में दिखेंगे। वैसे प्रधानमंत्री के रूप में रजित कपूर काफी मंजे कलाकार है।क्योंकि इनको जब दूरदर्शन पर "व्योमकेश बक्शी" धारावाहिक प्रसारित होता था तभी से देख रहा हूँ। बाकी आप देख के आकलन करे।

                  इस फ़िल्म की सबसे खूबी ये है कि ये देशभक्ति और देशप्रेम पर लंबे चौडे भाषण नही देता है। एक सैनिक की हृदय- भावना, मानवीय-संवेदना,मानसिक द्वंद को बहुत सहजता से दर्शकों के सामने रख देता है।कर्तव्य के प्रति समर्पण विभिन्न रूपो में शायद हर कोई रखता हो लेकिन उस जिजीविषा को सिर्फ एक सैनिक ही जीता है जो यह जानता है कि जहां ऐसे हर क्षण काल के आगोश में खेल कर जीवन प्रकाश का पताका फैलाया जाता है।और सब जानते समझते यह खेल आसान नही है। फिर मेजर शेरगिल के शब्दों में "कई बार जितने के लिए सैनिक के शौर्य और पराक्रम से ज्यादा सैनिक के जज्बातों की होती है।"

                       अब अंत मे हर बातों में राजनैतिक तड़का लगाने  की परिपाटी जो आज कल चला हुआ है उससे यह फ़िल्म भी अछूता नही है। सीमा विहीन विश्व की कल्पना के इतर अगर आप वर्तमान में है, चाहे कितना भी उदारवादी क्यो न हो तो भी आप देशविहीन नही हो सकते । तो फिर वर्तमान की सीमा और संप्रभुता को खुद के विचारों से चुनौती देने से पूर्व एक बार इस फ़िल्म को देखे और विचार करे कि यह भारतीय सेना का शौर्य गाथा का फिल्मांकन है या फिर कोई दरबारी बंदन।।

Monday 31 December 2018

नववर्ष की शुभकामनाएं ---


            गणनाओ के चक्रिक क्रम में प्रवेश का भान होते हुए भी  हम पुनः दुहराव की अनवरत प्रक्रिया के संग बदलते तिथी से नव के आगमन का भरोसा और आशान्वित हर्ष से खुद को लबरेज कर लेते है।अपनी गति और ताल पर थिरकते हुए एक पूर्ण चक्र का उत्सव खगोलीय पिंड की अनवरत कर्म मीमांसा का भाग है या उसी पथ पर दुहराव की प्रक्रिया में पथ का अनुसरण भी किसी प्रकार का नूतन-प्रस्फुटन है ...? स्वयं का नजरिया विरोधाभास के कई आयामो से  छिटकते हुए भी संभवतः नूतन परिकल्पना के संग ताद्य्यतम्य बनाना ही समय-सम्मत प्रतीत होता है..?

       विज्ञान में दर्शन का समावेश और दर्शन के साथ विज्ञान का सामंजस्य के बीच वर्तमान का यू ही गुजरते जाना भविष्य के लिए हर क्षण आशाओ के क्षद्म संचार से इतर कुछ भी नजर नही आता है। मन की अपनी गति और क्रम है,लेकिन विश्वास और चेतना के धुरी पर घूमते हुए कैसे उस विलगाव की गलियो में भटकने लगती है, जहां मानव समिष्टि के तमाम तम का वास होता दिखता है और उस स्याह गलियो में बेचैनियों से टकराते हुए कैसे एक दूसरे को रौंदते हुए पग की असीमित रफ्तार सामुदायिक रफ्तार की उद्घोषणा के प्रश्नवाचक गलियो से न गुजरकर सिर्फ उन राहो पर बढ़ती चली जा रही है ,जहां ऐसे किसी भो द्वंद से उसे जूझना न पड़े।

        फिर भी ऐसा तो है कि दिन और रात की उसी घूर्णन गति को पहचानते और जानते हुए भी निशा के प्रहरकाल में भी भास्कर का पूर्वोदय मन के कोने में दबा होता है। उस विश्वास का अनवरत सृजन तम के गहराते पल के साथ और गहराता जाता है। पारिस्थिकी वातावरण में फैले अंधकार का साया अवश्य ही दृष्टिपटल को बाधित करता हो, लेकिन मन के कोने में दबे विश्वास की उस प्रकाशपुंज को बाधित नही कर पाता है, जिसकी अरुणोदय की लालिमा का विश्वास सहज भाव से हृदय में  संचरित होता रहता है।

               अतः मात्र आंकड़ो में जुड़ता एक और अंक का सृजन नव वर्ष का आगमन नही है। वस्तुतः यह आगमन उस विश्वास का है जो सूर्य के प्रथम किरण के संग कमल के खिलने सा मानव मन भी अभिलाषा से संचित हो  प्रफ्फुलित होता है।यह सृजन है उस आशा का जहाँ प्रकृति की वसन्तोआगमन सी सूखे टहनियों पर नव पल्लव आच्छादित हो जाता है , जिस भरोसे को धारण कर सभी प्रतीक्षारत रहते है। यह दिन है स्वप्न द्रष्टाओं के उस भरोसे का जो अब भी शोषित, कुठित, दमित,विलगित और स्वयं के अस्तित्व से अपरिचित और तृस्कारित मानव के संग मानव रूप में देखने की जिजीविषा का सिंहावलोकन की अभिलाषा संजोए राह देखते है। यह उस राह पर पड़ने वाला वह नव-रश्मि है जिसमे समिष्टि में व्याप्त किसी भी वर्ग भेद को अपनी प्रकाश से सम रूप में आलोकित कर सके, नव वर्ष उस आशा के संचार का आगमन है। नव वर्ष उस भरोसे के सृजन का दिन है जहाँ प्रतिदिन परस्पर अविश्वास की गहरी होती खाई को विश्वास की मिट्टी से समतल करने के विश्वास का प्रस्फुटन होता है।यह उन सपनों के सृजन का पल है जहाँ पुष्प वाटिका में हर कली को स्वयं के इच्छा अनुरूप प्रकृति सम्मत खिलने का अधिकार हो। कोई एक तो दिन हो जहां सभ्यताओं के रंजिस वर्चस्व में स्वयं से परास्त मानव मन सामूहिक रूप से स्वयं का विजय उद्घोष कर सके, शायद नव वर्ष वही एक दिन है।
         विमाओं सी उद्दीप्त असंख्य विचारों के अनवरत प्राकट्य और अवसान के मध्य नव वर्ष के प्रथम पुंज सभी के मष्तिष्क तंतुओ को इस प्रकार से आलोकित करे कि सामूहिक समिष्टि के निर्बाध विकास और सह-अस्तित्व की धारणाओं का पोषण कर सके उस भाव का जागृत होना शायद नव वर्ष का आगमन है।
             
सूर्य संवेदना पुष्पे:, दीप्ति कारुण्यगंधने ।
लब्ध्वा शुभम् नववर्षेअस्मिन् कुर्यात्सर्वस्य मंगलम् ॥

 .        जिस तरह सूर्य प्रकाश देता है, पुष्प देता है, संवेदना देता है और हमें दया भाव सिखाता है उसी तरह यह नव वर्ष हमें हर पल ज्ञान दे और हमारा हर दिन, हर पल मंगलमय हो ।
                    आशा और विश्वास के साथ आप सभी को नववर्ष 2019 की हार्दिक मंगल कामनाएं और सुभकामनाये।। 

Tuesday 18 September 2018

बिग बॉस में जुगलबंदी

                 शायद 83 का वर्ष रहा होगा। घर मे नया-नया टेपरिकोर्ड ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराया । तब तक बगल के घर मे ग्रामोफोन पर गाने सुनने से ज्यादा उसके डिस्क के ऊपर कुत्ते को ग्रामोफोन में गाने की तस्वीर आकर्षित करता था। खैर...। नए टेपरिकोर्ड के संग उसके कैसेट स्वभाविक थे। टी-सीरीज का उदय हो चुका था। प्राम्भिक रूप से बस इतना ध्यान है कि मुकेश के गाये रामचरितमानस के कैसेट बजते थे। फिल्मी गाने गिने चुने थे। इसी बीच भजन गंगा के केसेट ने बजना शुरू कर दिया और ठुमक चलत राम चन्द्र के साथ ही अनूप जलोटा का नाम पैजनिया की भांति बजने लगा। फिर तो शायद ही ऐसा होगा कि कोई नया भजन का एलबम घर नही आया हो। आवाज की सात्विकता का प्रभाव ऐसा था कि उनके गाये गजल पर भी भजन के ही भाव सुनने में आता था। भजन संध्या सुपरहिट हो चुका था। समय के धार के साथ अनूप जलोटा कही किनारे लग गए। 

                  अब वर्षो बाद अनूप जलोटा जसलीन के संग बिग बॉस में दिखे है। बार-बार उनका गाया भजन "श्याम पिया मोहे रंग दे चुनरिया" गूंज रहा है। शायद उनके कीर्तन का ही प्रताप है कि "बिग बॉस" ने अपने घर मे "विशेष रिश्ते" के डोर के साथ अनूप जलोटा संग जसलीन को आमंत्रित कर दिया। अब देखे की प्रेम-चुनर का रंग  उतरता है या कब बिग बॉस का घर छूटता है। "कलर" ने अपने इस घर मे कई रंग भरे है। स्वभाविक है प्रेम का रंग ही सभी को नजर आ रहे है। तभी तो दोनों छह गए है। देखिए अब इस घर मे दोनो की जुगलबंदी में कौन सा राग निकलता है।


Wednesday 5 September 2018

रुपये की लीला...

                     रुपया आजकल रोज गिर रहा है। कुछ चैनल इसपर विशेष चिंतित है और कुछ डॉलर के मुकाबले भाव बताकर चुप हो जाते है। अब तक के इतिहास में ऐसा नही हुआ है। फिर कोई भी इतिहास बनाने वाली घटना को ऐसे नकारत्मक भाव मे प्रस्तुत करना इनकी मानसिकता को दर्शाता है। रोज-रोज ऐसे थॉडे ही न होता है। हम तो इसी बात पर खुश है कि ईन ऐतिहासिक घटनाक्रम के गवाह हम भी बने है। खैर....।।  साथ ही साथ ये भी सुनने में आया है... हो सकता है अफवाह हो ....कि जिन्होंने रुपये के चाल पर विशेष नजर रखा है  उनके ऊपर इनकम टैक्स वालो की भी विशेष नजर है।
                      मूझे लग रहा है कि आर्थिक नीतियों के सूत्रधार ने कुछ नए सूत्र खोजे है। भले अब तक कुछ लोग इसे महज कागज का एक टुकड़ा न मान इसके अवमूल्यन को राष्ट्र का अवमूल्यन मानते रहे। लेकिन वो विचार भी भला कोई विचार है जो कि स्थिर और दृढ़ रहे। मांग में तरलता का सिद्धांत अर्थशास्त्र में  काफी प्रमुख है और जब सबकुछ अर्थशास्त्र  से प्रेरित है तो विचारो पर उसका प्रभाव तो स्वभाविक है। इसलिए अब लुढ़कते रुपये में शायद नया दर्शन हो।
                       जिस प्रकार से काला धन जमा करने में सभी प्रेरित थे और नॉटबंदी के बाद भी ज्यादातर बच निकले, तो फिर ये रुपये गिर रहे है या जानबूझकर गिराया जा रहा है ...कुछ कहना मुश्किल है। बेशक आप गिरते रुपये को देख ये धारणा बना रहे हो कि सरकार रुपये को संभाल नही पा रही है। लेकिन मुझे लगता है कि अब कुछ नए नीति का सूत्रपात हुआ है कि जब तक आपका रुपये से मोह भंग नही होता तब तक इसका लुढ़कना जारी रहेगा।
                       आपको दुखी और निराश होने की जरूरत नहीं है । कुछ डॉलर पॉकेट में आ जाये फिर देखिए कैसे लुढ़कते रुपये को देख दिल खुश होता है। वैसे भी रुपये को हाथ का मैल ही कहते रहे है और इस मैल को रगड़ रगड़ कर साफ कर ले नही तो भावी योजना में अभी तो सिर्फ रुपया लुढ़क रहा है। हो सकता है कही लुढ़कते- लुढ़कते गायब ही न हो जाय...क्या पता..?

Thursday 30 August 2018

जंगल मे मारीच

कुछ शोर और क्रंदन है,
शहर के कोलाहल में
ऊंची-ऊंची अट्टालिकाओं में
जंगलो की सरसराहट है।
वो चिंतित और बैचैन है
अपनी "ड्राइंग रूम" में
की अब पलाश की ताप से
शहर क्यो जल रहा है ?
व्यवस्था साँप की तरह फुफकारता तो है
लेकिन प्रकृति के इन दुलारो को
विष-पान किसने कराया है ?
लंबी-लंबी गाड़ियों से रौंदते
इन झोपड़ियों में पहुंच कर
यहाँ के जंगलों में
ये जहर किसने घोला है?
मतलबों के बाजार में
कब कौन खरीदार बन
व्यापार करने लगे, कहना मुश्किल है ।
चेहरे पर नकाब कोई न कोई
हर किसी ने लगा रखा है
फिर व्यवस्था के संग विरोध
या फिर विरोध की व्यवस्था...?
इसलिए तो अब तक
इन जंगलो में मारीच घूमते है
वो हमको और हम उनको छलने मेंलगे रहते है ।।

Monday 27 August 2018

नीलगिरी की गोद मे ...

"नीलगिरी' नाम काफी सुना सा है और इस नाम के कौंधते ही नजरो के सामने दक्षिण की नीलगिरी पहाड़ियों की श्रीखला तैरने लगता है । जहां "ऊंटी" हरी भरी वादियों के बीच अपने खूबसूरती के लिए विख्यात है।

                 किन्तु वर्तमान जिस "नीलगिरी" में मैं यायावरी कर रहा हूं यह  ओड़िसा के बालेश्वर जिले में है।बालासोर ही बालेश्वर है और बालेश्वर ही बालासोर...। इसको भारतीय रेल ने स्टेशन की पट्टिका के हिंदी और अंग्रेजी की वर्तनी में स्पष्ट कर दिया।बालासोर जिला देश के पूर्वी तट बंगाल की खाड़ी पर स्थित है और यहां से लगभग 20 की मि की चांदीपुर स्थित है। जो  भारतीय थलसेना  की एकीकृत परीक्षण रेंज के लिए विख्यात है।इस रेंज से कई परमाणु सक्षम बैलिस्टिक प्रक्षेपस्त्रो का परीक्षण हो चुका है।

           बालासोर से कोई 20 की मि राज्य हाई-वे 5 पर जंगलो के बीच पहाड़ी की तलहटी में नैसर्गिक सौंदर्य के बीच प्राचीन काल से नीलगिरी ने अब तक लगता है ऐसे ही संजोये रखा है। जो किसी भी मायने में किसी प्रषिद्ध पर्यटन स्थल से कम नही है । इसकी जड़ प्रागैतिहासिक काल से जुड़ी हुई हैऔर पांचवी शतब्दी से इसके राज्यगत इतिहास में दर्ज है। अपनी राज्य की वजूद को नीलगिरी ब्रिटिश शासन में भी बचाये रखा। तो फिर आप समझ गए होंगे कि लगभग 564 देशी रियासत में "नीलगिरी" भी ओडिशा के 26 "प्रिंसली स्टेट"  में एक रियासत था। जो कि आजादी के बाद 1949 में भारत गणराज्य में शामिल हुए। आपको इन यादों से जुड़ी उन काल की राजसी निशानी के तौर पर "नीलगिरी राजबाटी" अब भी मौजूद है। जो कि उस शासन में निर्मित जगन्नाथ मंदिर से बिल्कुल बगल में है।धार्मिक दृष्टिकोण से "पंचलिंगेश्वर महादेव" की अपने आप मे एकमात्र इस प्रकार का विख्यात मंदिर है।

             कण-कण में बिखरे महादेव को मंदिर में देखने जाने से उपयुक्त इन पहाड़ियों के भ्रमण हमे लगा। क्योंकि घड़ी की सुई की रफ्तार बता रही थी कि समय पर्याप्त नही है। पहाड़ी के ऊपर कुछ दूर चढ़ते ही पुरातन पर नवीनता की झलक दिख गई। जहां रास्ता बाधित था और डी आर डी ओ ने इससे ऊपर अपने प्रभुत्व को स्थापित कर रखा है। जिसकी नीव पूर्व राष्ट्रपति ए पी जे अबुल कलाम ने रखा था ऐसी सूचना मौजूद एक शिलापट बता रहा है।

                   रोड के दोनों ओर लंबवत "नीलगिरी" यानी यूकेलिप्टस का पेड़ बरबस काश्मीर में रास्ते को आच्छादित करती चिनार के पेड़ की ओर बरबस ध्यान खींच ले जाता है। सौंदर्य की तुलनात्मक विवेचना तो व्यर्थ का प्रलाप है क्यो असीम की सीमा निर्धारण आपकी चक्षु-क्षमता का पर्याय है तो फिर जैसी जिसके निगाहे...। इन जंगलो में भ्रमण सिर्फ आंखों को आकर्षित तो करती है, लेकिन इन पहाड़ियों में बसे गांव और लोग की वर्तमान की हकीकत शासन के कई दावों की तस्दीक नही करता है।  विरोधाभासी जीवन के यथार्थ में दोहित प्रकृति से सुख तलाशते लोगो को जहां एक ओर यहां की रमणीय प्रकृति आकर्षित करती है । वही अब तक प्रकृति को संजो कर रखे लोगो की जीवन यापन का संघर्ष कलम की पैनापन को और तीखा करने के अवसर भी देता है।




                किन्तु मैं इन सबसे पड़े नीलगिरी की इन खूबसूरत वादियों में ज्यादा से ज्यादा भटकना चाहता हूं कि देखे आखिर नीरवता में बिखरी मोती की चमक  इतना आकर्षित कैसे करता  है...?

Wednesday 15 August 2018

कुछ हट के ....।

मैं सोचता हूँ
कुछ ऐसा ही जेहन में उभरता है,
जब उमंग और उत्साह से लबरेज
इस एक दिन ...शायद हाँ
इस एक दिन
देश प्रेम सार्वजनिक होकर उभरता है।
और जब लहराता है तो
कई जोड़ी आंखे उसे निहारते
वही कही आसमान की
अनंत गहराई में खो जाती है शायद ।
शायद हाँ मेरी भी निगाहे
उस विस्तृत अम्बर में कुछ खिंची हुई
रेखाओ को ढूंढती है
विस्तृत नभ में खोता हुआ
जैसे खुद में सिमटता जाता हूं।
इस एक दिन...शायद हाँ
इस एक दिन
बंधन की कुछ डोर जेहन में
जैसे खुद बांधने लगता है ।
वह उमंग और उत्साह
कुछ मलिन हो चेहरे पर उभरता है
एक-एक कर कई बंधन उभरते है
खुले आसमान में लहराते हुए
आज स्वतंत्र और परतंत्र की
कई गांठे मन मन मे
खुलते और बंधते है।
मैं बस इतना सोच पाता हूं
जैसे तिरंगा बेफिक्र
आसमान में लहरा रहा है
वैसे क्या हम कभी
स्वतंत्र हो इसी धरती पर
कभी विचर पाएंगे ??

       आप सभी को स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं

Friday 3 August 2018

कुल्लड़ में चाय ....

बात ईसा पूर्व की है...लगभग 2700 वर्ष...। चीन के सम्राट के हाथ मे गर्म पानी का प्याला था और मचलती हवाओ ने कुछ पत्तो को अपने संग लाया और उसे सम्राट के प्याले में डुबो दिया। पर सूखे पत्ते की गुस्ताखियां देख जब तक सम्राट अपने चेहरे का रंग बदलता गर्म पानी ने अपना रंगत बदल दिया और वाष्प ने अपने संग विशेष खुसबू से सम्राट को आनंदित कर दिया। एक चुस्की पीते ही वह समझ गया कि वह भविष्य के लिए एक और पेय पहचान लिया है और फिर चीन से पूरी दुनिया में फैल गया।
             भारत मे जैसे हर चीजे अंग्रेजो की देन मानी जाती है वैसे ही यह पेय भी उन्ही का देन माना जाता है....उससे पूर्व असमी जो पत्तियों को खौला कर पेय बनाते थे उसे क्या कहा जाय पता नही....?जब तक आप किसी भी चीज का व्यवसायिक दोहन नही करते है तो मुफ्त तो मुफ्त होता है। तो अंग्रेजो ने इसका व्यवसायिक दोहन कर इसके साथ अपना नाम जोड़ लिया ।
           उस समय इसे जो भी कहते पता नही....लेकिन आजकल इसे "चाय" कहते है। बाकी तो आप सभी  इससे परिचित है। इसमें खास कुछ नही है.....बस आज सुबह-सुबह कुल्लड़ में चाय चाय मिल गई..।। अब कुल्लड़ धीरे-धीरे विलुप्त ही होता जा रहा है। एक बार तत्कालीन रेल मंत्री ने 2004 में ट्रेन में मिट्टी के कुल्लड़ चलाया भी लेकिन कुछ सालों बाद मंत्रीजी का राजनैतिक जीवन मिट्टी में मिल गया और आगे चलकर रेल ने भी इस मिट्टी के प्याले से किनारा कर लिया। खैर.....।।
           आज सुबह-सुबह कुल्लड़ देख चाय नही जैसे कुल्लड़ ने अपनी ओर खींच लिया। प्याले में चाय भरते ही चाय ने अपनी तासीर बदली और मिट्टी की सौंधी खुसबू चाय के साथ मिलकर उसके स्वाद को एक अलग ही रंग दे दिया हैं।जो आपको किसी और कप में नही मिल सकता।
           जब धरती ही स्वयं के अस्तित्व के लिए संघर्षरत दिख रही हो तो कुल्लड़ का क्या कहना..?अतः सुबह-सुबह जब सिंधु घाटी सभ्यता से  यात्रा कर पहुची कुल्लड़ फिर आपके हाथ लग जाये और जो सभ्यता के मध्याह्न से प्रचलित पेय से लबालब भरा हुआ हो तो आप चाय के हर चुस्की के साथ सभ्यताओ के बदलते जायके को महसूस करने की कोशिश कर सकते है।इस एक प्याले में जब जीवन के मूलभूत पंच तत्व -थल(कुल्लड़) ,जल (चाय)  पावक( इसकी गर्माहट ), गगन  के तले ,समीरा(चाय का वाष्प) जब एक-एक चुस्की के साथ आप के अंदर समाहित होता है।तो आप महसूस कर सकते है कि  एक प्याला कुल्लड़  से भरा चाय आपको कितने ऊर्जा  से ओतप्रोत कर देता है। 
       जगह और स्थान कोई भी हो मिट्टी में बिखरे आनंद को ढूंढे ...नाहक क्षणों को मिट्टी में न मिलाये।सभ्यता के आदिम रूप जहां बिखरे है वही सभ्यता के भविष्य का रूप है..ये आप समझ ले।तो फिर एक प्याला चाय कुल्लड़ में मिल जाये तो भूत और भविष्य एक साथ एकाकार हो जाते है और ये सर्वोत्तम आनंद का क्षण है....एक कप कुल्लड़ में चाय... है कि नही??
              अंत मे हरिवंश राय बच्चन की "प्याला" शीर्षक कविता की दो पंक्तियां-
            मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
            क्षण भर जीवन-मेरा परिचय !
    

Friday 8 June 2018

क्या जल रहा है...?

नीरो ...हाँ मैन सुना है....
कही इतिहास दोहरा तो नही रहा...।काल और सीमा से परे जाकर..।
जब हमने उससे द्वेष और ईर्ष्या किया तब ...जब प्रेम से भरी उसके प्रति दीवानगी देखी तब...। हाँ ...कुछ ऐसा ही है ...वो घृणा से उत्त्पन्न असृप्यता के उद्द्बोध से  उन अनगिनत सारो से एकरूप हो एक उत्कट प्रेम में आराध्य है...।ऐसा पहले हुआ क्या...?
   हाँ फिर अब नीरो तो नीरो है....।
तो क्या नीरो अब भी वही है...? क्या वाकई उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम एक रक्तिम गंध फैल गई है..? सांसो में क्या नीरो के बांसुरी से निकली राग कही एकरक्त पिपासा की उत्तकंठा जगाती है...? जल क्या रहा है...? वो रिस गए रेसे जो वाकई इतने कमजोर हो चले कि छिद्र से बस घाव और मवाद रिसते दिखते या फिर सदियो की वो समरसता की तरल भाव जिसको भरते रहने का भार बस तराजू की एक तुला सा किसी एक को...क्या यह जलकर वाष्पीकृत हो रहा है...?
   हाँ... लगता है ...नीरो बासुरी यही कही बजा रहा है...। कैसे धुन पर बिलबिलाए -बौखलाए जो इक्कठे नाच रहे...कौन है ये...?नीरो की धुन में ऐसी क्या खास ...सुनकर एक साथ सिमट गये...।
    जल क्या रहा है....रोम तो सदियो गुजर गए...फिर जलने कि दुर्गन्ध ...नही..नही..मैं तो कहूंगा सुंगंध है...यही कही यज्ञ का हवन कुंड है और लगता है कई मान्यताये एक -एक कर जल रहे हैं..।
     जब ऐसे ही शुभ मुहूर्त का यज्ञ काल चल रहा है तो नीरो बासुरी न बजाए तो क्या करे...?
   कुरुक्षेत्र के युद्ध के दौरान क्या श्रीकृष्ण ने बासुरी का परित्याग कर दिया था...??

Monday 2 April 2018

रात की रुमानियत


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जैसे जैसे रात भींग रही है। एक ख़ामोशी की पतली चादर पसारती जा रही है। टिमटिमाते तारे जैसे  उसे देखकर अपनी आँखे खोलता और बंद करता है। बीच बीच में सड़कों पर दौड़ती गाडी की रौशनी जैसे पुरे क्षमता से इन अंधरो को ललकारती है और इनके गुजरते ही फिर वही साया मुस्कुराते हुए बिखर जाती है। 

     दिन का कोहराम  कभी दिन को देखने का मौका नहीं देता। लेकिन रात की पसरी हुई काली साया बड़ी स्थिरता से , ठहर कर, रुक कर, मंद मंद मुस्कुरा कर जैसे स्वयं की ओर आकर्षित करती है। यह भूलकर की खुली आँखों से अँधेरे में कुछ नहीं दिखता ,आप अँधेरी रात को देखे । इसके आंचल में दूर तलक बिखरे रूमानी सौंदर्य की अनकही छवि आपको अपने मोहपाश में जकड लेगी।

         दिन के उजालो में भागते भागते हम थक कर इतने बिखर जाते है कि कभी रात अंधियारे में बिखरे मासूमियत का एहसास ही नहीं कर पाते। खुली आँखे भी अँधेरे में पसरी सौन्दर्य पर मोहित होती है क्योंकि उसकी तिलिस्मी आभा अंधियारे के साथ और निखरती है । लेकिन इस अंधियारे में छिपे तिलिस्म और रूमानी खूबसूरती का आनंद  तभी ले सकते है जब आप रात की गोद में बैठ कर कभी उसे निहार भी लिया करे।
       

Tuesday 27 March 2018

वक्त ......बस यूँ ही ....


जिंदगी की व्यस्तता वक्त को कोसती हुई चलती है। और वक्त ...वो क्या ....वो तो अपनी रफ़्तार में है। कोई फर्क उसे नहीं पड़ता...सतत...बिना रुके....अनवरत अपनी उसी रफ़्तार में जिसमे प्रकृति ने उसका सृजन करते समय उसे तय कर दिया। बिना किसी क्षोभ  ...किसी द्वेष ...कोई राग .....कोई अनुराग ..सभी से निर्लिप्त भाव से होकर बस अपनी गति पर सतत कायम है। मतलब बिलकुल स्पष्ट है....वक्त हमारे अनुकूल स्वयं की लय में कोई बदलाव तो लाने से रहा फिर .....फिर हमें स्वयं को वक्त कर ताल के साथ ही कदम ताल करना होगा।
     जब आप इन्ही व्यस्त वक्त में खुद को थोड़ा परिवर्तित कर....उसी वक्त से...अपने लिए कुछ वक्त चुरा लेते और उसके साथ लयबद्ध हो जाते है तो आप  उन लहरो और थपेड़ो में छुपी हुई जीवन के मधुरतम तरंग से कंपित हो खुद में उस ऊर्जा का सृजन करते जो ऊर्जा अनवरत इस समुन्दर की लहरें तट से बार बार टकराने के बाद भी अपने तट की ओर उन्मुख होना नहीं छोड़ती है...अपनी नियति की पुनः टकराकर इसी समुन्दर में विलीन हो जाना है। उसी उत्साह उसी जोश से भरकर अपने में असीम ऊर्जा का संचार कर फिर से दुगुने जोश के साथ निकल पड़ती है।
          इसी थपेड़े को झेलते हुए फिर से उस उत्साह का संचार कर हमें तट की ओर उन्मुख होना ही पड़ता है । यह जानते हुए भी की जिस ओर जीवन की लहर हमें ले जाने को आतुर है उस तट पर टकराकर इसे विलीन ही होना है। फिर भी यही जीवन नियति है और इसके लिए इसी नियत वक्त में से आपको कुछ वक्त चुराना होगा क्योंकि प्रकृति की यही नियति है।
      वक्त अपने से विच्छेद होकर कोई वक्त नहीं देता।

Thursday 8 March 2018

ढहते बूत

विचार उत्क्रमित हो रहा है....मूर्तियां विध्वंसित..। जय और पराजय के उद्वेग के आरोह और अवरोह में  क्षणिक मतैक्य के वशीभूत हो बेचारे निर्जीव शिलाओं को ढाह रहे या ईर्ष्या के बृहद अदृश्य बुत को रच कर उसमे  जान फूंक रहे है। जिसको भविष्य में ढाहने में शायद सक्षम भी न हो पाए।  इस चिंगारी से अब कौन कौन  आक्रांत होगा कहना मुश्किल है। मूढ़ के बल शिला से टकराकर जाने किस ऊर्जा में परिवर्तित हो। क्रिया और प्रतिक्रिया बराबर और विपरीत होती है , तथ्य प्रत्यक्ष है। हम गत की  ग्लानि से बहुत जल्द आहात होने को अभ्यस्त रहे है। इन आहत होते दिलो में जाने कैसे निर्जीव बुत  ने अपने पैरों से आहट कर दिया। विचारो का प्रवाह अगर इन शिलाओं के बुत से ही होते तो वर्तमान को इस अवसर से गुजरने को शायद ही मिलता। फिर भी लगता तो ऐसा ही है कि जैसे इन ध्वंस होती मूर्तियों से संभावनाओं  के कई गुबार भी बहुतो के लिए फुट सकते है। फिर इसे तलाशने में  कोई भला खुद को पीछे क्यों रहे...?  इस पर किसे कोफ़्त होना चाहिए ....इन बेजान पत्थर की मूर्तियों को या हाड़मांसधारी जड़वत होती इंसानी प्रवृति को ? समय चक्र खुद को दोहराता रहता है। टूटते इन शिलाओं की मूर्ति अगर भविष्य में इंसानी आस्थाओं और विचार को ही तोड़ने लगे तो संभव है कि आज का वर्तमान कल के मिटटी के ढेर तले न दब जाय। जहाँ खुदाई करने पर भी आक्रोश के खंडहर ही नजर आये। इसलिए बेहद जरुरी है कि मूर्त और अमूर्त विचारो का प्रवाह इन निर्जीव बूतों के सदृश्य न मान सजीव मानवीय मूल्यों को ही पनपने दे जहाँ ये मूर्तिया सिर्फ भुत के अवशेष रहे और भविष्य प्रवाहमान। की मूर्ति अगर भविष्य में इंसानी आस्थाओं और विचार को ही तोड़ने लगे तो संभव है कि आज का वर्तमान कल के मिटटी के ढेर तले न दब जाय। जहाँ खुदाई करने पर भी आक्रोश के खंडहर ही नजर आये। इसलिए बेहद जरुरी है कि मूर्त और अमूर्त विचारो का प्रवाह इन निर्जीव बूतों के सदृश्य न मान सजीव मानवीय मूल्यों को ही पनपने दे जहाँ ये मूर्तिया सिर्फ भुत के अवशेष रहे और भविष्य प्रवाहमान।

Monday 5 March 2018

लोकतंत्र और सरकार


           ऐसा करना क्या ठीक रहेगा ? जनता हमारे बारे में क्या धरना बनाएगी?
            क्यों ...ऐसा क्यों सोच रहे हो? यही तो तुमलोगो में कमी है। हमेशा सकारात्मक सोचो। जैसा सोचोगे वैसा ही होगा। 
             लेकिन हमें तो जनता ने वोट नहीं दिया न ...।
           तो क्या यहाँ कोई वोट से सरकार बनता है। सीट चाहिए सीट....। और जो जीत आये है वो हमारे साथ आ रहे है तो इसमें हम क्या करे? देखो दो राज्यो में हमने जनता का दिल जीता और एक में जीते हुए उम्मीदवार का दिल जीत लिया...इसमें क्या गलत है। 
              किन्तु ये तो लोकतंत्र का मजाक उड़ाना हुआ न...।
देखो तुम ज्यादा सोच रहे हो ....लोक और तंत्र दो अलग अलग बाते है। तुम्हे पता है दोनों को क्यों एक साथ मिला कर लोकतंत्र क्यों बना है? ताकि जब लोक है तो तंत्र की फीलिंग न हो और जब तंत्र काम करने लगे तो लोक की फीलिंग न हो। इसलिए जब अभी हमारा तंत्र काम कर रहा है तो लोक की फीलिंग का ज्यादा ध्यान नहीं देना है। 
               देखो उनको उनके साथ कितने लोक है लेकिन उनका तंत्र ठीक काम नहीं कर रहा है। तभी तो सरकार बनाने से चूक रहे है।अब ये तो भावनाओ का ख्याल भी रखना पड़ता है नहीं तो बेचारी जनता दुबारा चुनाव की चक्की में पिसेगी या नहीं। हम जनता के हित के सुभेक्षु है...तभी तो ये सब कर रहे है।
       हाँ ...सो तो है....।
               तो फिर इस बात पर ज्यादा ध्यान नहीं देना है कि जनता ने किसे वोट दिया है। बल्कि इस पर ध्यान रखना है कि सरकार कैसे बनाया जाय। बिलकुल अर्जुन जैसे चिड़िया की आँख को लक्ष्य करता है वैसे ही हम कुर्सी पर नजर रखते है।
 तुम नए कार्यकर्त्ता के साथ यही समस्या है। तुमलोग अपना फोकस साफ़ नहीं रखते । अरे भाई अब जनता को इतना फुर्सत है कि वो आके देखे किसे किसे वोट दिया है और कौन सरकार बना रहा है। इस बेचारे जनता पर इतना बोझ डालना ठीक नहीं। जब सार्वजानिक जीवन में आये हो तो कुछ तो जनता का तुम ख्याल रखो। बेचारी जनता ऐसे ही कितने उलझनों में घिरी रहती है..। और एक तुम हो की उसपर सरकार तक बनाने की बोझ डालना चाहते । बेचारे ने वोट दे दिया ये क्या कम है...। 
                और ध्यान रखो जब जनता की सेवा के लिए आये हो तो हमेशा सकारात्मक सोचो। ये देखो जो इतने दिनों तक सरकार में रहने के बाद अपनी आर्थिक स्थिति नहीं सुधर पाया वो जनता की आर्थिक स्थिति क्या खाक सुधरेगा। इसलिए हम पहले इस राज्य में जो भी जीत कर आये है उनकी स्थिति में सुधार लाएंगे और उनकी स्थिति जब सुधरेगी तो राज्य की स्थिति सुधरेगी और फिर देश....। है कि नहीं....।
               देखो...तुम्हे तो पता ही है पढ़ा होगा अभी अपना लोकतंत्र पूरा "मैच्युर" नहीं हुआ है। हम तो ऐसा लोकतंत्र बनाना चाहते है जहाँ "लोक" ऐसा बना दो जो "तंत्र" के बारे न सोचें या फिर "तंत्र" ऐसा कर दो जो "लोक" को सोचने ही न दे...समझे न..।
           वो अपने नेता के दूरदर्शीपन को देख थोड़ा आश्चर्यचकित और कुछ कुछ दिग्भ्रमित लग रहा है। आखिर राजनीति के क्षेत्र में इसी चुनाव में जो पाँव रखा है।

Tuesday 6 February 2018

सर्व पकोड़ा रोजगार अभियान

            चाय की चुस्कियों में चार साल निकल गए....। लेकिन चाय की चुस्कियों से ही कही क्षुदा मिटती है क्या .....? सबने एसिडिटी का शिकायत करना शुरू किया । लेकिन ये तो अड़े हुए है....चाय से काम चल जाएगा । किंतु एक तो राजस्थान में वैसे ही गर्मी ज्यादा होता है सो ज्यादा की चर्चा से एसिडिटी का होना स्व्भविक था सो तीन बेचारे बीमार होकर मैदान से बाहर हो गए।
                    सामने 2019 है ....चाय के साथ साथ अब पकोड़े भी परोसने को तैयार है। युवा भारत में पकोड़े के विभिन्न ब्रांड अम्बेडरो से रु बरु कराया जायेगा। बेरोजगारी की काट सिलकांन वैली से खोजते हुए कहा स्किल इंडिया और मेक इन इंडिया के रास्ते होते हुए...गांव के चौराहे पर आकर रुक गया। पकोड़े के ठेले जहाँ देश में लोकतान्त्रिक समाजवाद के अवधारणा से पूर्व से ही लगता आ रहा है। क्योंकि भले ही नेहरू जी आधुनिक भारत के मंदिर कितने भी बना दिए ...लेकिन स्वप्न्न द्रष्टा को पता था कि उस मंदिर के बाहर भक्त गण अपने पूजा के दौरान भी इन चाय और पकोड़े के ठेले के प्रति समर्पित रहेंगे।
                 कुछ बुनियादी भाव और धारणाओं के प्रति हमारा नकारात्मक सोच ही हमें आगे नहीं बढ़ने दे रहा है। आखिर पकोड़े के प्रति उलाहना का भाव ये दिखा रहा है कि इसके पर कैपिटा इनकम को जानने को लेकर हमारे अर्थशास्त्री कोई प्रयास न कर सिर्फ लकीर पिट कर चलते रहे है।
                    अब जाकर कोई युग द्रष्टा ने इसके महत्व को रेखांकित किया है तो भी हम उपहास करने में लगे हुए है। सोचिये ये पकोड़े की ठेले गली गली घर घर होंगे और सुबह सुबह ही चारो ओर से मिर्ची के पकोड़े, बेसन के पकोड़े, प्याज के पकोड़े नाना प्रकार की खुसबू से आपका सुबह खुशनुमा होगा। नए नए नौजवान विभिन्न पोशाकों में अपने क्षमतानुसार इन ठेलों पर ऑन लाइन पकोड़े के आर्डर लेते मिलेंगे। सरकारी नौकरी के लिए नौजवानों को सरकार ढूंढते रहेंगे लेकिन किसी भी नौजवान को पकोड़े तलने से फुर्सत नहीं होगी। बेरोजगारी कब की पोलियो उन्मूलन की तरह उन्मूल हो जायेगा। सोचिये किया दृश्य होंगे। सरकार के सोच में सहायक बनिए और एक युगान्तकारी रोजगार उन्मूलन की घटना का गवाह...सर्व पकोड़ा रोजगार अभियान के लिए सभी सहयोग दे।

Tuesday 2 January 2018

नव वर्ष मंगलमय हो......

          सब कुछ यथावत रहते हुए भी , खुश होने के कारण तलाश करते रहे। बेशक आप इस बात से वाकिफ है कि कैलेंडर पर सिर्फ वर्ष नए अंकित होंगे , लेकिन वो स्याही और पेपर यथावत जो चलते आ रहे है वही रहेंगे। फिर भी एकरसता के मंझधार में फसने से बेहतर है कि इन लम्हो को ज्वार की भांति दिलो में उठने दे और कुछ नहीं तो वर्ष की पहली किरण में  मंद बयार के साथ पसरी हुई ज़मीन पर ओंस के बूंदों पर झिलमिलाती किरणे प्रिज्म सदृश्य कई रंग बिखेर रहा हो उसको देख आनंदित होने की कोशिश करे। कही दूर मध्यम और ऊँची तान में कोई चिड़िया चहक रही हो तो दो मिनट रूक कर उसे मन के राग के साथ आंदोलित होने दे। उससे छिटकने वाली राग को बाढ्य नहीं अंतर्मन के संसार में गूँजने दे।
                        सिमटती दुनिया के एकरुपिय निखार में बहुत कुछ समतल हो गया है जहाँ ख़ुशी और अवसाद के बीच में स्पष्ट फर्क करने में भी अब कठनाई है।
हर वक्त याथर्थ के धरातल को ही टटोलना जरुरी नहीं है, कुछ पल ऐसे ही दिनों के बहाने कल्पना के सृजनलोक में विचरण कीजिये। 
नव वर्ष मंगलमय हो.......

Wednesday 8 November 2017

अनुराग-विराग

        उसकी उलझने मन में उठते भावो को सुलझाने की नहीं थी।
        वो तो और उलझना चाहती थी इस हद तक की  उन उलझनों की गाँठ साँसों के आरोह अवरोह के अंतरजाल के संग अंत तक इसके टूटने पर भी न छूटे। वह तृष्णा और वितृष्णा के मध्य उठने वाले लहर पर सवार होकर न जाने दिल की कितनी गहराइयो में डूबती और उतरती रहती थी। अथाह समंदर की इन गहराइयो में उसे अपने मन में छिपे मोती की तलाश कभी कभी रेगिस्तान में जल की बूंदों की मृगतृष्णा की भांति एक अनंत यात्रा थी। जिसमे ठहराव तो था लेकिन अंत नहीं, जिश्म बोझिल तो होता मगर मन की उमंग पूर्ववत की भांति हिलोडे लेते रहती। उसने तो सीधी पगडण्डी की कभी कल्पना भी नहीं की। यह तो उसका मन जनता था कि यह पगडण्डी इतनी वक्र रेखाओं का समागम है  जहा उसके राह अदृश्य से ही नजर आते थे। 
        किंतु वह यह भी जानती थी की यह अदृश्य तरंग जो बार बार उसे एक मोह पाश में जकड रखा उसको न जाने कितने हाथियों के बल के साथ उसे आकर्षित करती है। वह बिलकुल अपने से परे हो गई है ...खुद का मन खुद से परे होकर अजनबी हो जाना । खुद को ढूंढे या फिर..?
मन और काया पर यह अदृश्य एकाधिकार आखिर कैसे किसी ने कर लिया ।
          आखिर इतना निर्बल कैसे महसूस कर रही है? शुष्कता के निर्झर मन में ये सोता कहा से फूटा है? शब्दो का कोई भी समागम उसके कानों को स्वर लहरी सा क्यों कर्ण प्रिय हो रहा है।
        जितना ही इन उलझनों में खोती जाती उसका मन उतना ही आसमान की उन असीम में विचरने लगता जहा श्वेत धवल प्रकास सा निश्छल प्रेम न जाने कई रंगों में बिखरा हुआ है।  फिर वह इन्ही रंगों में उलझ कर रह जाती। 
       उसका मन इन भावों से ऐसे तैर रहा है जैसे कमल के पत्ते पर जल की बुँदे। बिलकुल इधर से उधर छलकते हुए। वह स्थिर होना चाहती पर चाह कर भी हो नहीं पाती। निश्छल मन में भावो के बुँदे यूँ ही तैरते रहते है।जितना भी चाहो स्थिर करना कठिन होता है। इन भावो को स्थिर करने के लिए क्या निश्छल मन  को समझदारी के खुरदुरेपन से कुरेद दिया जाय।          इन उलझनों के झूले में बैठ उसका मन न जाने कितनी ऊँचाई पर जाके हौले हौले उसी जगह मायूस हो स्थिर हो जाती जहा से मन पंख फैलता।
        कभी कभी खुद से अपरचित हो स्वयं की तलाश में जाने कहाँ तक यूँ ही अनवरत विचरण करती रही। द्वन्द के अनुराग और विराग ...? स्वयं से अनुराग या स्वयं से विराग..? अनुत्तरित प्रश्न के इन मकड़ जाल पर लिपट कर और भी न जाने कितने जाल उलझाती जाती..। जैसे 
         वो इन उलझनों से बाहर नहीं आना चाहती ...जाने क्यों?

Monday 9 October 2017

आज के निहितार्थ का द्वन्द

                  हम चिंतित नहीं होते,  ये कुछ अक्षरों के ज्ञान का सगल है कि बहुत अनुत्पादक होने के बाद भी हम कुछ ऐसा सोचने को विवश होते है जिसका सरोकार जितना हमसे होता है उतना ही समाज से। बहुउदेशिय सरोकार की धार जब एकल सम्मुख बहने लगे और सहयोगी धार का रुख मुड़ जाए या आप ये समझिए की एकांगी राह की और उन्मुख होने लगे तो स्वयं का अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह लगा ही देती है । अपने मुख्य धारा की बहाव को भी उसी मात्रा में प्रभावित करती है। उसके शुष्क होते भाव अगर बैचैनी की छाया से ग्रसित नहीं कर रहा है तो भविष्य के अंधकार को भांपने में हम सक्षम नहीं हो पा रहे है।
       वर्तमान हमेशा से भूत और भविष्य के अन्तर्विरोधों से द्वन्द करता आया है। सभ्यता का विकास जिस काल चक्र की धुरी पर अग्रसर है वह उसका आदि और अंत वैचारिक सभ्यता के उदय के साथ से ही विवादस्पद भविष्य की रुपरेखा तय करता आया है।  या फिर इस मतैक्य के साथ एक सीधी रेखा के समुख्ख गमनशील विचार आखिर कैसे वस्तुनिष्ठ होकर भावनाओ की अहमियत दरकिनार कर श्याम गुफा की अग्रसर होता जा रहा है।
      यह भी अहम है कि आखिर भविष्य जब भावरहित हो संबंधों के बीच बंधनों को ढूंढने का प्रयास करे तो एक घर की छत से लटक रहे पंखे दीवारों की सोभा बढ़ाते कलात्मक रौशनी के बल्व या ड्राइंग रूम की सोभा बढ़ाते खूबसूरत कुर्सी और गद्देदार सोफे का संबंध उस घर से जितना सरोकार रखता है । इंसानी सरोकार भी उतने में सिमट कर कही रह न जाए। 
         कितना विरोधभास है कि सभ्यता के चरम की ओर गमनशील समाज जब विज्ञानं के सतत विकास के साथ सुख सुविधाओं के नए आयाम को ढूंढ रहा है । वही दूसरी और इंसान इंसानी चेतना के नित्य विकृत होते जा रहे चेहरे से आए दिन रु आबरू होता आ रहा है। इस सिमटते दुनिया में जब भाव और विचार जिसकी कोई वैज्ञानिक आयाम में इकाई नहीं है बढ़ती दुरियो का निर्धारण आखिर कैसे किया जाय? वर्तमान की अटखेलियां कई कर्कश ध्वनियों का उत्सर्जन कर रही है उस शोर को ख़ारिज कर आखिर हम कौन सा राह तय करना चाहते है? या फिर आत्मकेंद्रित भाव जहाँ स्व का निर्धारण भी असमंजस की स्थिति पैदा कर रहा है वहां समुच्चय बोध का निर्धारण भी आखिर किस प्रकार से किया जाय ? पारस्परिक सहयोग और प्रेम का जितना सरोकार वैश्विक स्तर पर किये जाने का प्रयास हो रहा है, उतने ही स्तरों पर एकांगी चेष्टा की धार यह प्रदर्शित कर रहा है कि बुनियादी स्तर पर भावो का विरूपण ऐसा हो गया है कि सामूहिक रूप से भविष्य का क्रन्दन कौन सुनेगा इसका सरोकार अब मतलब की बात नहीं है।
    फिर बिडम्बना तो ये भी है कि हम इकाइयों में जन्म से बटना शुरू हो जाते है। परिवार की इकाई, समाज की इकाई, नगर की इकाई, जिले की इकाई, राज्य की इकाई और फिर देश होते हुए विश्व की इकाई। इन मध्य में पड़ने वाले वैश्विक स्तर पर छितराये जाती, धर्म, सेक्ट इत्यादि को आप छोड़ भी दे तो। अर्थात विकास के क्रम में बटते इकाई जब बाटते बाटते इस स्तर पर आ जाए जहाँ अस्तित्व की तलाश का प्रयास होने लगे फिर भविष्य पर नजर लगाना जरूरी हो जाता है।
     वर्तमान के वैज्ञानिक रोबोट में भी भाव और संवेदना के संचार में अध्ययनरत है और इंसान में जैसे ये गुण शुष्क होता जा रहा है। भाव भंगिमाओं के नए नए आवरण चढ़ा जब हम एक दूसरे से ही अजनबी सा व्यवहार करने लग रहे है।समझ की अवधारणा बदलती जा रही हो फिर समझना तो दुःसकर होगा ही। फिर ये भी समझना होगा की आखिर हम समझना क्या चाहते है? क्या मत मतान्तर के नाम पर स्वजन निर्मूल का भाव धरा जाय या सर्वश्रेष्ठ की नस्ल की स्थापना के लिए अन्य का निर्बाध आघात किया जाय अपनी समकालीन श्रेष्ठता को स्थापित करने के लिए प्रतिरोधी भाव धर भूतकाल की भांति पलभर में एक समूह और स्थान को संज्ञा शून्य कर दिया जाय?
    वर्तमान इन रोगों से ग्रस्त है चाहे वो किसी भी इकाई और स्तर पर हो। मानवीय मष्तिष्क के इन संवेदनात्मक तंतुओ का जिस प्रकार से क्रमिक क्षय हो रहा है। वहां आने वाली पीढ़ी उसको ढूंढने का सिर्फ प्रयास ही करता रहेगा बाकी समाज,धर्म,देश-राष्ट्र कही अपने होने के निहतार्थ पर स्वयं से प्रश्न करता हुआ किसी जीवाश्म की तरह परिवतिर्त हो सिसकियाँ बहा रही होगी। 

Tuesday 15 August 2017

शुभकामनये ..........

हम एक अभिसप्त समय के मूक दर्शक बनते जा रहे है। बहुत सारे सवाल जब शूल की भांति मन के हर नस में अपनी पीड़ा उड़ेलना चाहता है, हम दार्शनिकता का भाव भर विचार शृंखला से टकराना छोड़ कही कोने में दुबकने  ज्यादा आकर्षित होने लगते है । किंतु दम तो हर कोने में घुट रहा है, अंतर इतना ही है कि उस विषैली फुफकार जो लीलने के लिए तैयार बैठा है, कब उसके साँसों में घुल कर स्वयं को विषाक्त करता जा रहा है, इस क्षमता को पड़खने की मष्तिष्क की तंतू कब की विकलांग हो गई है, शायद हम में से बहुतो को आभास भी नहीं हो पा रहा है।
        घटनाओं का दौर प्रारब्ध की सुनियोजित कर्म क्रिया का प्रतिफल मान स्वीकार करने की भाव में सब बंधे से लग रहे है। नहीं तो कान्हा के धरती पर कई कान्हा यूँ ही कालिया नाग का ग्रास बन कर विलुप्त हो जाए और फिर भी विचारो की टकराहट बौद्धिक विकास के चरम पर परिलक्षित करने में विवेकवान और विवेकहीन के अंतर को पाट दे तो वर्तमान के अंधेरे को शायद इस चका चौंध भरी प्रकाश में देखना संभव भी नहीं है।
      युगों को पाटते जब वर्तमान का कलयुग और आधुनिक काल के स्वतंत्रता के इकहत्तरवे वर्ष में जब आदिम युग की संभावनाओं और उसका प्रहसन ऐसे ही चल रहा हो जहा जीवन और मृत्यु के बीच बात और विचार के अंतर को समझने की क्षमता का ह्रास होता जा रहा है तो , किस विचारो के उन्नत पक्ष पर हम गौरवान्वित हो शंका से भरे कई सशंकित प्रश्न यूँ ही हवा में तैर रही है।
        सच भ्रामक होता जा रहा है और हकीकत को देखने की क्षमता का क्रमश ह्रास, फिर आगे क्या...?
शायद हम आगे भी यूँ ही विभिन्न भाव भंगिमा के साथ सच को और दृढ होकर अस्वीकार करने की क्षमता को शायद विकसित करने का प्रयास करेंगे ......क्योंकि बहुत कुछ होने के बावजूद भी पता नहीं क्यों लगता है कि शायद कुछ हुआ नहीं...। सभी अब भी अपने अपने प्रारब्ध से ही खेल रहे है।
      किन्तु विशेष अवसरों पे सुभकामनाओं की कामना शायद कुछ बदलाव लाये।
     ।।स्वतंत्रतादिवस की आप सभी को हार्दिक सुभकामना।।

Saturday 8 July 2017

स्व आलाप .....

किसी खामोश और तन्हा शाम
जब सूर्य की किरणें
समंदर के लहरो से खेलते खेलते
उस में खो जाएँगी ।
दूर दूर तक फैली
उदास सी रेत की चादर
पल पल सिसकते हुए
ओंस सी भीग जायेगी ।

फिर भी एक मधुर स्मित सी रेखा
जो अधर पे उभर जाए
अमावस की काली रात को भेदने के लिए
बस उतना ही काफी है।
कभी कभी इन चेहरों को
मष्तिष्क में उलझी नसों के परिछाई से
आजाद रहने की मोहलत तो दो।

शब्दे एहसास का भाव भर है
हकीकत की इबारत नहीं ।
सब मुस्कुराते से मुखौटे से लगते ही है
क्यों न तुम भी
एक मुस्कुराता मुखौटा ही लगा लो ।
हकीकत से टकराने की अब
न ही इच्छा है न सामर्थ्य ।।

आज नहीं तो कल
हम यूँ ही उलझेंगे जैसे
तुम अंतरात्मा की आवाज होगी
और मैं दुनिया का शोर ।
चिल्लम पों मचाएंगे एक साथ
जो प्रतिध्वनि धीरे धीरे फैलेगी चहुँ ओर
हर के लिए उसमे
अपने जीवन का संगीत दिखेगा ।
क्योंकि सुर मिलकर
आजकल एकाकार कब होते ।
कर्कश की कर्कशता में हम घुल गए
यही तो सर्वोत्तम आलाप है।।




Saturday 24 June 2017

मैं.....

जब 'मैं' , 'मैं' नहीं होता हूँ ।
तो फिर क्या ?
तो क्या मेरे अस्तित्व का विस्तृत आकाश
अनंत तक अंतहीन होता है ?
या अनंत में विलीन होता है ?
या मेरे वजूद के संगीत की सप्तक
किसी के कानों में मूर्त एकाकार होता है।
'मैं' मुक्त, साकार.. क्या निराकार भी होता है?
शायद हाँ  या ना दोनों ।
मेरे, 'मैं' के नहीं होने से,
कैसे
अनगिनत जुगनुओं सी मद्धिम
झिलमिलाती प्रकाशपुंज
अनवरत मुझ में समाहित और प्रवाहित होता है ।
ऐसा हमेशा होता तो नहीं
हाँ पर कभी कभी होता है ।
जहाँ 'मैं', स्वयं के 'मैं' से
मुक्त होकर सबो में या सभी को स्वयं में
समाहित कर विलीन हो जाता हूँ ,
और उन तस्वीरों में बिखरे
रंगों को तलाशता हूँ
जो प्रकृति प्रद्दत तीव्रता की तरंग को
अपना समझ एक दूसरे को
निगलने को आतुर दीखते है ।
मुझे औरो का , 'मैं' , न जाने क्यों
मुझे मुझ सा, खुद के, 'मैं', से
युक्त सा दीखता है ।
पर ऐसा हमेशा नहीं होता
शायद खुली आँखों से
कभी कभी हम स्वप्न्न में विचरते है ।
तब शायद मेरा 'मैं', मुझसे
त्यक्त होकर विचरता है।
यह विचरण कितना आनंद विभोर करता है
किन्तु यह स्वप्न भी स्वप्न जैसा जाने क्यों होता ?
सच में मैं
खुद के 'मैं' से, मुक्त होना चाहता हूँ
इस दिवा स्वप्न्न के स्वप्न्न में विचरण भी
अहा...कैसा आनंद!
उस आनंदवन की तलाश है ।।