Friday 28 February 2020

क्या जला है..?

हर तरफ धुंआ और आग है,
जल रहा क्या ?

शायद इंसानी जज्बात और इंसानियत
मासूम बच्चों की खिलखिलाहट।।

नही सिर्फ घर और समान नही जलते
फिर जल रहा क्या?

वो होली के गुलाल राख होते है
और ईद की सेवइयां भी झुलस रही
गंगा में जलती चिता की राखे है
तो जमुना में रक्त के छीटें।।

नही सिर्फ दुकान और आशियाने नही जलते
तो फिर जला क्या है?

आपसी विश्वास की डोर में धुएँ है
इंसानी एहसास में लपटे है
हम कौन और तुम कौन
गैर होने के तपन ही दहके है।।

नही सिर्फ ये शहर नही जलते
फिर जला क्या है ?

भविष्य के दिये जले है
कई घरों के चिरागे जले है
साथ रहने के भरोसे जले है
बच्चों के सर से पिता के साये जले है
ये जलन की ऊष्मता
कभी भविष्य में कम होगी या नही
कई दिलो में ये भरोसे भी जली है।।

Thursday 27 February 2020

दिल्ली में दंगा


       दिल्ली आना अप्रत्याशित था और यहाँ आने के बाद जो हुआ वो भी अप्रत्याशित है।दिल्ली को देश का दिल कहते है और ऐसे लगा जैसे दिल ने धड़कना बंद कर दिया हो।जिनसे सीपीआर की उम्मीदें लगी वो हाथ पत्थरो और लाठी से खेलते रहे और जिन्हें ऑपरेशन की जिम्मेदारी थी वो उनके पास साजो सामान नही था। 
 जब आप अपने घर से बाहर के हालात का जायजा टी वी पर लेने की कोशिश में रहते है।तो आप अंदाज लगा सकते है कि भय का आवरण  किदर लिपट गया होगा। आसमान में उठते काले बादल की गुबार जब बंद खिड़की की सुराख से देखने का प्रयास होता है तो सांस की धड़कन की आवाज भी आपको दहशत से भरने के लिए काफी है। आप अंदाज लगा सकते कि दंगा से पसरी हुई सन्नाटा अंदर तक कितनी चित्तकार करती होगी। यह उस घर मे जाकर देखा जा सकता है जिसमे कोई इस भीड़ का शिकार बन गया हो। 

       नफरत के आग से फैली चिंगारी उन्मादी हवा में तैर कर कुछ भी जला सकती है यह प्रत्यक्ष दिख रहा था। भविष्य को सुरक्षित करने को निकले भीड़ में कितनो का वर्तमान छिन गया कहना मुश्किल है।        कराहती दिल्ली का ये भाग अब जैसे-तैसे लंगड़ाते हुए राहों पर चलने लगा । लेकिन हर दंगा की तरह कुछ चेहरे इन राहों पर से सदा के लिए खो गए होंगे। इन गलियों से आ रही जलने की बदबू कब तक वीभत्स यादों की जख्मो को यहां के लोगो के जेहन में बसा के रखेगा कहना मुश्किल है।

     बशीर बद्र का ये शेर ऐसा ही बयां करता है-
       लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में 
      तुम तरस नहीं खाते बस्तियाँ जलाने में ।।

Wednesday 19 February 2020

दौरा...एक राष्ट्राध्यक्ष का

सभी शोर मचाने में लगे है। न भारत कि ऐतिहासिक गौरव का मन मे कोई भान है और न ही अपनी सदियों पुरानी "अथिति देवो  भव" की आदर्श को अपने स्मृति में सहेज कर रखा है।जब दुनिया का सबसे शक्तिशाली देश दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र से मिलता है तो स्वागत संभवतः ऐसा ही होता है। पैसे आते जाते है लेकिन ऐसे-ऐसे राष्ट्राध्यक्ष रोज-रोज कोई थोड़े ही देश मे पधारते है। जो उनके लिए बजट की चिंता की जाय। ये सिर्फ नई दीवार की तर्कसंगतता को ढूंढने में लगे है। जबकि हमे मालूम है वो दुनिया का सबसे विकसित और शक्तिशाली देश है।
         जब ओसामा को पाकिस्तान उसकी नजरो से छिपा नही सका तो बाकी चीजे तो वो खुद जान जाएगा। वो बेशक जान जाए लेकिन हमें क्या दिखाना है ,इसका तो पता हमे होना चाहिए। फिर जो नही दिखाना चाहते उसके लिए तो दीवार खड़ी करनी ही होगी।
           जब देश के अंदर बिना ईट के ही कितने दीवार खड़े है, गिनती करना मुश्किल है।फिर एक ईंट की दीवार खड़ी हो गई तो क्या फर्क पड़ता है।
          स्वागत के लिये राह पर पलके बिछा कर रखे। अनावश्यक भैहे को तान उठती दीवारों पर नजर न डाले। आंखों में खराबी आने को संभावना हो सकती है।।

Tuesday 11 February 2020

लक्ष्य

             प्रभु मन में क्लेश छाया हुआ है। अंतर्मन पर जैसे निराशा का घोर बादल पसर गया है। कही से कोई आशा की किरण नहीं दिख रहा। लगता है जैसे भविष्य के गर्भ में सिर्फ अंधकार का साम्राज्य है। मन में वितृष्णा छा गया है। प्रभु आप ही अब कुछ मार्ग दर्शन करे।वह सामने बैठ हताशा भरे स्वर में बुदबुदा रहा जबकि प्रभु ध्यानमुद्रा में लीन लग रहे थे।पता नहीं  ये शब्द उनके कनों को भेद पाये भी या नहीं? फिर भी उसने अपनी दृष्टि प्रभु के ऊपर आरोपित कर दिया। प्रभु के मुख पर वही शांति विराजमान ,योग मुद्रा में जैसे आठो चक्र जागृत, पद्मासन में धर कमर से मस्तिष्क तक बिलकुल लम्बवत ,हाथे बिलकुल घुटनो पर अपनी अवस्था में टिका हुआ। उसने दृष्टि एक टक अब तक प्रभु के ऊपर टिका रखा था। आशा की किरण बस यही अब दिख रहा । कब प्रभु के मुखारबिन्दु से शब्द प्रस्फुटित हो और उसमें उसमे बिखरे मोती को वो लपेट ले जो इस कठिन परिस्थिति से उसे बाहर निकाल सके।यह समय उसके ऊपर कुछ ऐसा ही है जैसे घनघोर बारिश हो और दूर दूर तक रेगिस्तान का मंजर । आखिर कैसे बचें ? संकटो के बादल में घिरने पर चमकते बिजली भी कुछ राह दिखा ही देती है और प्रभु तो स्वंम प्रकाशपुंज है। प्रभु के ऊपर दृष्टि टिकी टिकी कब बंद हो गया उसे पता ही नहीं चला।

             क्या बात है वत्स , कंपन से भरी गंभीर गूंजती आवाज जैसे उसके कानों से टकराया उसकी तन्द्रा टूट गई। पता नहीं वो कहा खोया हुआ था। चौंककर आँखे खोला दोनों हाथ करबद्ध मुद्रा में शीश खुद ब खुद चरणों में झुक गया और कहा-गुरुदेव प्रणाम। प्रभु ने दोनों हाथ सर पर फेरते हुए कहा- चिरंजीवी भव। कहो वत्स कैसे आज  इस मार्ग पर पर आना हुआ। प्रभु गलती क्षमा करे कई बार आपके दर्शन को जी चाहा लेकिन आ नहीं पाया।इन दिनों असमंजस की राहो से गुजर रहा हूँ। जीवन में लगता है निरुद्देश्य के मार्ग से चलकर उद्देश्य की मंजिल ढूंढ रहा हूँ। निर्थकता और सार्थकता के बीच खिंची रेखा को भी जैसे देखने की शक्ति इस चक्षुओं से आलोपित हो गया है। जीवन को जीना चाहता हु लेकिन क्यों जीना चाहता हु इस उद्देश्य से मस्तिष्क भ्रमित हो गया है। प्रभु आपके सहमति स्वरूप मैं इस जीवन को अपनी दृष्टि से देखना चाहता था। आपसे पाये ज्ञान से मैं इस समाज को आलोकित करना चाहता था किंतु अब लगता है खुद ज्ञान और अज्ञान के भाव मध्य मस्तिष्क में दोलन कर रहा है। कब कौन से भाव के मोहपाश मन बध जाता पता ही नहीं चलता।जागृत अवस्था में भी लगता है मन घोर निंद्रा से ऊंघ रहा है। प्रभु मार्गदर्शन करे।

            प्रभु के मुखारबिंद पर चिर परिचित स्वाभाविक मुस्कान की स्मित रेखा उभर आई। दोनों पलक बंद किन्तु प्रभु के कंठ से उद्द्गार प्रस्फुठित हुए- वत्स मै कुछ समझ नहीं पा रहा हूँ। आखिर तुम्हारा मन मस्तिष्क इतना उद्धिग्न क्यों है। तुमने योगों के हर क्रिया पर एकाधिकार स्थापित कर रखा है, फिर इस हलचल का कारण मैं समझ नहीं पा रहा हूँ।

               प्रभु आप सर्वज्ञानी है, आप तो चेहरे को देख मन का भाव पढ़ लेते है। अपनी पलकों को खोल एक बार आप मेरे ऊपर दृष्टिपात करे।प्रभु आप सब समझ जाएंगे। उसके स्वर में अब कातरता झलकने लगा।प्रभु की नजर उसपर पड़ी और उसकी दृष्टि नीचे गड गई। वत्स मेरे आँखों में देखो क्यों नजर चुराना चाहते हो। नहीं प्रभु ऐसी कोई बात नहीं लेकिन आप के आँखों में झांकने की मुझमे सामर्थ्य नहीं है। मैं आपके आदेशानुसार कर्तव्य के पथ पर सवार हो मानव समिष्टि के उत्थान हेतु जिन समाज को बदलने की आकांक्षा पाले आपके आदेश  मार्ग पर कदम बढ़ा दिया। अब उस राह पर दूर दूर तक तम की परिछाई व्याप्त दिख रही है। मुझे कुछ नहीं समझ आ रहा की आखिर इस अँधेरी मार्ग को कैसे पार करू जहाँ मुझे नव आलोक से प्रकाशित सृष्टि मिल सके।

            तुम कौन से सृष्टि की बात कर रहे हो वत्स। परमपिता परमेश्वर ने तो बस एक ही सृष्टि का निर्माण किया है।सारे जीव इसी सृष्टि के निमित्त मात्र है। तुम कर्म विमुख हो अपने ध्येय से भटक रहे हो। तुम्हारी बातो से निर्बलता का भाव निकल रहा है। आखिर तुम खुद को इतना निर्बल कैसे बना बैठे?
              अपने आप को संयत करते हुए कहा- प्रभु जब सत्य एक ही है तो उसे देखने और व्यख्या के इतने प्रकार कैसे है? आखिर हर कोई सत्य को सम भाव से क्यों नहीं देख पाता है?आखिर  मानव उत्थान के लिए बनी नीतियों में इतनी असमानता कैसे है ? सक्षम और सामर्थ्यवान दिन हिन् के प्रति विद्रोही और विरक्त कैसे हो जाते है? अवसादग्रस्त नेत्रों में छाई निराशा के भंवर को देख देख कर अब मेरा चित अधीर हो रहा है और इन लोगो के क्लांत नेत्र को देख देख व्यथित ह्रदय जैसे इनका सामना नहीं करना चाहता । प्रभु मुझे आज्ञा दे मैं पुनः आपके सानिध्य में साधना में लीन होना चाहता हूँ।

         प्रभू ने उसके सर पर पुत्रवत हाथ फेरते हुए कहा-लेकिन इस साधना से किसका उत्थान होगा ? आखिर किस ध्येय बिंदु को तुम छूना चाहते हो ? समाज के उत्थान हेतु जिस कार्य को मैंने तुम्हे सौपा है। आखिर वत्स तुम इससे विमुख कैसे हो सकते हो ? लगता है मेरी शिक्षा में ही कुछ त्रुटि रह गई। कातरता से भरे स्वर में उसने कहा नहीं प्रभु ऐसा न कहे।मैं आपको तो हमेशा गौरवान्वित करना चाहता हूँ।परंतु प्रभु आपने इस सन्यास धर्म के साथ राजनीति के जिस कर्म क्षेत्र में मुझे भेज दिया, लगता है वो मेरे उपयुक्त नहीं है।प्रभु मंद मंद मुस्कुराते हुए बोले-क्या वत्स तुम इतने ज्ञानी हो गए की खुद की उपयुक्तता और अनुपयुक्तता का निर्धारण कर पा रहे हो। इसका तो अर्थ हुआ की मै तुम्हारे क्षमता का आकलन करने योग्य नहीं। प्रभु धृष्टता माफ़ करे आपकी क्षमता पर किंचित शक मुझे महापाप का हकदार बना देगा। मेरा अभिप्राय यह नहीं था। फिर क्या अभिप्राय है पुत्र -प्रभु के स्वर से वात्सल्य रस बिखर गए।

                  प्रभु इतने वर्षों से मानव सेवा हेतु मैंने राजनीति का सहारा लिया।यही वो माध्यम है जिसके द्वारा मानव कल्याण की सार्थक पहल की जा सकती है।किंतु प्रभु इसका भी एक अलग समाज है, जो कल्याण की बाते तो करते है विचारो के धरातल अवश्य ही अलग अलग है किंतु मूल भाव में सब एक से दीखते है। प्रभु इनके मनसा,वाचा और कर्मणा के बीच कोई सम्बन्ध नहीं है।इस कारण इनके साथ तालमेल कैसे करूँ प्रभु ?खुद को दूषित करू या इनसे दूर हो जाऊं। प्रभु क्या करूँ मैं? 

                 वत्स तुम्हे तो मैंने निष्काम कर्म योग की शिक्षा दी है फिर भी तुम अर्जुन की तरह विषादग्रस्त कैसे हो सकते हो? गीता के श्लोक अवश्य तुम्हे कंठस्त होंगे, लेकिन मर्म समझने में लगता है तुम भूल कर बैठे हो।पुत्र मानवहित हेतु ध्येय की प्राप्ति में अगर काजल की कोठरी से निकलने में कालिख से डर कर वापस  लौट जाया जाए तो इसका तो अर्थ हुआ की अज्ञान के अंधकार को विस्तार का मौका देना। किसी न किसी को तो अपने हाथों से कालिख को पोछने होंगे।क्या जयद्रथ और अश्व्थामा का दृष्टान्त वत्स तुम भूल गए। तो क्या भगवान कृष्ण अब भी इन धब्बो से तुम्हारी नजरो में दोषी होंगे ? समझो अगर भगवान् कृष्ण ने इस विद्रूपता को अपने हाथों से साफ़ नहीं किया होता तो आज मानव की क्या स्थिति होती। कर्तव्य के राह पर पाप पुण्य हानि लाभ से ऊपर उठ देखो , समग्र मानवहित जिसमे दिखता है उपयुक्त तो वही मार्ग है। यही तो योग है कि इस परिस्थितयो के बाद भी अपने को  लक्ष्य से भटकने नहीं देना है। अगर कालिख लग भी जाए नैतिकता के सर्वोत्तम मानदंड और मानव कल्याण के उत्कर्ष के ताप से स्वतः कालिख धूल कर एक नए ज्ञान गंगा की धारा में परिवर्तित हो जाएगा। तुम प्रयास तो करो। वत्स कोई न कोई तो प्रथम बाण चलाएगा। इस डर से गीता श्रवण के बाद भी  गांडीव अगर अर्जुन रख ही देता तो क्या आज महाभारत वैसा ही होता ? अनुकूल स्थिति में कर्तव्य पथ पर चलना सिर्फ दुहराना है उसमें कैसी नवीनता। समाज में घिर आये ऐसे विचार की सन्यासी का राजनीती से क्या लेना ही इस दुरावस्थिति का कारण है। समाज के  शिक्षित जन इस स्थिति में आम जन के दुरवस्था से विमुख हो सिर्फ खुद के प्रति मोह भाव रख ले तो किसी न किसी को तो पहल करना ही होगा। पुत्र सन्यास आश्रम समाज से विमुखता नहीं बल्कि इसकी सापेक्षता का भाव है।जब तक यह अपनी नीति नियंता समष्टि के हर वर्ग के अनुरूप बनाकर चलता है और सब समग्र रूप से खुशहाल हो हम भजन कीर्तन  कर भागवत ध्यान में लीन रह सकते है।किंतु अगर ऐसा नहीं है तो हमें तो इसका प्रतिकार कर उत्तम ध्येय के मार्ग पर सभी को आंदोलित करना ही होगा। जीवन योग तो पुत्र ऐसा ही कहता है।परम सत्य का ज्ञान तो वर्तमान के साक्षत्कार से ही होता है भविष्य का तो सिर्फ चिंतन और मनन ही क्या जा सकता है।

              सन्यास धर्म समाज से विमुख करता है इस प्रतिकूल विचार के भाव को बदलने हेतु ही तो तुम्हे भेजा।इस अवधारणा से पुत्र मुक्त हो जाओ की सन्यास आश्रम परिवार से विरक्ति है ,बल्कि पूरे समाज को अपना परिवार मान उसके प्रति आसक्ति का भाव ही सन्यास धर्म का मर्म है। अवश्य आलोचनाओं के तीर तुम्हारे हिर्दय को छिन्न विच्छिन्न करेंगे किन्तु जब ध्येय श्रेष्ठ है तो ऐसे बाधाएं मार्ग च्युत नहीं कर सकता है।सन्यास धर्म खुद को श्रेष्ठ तो बनाना है किंतु यह प्राणी मात्र को श्रेष्ठता के मार्ग पर प्रसस्त करने हेतु है।जब समाज का कोई भी क्षेत्र कलुषित हो जाए तो उसका उद्धार करना ही सन्यासियों का धर्म भी है और कर्म भी है। आज राजनीति की पतन की जो गति है उसे समय रहते नहीं थामा गया तो पूरे मानव समाज को इसके गंभीर परिणाम भुगतने होंगे। अतः वत्स अपने धेय्य से न भटको और इन्ही राहो पर चलकर ही तुम योग और सन्यास की श्रेष्ठता को सिद्ध करोगे। यह हमारा दृढ़ विश्वास है। इतना कहने के साथ ही प्रभु ध्यानमग्न हो गए।

            उसने प्रभु के चरणों में अपना शीश झुकाकर दंडवत प्रणाम किया। अब उसके चेहरे पर संतोष और दृढ विश्वास की आभा फ़ैल गया। पीछे मुड़कर उन राहो चल दिया जिनसे चलकर आया था। दृष्टि विल्कुल अनंत में टिकी हुई जैसे उसे लक्ष्य स्पष्ट नजर आ रहा हो।

Monday 20 January 2020

नए अध्यक्ष ...त्वरित टिप्पणी

            जब प्रधानमंत्रीजी छात्रों को परीक्षा के टिप्स बांट रहे थे उस समय नड्डा जी अध्यक्ष के छात्र रूप में चुन लिए गए। परीक्षा तो अब इनकी कक्षा में कई होने लेकिन अगला पेपर बहुत जल्दी दिल्ली में होने वाला है। इनकी तैयारी का जायजा उसके बाद ही लिया जाएगा। कल आज और कल के कई मार्गदर्शक अलग अलग भाव भंगिमा में लिए नए अध्यक्ष को शुभकामनाएं देने कर्तव्यानुसार उपस्थित हो गए। नड्डा जी वैसे तो हिमाचली है लेकिन बिहारीपन ज्यादा है।

     वैसे नड्डा जी ने अपना भाषण समाप्त करते हुए सिर्फ "जय भारत" का उद्घोष किया। जबकि उनके पूर्ववर्ती सदा की भांति भारत माता की जय और अंत मे वंदे मातरम के साथ अपना उद्घोष समाप्त किया। नड्डा जी की इस "जय भारत"  सांकेतिक उद्घोषणा सामान्य माना जाय या अपने कार्यकाल में वो पार्टी के सिलेबस में कोई बदलाव की तैयारी है।इस पर राजनीतिक विश्लेषक चिंतन की नई लकीर खिंच सकते है।
         वैसे उनके पूर्ववर्ती ने जो लकीर खिंच दी है,उससे बड़ी लकीर खीचना वाकई में नड्डा जी के लिए एक दुरूह कार्य होगा। लेकिन अब जब उन्होंने ये दायित्व लिया है तो अवश्य उसके लिए प्रयत्नशील रहेंगे।...नड्डा जी को अध्यक्ष चुने जाने पर हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई।।