Saturday 19 September 2020

होमो सेपियन्स- अतीत से वर्तमान तक

             इतिहास कई अवधारणाओं का संश्लेषित निचोड़ है, जिसमे हर इतिहासकार स्वयं के मनोवैज्ञानिक भाव की चाशनी में लपेट कर परोशते है। यह कभी  अंतिम निष्कर्ष पर नही पहुंचता और भविष्य की संभावनाओं को कभी खारिज नही करता।यह भाव हर एक इतिहासकार के अपने सामाजिक पृष्ठभूमि, सांस्कृतिक विचार या शैक्षिणिक गतिविधियों के बारीक तंतुओ के मध्य उपलब्ध साक्ष्यों के विश्लेषण में स्वतः पनपता है। इस मायने में यह कथन ठीक है-"इतिहास विश्वास की नहीं, विश्लेषण की वस्तु है ।इतिहास मनुष्य का अपनी परंपरा में आत्म-विश्लेषण है"। लेकिन जिस समय काल खंड में इसे लिखा जा रहा है उस काल खंड के राजनैतिक और प्रशासनिक व्यवस्था शायद इस पर सबसे ज्यादा प्रभाव डालते है।किन्तु यह एक निर्विवाद तथ्य है कि भविष्य के कल्पित रागों के लिए हम हमेशा से वर्तमान में मंथन,भूत में छेड़े गए सुरो का ही करते रहे है।इतिहास वास्तव में सिर्फ सूचना और घटनाओ का दस्तावेजीकरण या आंकड़ो का एकत्रीकरण न होकर इन दस्तावेजों से छन कर निकले दर्शन है।जो मानव के वर्तमान और भविष्य के चिंतन के लिए कई प्रकार के नए मार्ग प्रसस्त करता है।

                   इस क्रम में यह पुस्तक" सेपियन्स- मानवजाति का संक्षिप्त इतिहास" कुछ इसी प्रकार के भविष्य के दर्शन  के भूत की उकेडी गई रेखाओ को मिलाकर वर्तमान में एक रूप रेखा प्रस्तुत करता है।इसलिये लेखक ने शुरू में ही स्पष्ट कर दिया है कि लगभव 70,000 वर्ष पहले होमो सेपियन्स से संबंधित जीवो ने एक विस्तृत संरचनाओं को रूप देना शुरू किया,जिन्हें संस्कृतियों के नाम से जाना जाता है।इन मानवीय संस्कृतियो के उत्तरवर्ती विकास को इतिहास कहा जाता है।जिसे इतिहास के तीन क्रांतियों ने आकर दिया:- संज्ञानात्मक क्रांति-लगभव 70,000 वर्ष पहले,कृषि क्रांति-लगभग 12,000 वर्ष पहले तथा अंत मे वैज्ञानिक क्रांति जो कि 500 वर्ष पहले शुरू हुआ।साथ ही साथ यह भी स्पष्ट करता है कि इतिहास को न तो निश्चयात्मक मानकर समझाया जा सकता है,न ही उसका पूर्वानुमान किया जा सकता है क्योंकि वह अराजक होता है।

                     युवाल नोवा हरारी द्वारा लिखित यह पुस्तक "सेपियन्स- मानवजाति का संक्षिप्त इतिहास" कई मायनों में महत्वपूर्ण है। महत्वपूर्ण इसलिए नही है कि इतिहास की विद्वतापूर्ण बाते शोधार्थी के लिए नए दरवाजे खोलती है,बल्कि महत्वपूर्ण इसलिये है कि एक आम पाठक होने के नाते आप कई ऐसे तथ्यों से टकराते है,जो आप के अब तक के बने धारणाओं को गहरे तक झकझोर देता है।किसी भी किताब को पड़खने की कसौटी यह नही है कि कितने क्लिष्ट तथ्यों के साथ आपको अवगत कराता है,बल्कि उसकी कसौटी तो संभवतः यही है कि एक आम पाठक जब इसको पढ़े तो अपने भाषा मे उन तथ्यों के साथ कैसे तारतम्य स्थापित कर पाता है और विचार श्रृंखला को किस हद तक प्रभावित करता है।उसपर भी इतिहास सामान्य रूप में बीती घटनाओ का एक उदासीन वर्णन अवश्य है,लेकिन उद्देश्यहीन तो कतई नही।किन्तु जब आपको इतिहास इस रूप में मिले जो कि कहानियों की श्रृंखला हो और तथ्यों का व्यापक स्पष्टीकरण  तो यह स्वभाविक रूप से आपको आकर्षित करता है। वैसे भी मानव उद्भव से लेकर वर्तमान समय तक इतिहास को समग्र रूप से समेटना संभवतः एक दुरूह क्रिया है।लेकिन मानव जाति का संक्षिप्त इतिहास जिस रूप में  लेखक ने दार्शनिक रूप में इतिहास का क्रमिक वृतांत दिया है,आपको कई बिंदुओं पर प्रभावित करता है, तो कई पुराने विचार श्रृंखला को गहरे तक झकझोरता है।यह पुस्तक मुख्य रूप से इन प्रश्नों पर केंद्रित है, जैसे कि:- इतिहास और जीव विज्ञान का क्या संबंध है?क्या इतिहास में इंसाफ है?क्या इतिहास के विस्तार के साथ लोग सुखी हुए?

मानव उत्तरोत्तर विकास करता हुआ एक कल्पित समुदाय में परिणत हो गया है। यह विचार करने योग्य है कि उपभक्ताबाद और राष्ट्रवाद हमसे यह कल्पना करवाने के लिए अतिरिक्त श्रम करते है कि लाखों अजनबी उसी समुदाय का हिस्सा है,जिसका हिस्सा हम है,हमारा एक साझा अतीत है साझा हित और एक साझा भविष्य है।लेखक बीच-बीच मे कुछ समीचीन अनुत्तरित प्रश्न भी इस दौरान उठाये है।जैसे कोई भी समाज सच्चे अर्थों में सार्वभौमिक नही था और किसी भी साम्रज्य ने वास्तव में सम्पूर्ण मानव जाति के हितों की पूर्ति नही की।क्या भविष्य में कोई साम्राज्य इससे बेहतर करेगा?

                    पुस्तक का पहला अध्याय ही लेखक ने "एक महत्वहीन प्राणी" के नाम से शुरू किया है।जिसमे यह स्थापित करने का प्रयास है कि मानव की उत्पत्ति एक स्वभाविक जैव वैज्ञानिक प्रक्रिया का प्रतिफल है और अंतिम अध्याय "होमो सेपियन्स का अंत" से समाप्त है।इसके बीच मे अतीत में मानव का उद्भव, विकास प्रक्रिया, कृषि क्रांति से होता हुआ कैसे मानव पैसे की खुशबू से आकर्षित होता हुआ, विभिन्न मजहबो के उद्भव के साथ सम्राज्यवादी आकांक्षाओं से होता हुआ विज्ञान के साथ गठबंधन कर पूंजीवादी पंथ की ओर अग्रसर है,इसपर विस्तृत चर्चा करता है। मुद्राओं का चलन और पैसे के इतिहास के निर्णायक मोड़ एक नए दृषिटकोण को रूपांतरित करता है।जब वो कहते है कि पैसे के इतिहास में निर्णायक मोड़ तब आया , जब लोगो ने उस पैसे पर विश्वास हासिल किया,जिसमे अन्तर्निहित मूल्य का आभाव था।पैसा आपसी भरोसे की अब तक ईजाद की गई सर्वाधिक सार्वभौमिक और सर्वाधिक कारगर प्रणाली है।इसलिए कहते है कि "भरोसा वह कच्चा माल है,जिसमे तमाम तरह के सिक्के ढलते है।"

                      किंतु हर जगह और काल के दौरान मानव की खुशी के पर्याय को यथार्थ के साथ रख कर इसे विशेष रूप से रेखांकित करता है कि दस हज़ार वर्ष पहले के होमो सेपियन्स और वर्तमान के होमो सेपियन्स के खुशी में वाकई कोई बदलाव आया है, जहां सिर्फ दर्शन है। दुख और सुख के धर्मो के तुलनात्मक दर्शन की चर्चा करते समय लेखक बौद्ध धर्म से काफी प्रभावित नजर आते है, जब बौद्ध ध्यान साधनाओ का वर्णन करते हुए कहते है कि- दुख से लोगो को मुक्ति उस वक्त तक नही मिलती,जब वो इस या उस क्षणभंगुर आनंद को अनुभव कर रहे होते,वह मुक्ति तब मिलती है,जब वे अपनी तमाम अनुभूतियों की अनित्य या अस्थायी प्रवृति को समझ लेते है और उनकी लालसा करना बंद कर देते है। किन्तु इसी बात को श्रीमद भागवतम के एक श्लोक में निम्न प्रकार से कहा है- इस संसार के सभी अन्न, धन, पशु और स्त्रियां भी किसी को संतुष्ट नही कर सकता है,यदि उसका मन अनियंत्रित इच्छाओ का दास है।इन दर्शनों पर उतनी चर्चा नही है।

                  आप माने या न माने लेकिन लेखक तो आपको एक नाचीज वानर ही मानता है,जो कि दुनिया का मालिक बन बैठा है। इसलिए यह रेखांकित किया है कि जीवविज्ञान के मुताबिक लोगो का 'सृजन' नही किया गया था। वे विकास की प्रक्रिया के उपज है। और उनका विकास निश्चय ही 'समान' रूप से नही हुआ है।समानता की धारणा पेचीदा ढंग से सृजन की धारणा से गुंथी है। जिस तरह लोगो का कभी सृजन नही हुआ था, उसी तरह जीव विज्ञान के मुताबिक, ऐसा कोई सृजनकर्ता भी नही है,जिसने लोगो को कोई चीज 'प्रदान' की हो।सिर्फ एक प्रयोजनहीन ,अंधी विकास प्रक्रिया है,जिससे व्यक्तियों का जन्म होता है।पुस्तक सिर्फ मानव की नही पारिस्थितिकी के साथ-साथ अन्य जीव जंतुओं पर इस मानव के विस्तृत नकारात्म प्रभाव की चर्चा करते है,जो कि एक विनाश के मार्ग पर अग्रसर है।

                  इस किताब में लेखक द्वारा छोटे-छोटे दृष्टांत और किवदंती का उल्लेख अपने बातो के क्रम में और पठनीय बनाता है। जब ईश्वर के अवधारणा पर चर्चा करते हुए वाल्तेयर का कथन उल्लेख करता है- "यह सही है कि ईश्वर नही है,लेकिन यह बात मेरे नौकर को मत कहना ,नही तो रात में वह मेरी हत्या कर देगा। 

                इसे उपन्यास कहे या कथेतर इतिहास या साहित्य की कोई और विद्या कहे, है रोमांचक।  चार सौ पचास पृष्ठों की इस पुस्तक का हिंदी अनुवाद मदन सोनी ने क्या है।पुस्तक पढ़कर मनन करने योग्य है इसलिए इसपर विशेष प्रतिक्रया हेतु पुनः अध्ययन करना पड़ेगा।क्योंकि कुछ विचार को समझने के लिए काल की धुरी पर गमन और मनन साथ-साथ करना पड़ता है।फिर भी अंत मे एक पठनीय और विशेष जानकारियों से युक्त एक अच्छी पुस्तक है।

Sunday 16 August 2020

चेतन चौहान.......श्रद्धांजली


             चेतन चौहान का क्रिकेट कैरियर बचपन के धुंधलके तस्वीरों में बैठा हुआ है। जब क्रिकेट की दुनिया रेडियो के इर्द-गिर्द घूमती थी।हमे याद है कि उस समय टेस्ट मैच की रंनिंग कॉमेंट्री को सुनने वाले साथ में कॉपी और पेन रखते थे और टेबल उनका मैदान होता था।किसी स्कोरर की तरह बाकायदा हर गेंद पर उसे लिखते थे। उस समय कितने गेंद पर उनका खाता खुलेगा ये क्रिकेट प्रेमियों में चर्चा और हो सकता हो "ऑफ-ग्राउंड सट्टे" की शुरुआती दौर हो।

                 उस समय तक चेतन चौहान के नाम से हम वाकिफ हो गए थे।लेकिन वो क्रिकेट में हमारे लिए तब तक सामान्य ज्ञान के प्रश्न के रूप में बदल चुके थे और इसका प्रदर्शन अपने आप को ज्यादा जानकर इसे बाउंसर के रूप में फेंक कर कहते-अच्छा बताओ ऐसा कौन सा बैट्समैन है जो अपने क्रिकेट कैरियर में एक भी शतक नही बनाया? बैट्समैन होते हुए शतक न बनाने के कारण सबसे ज्यादा ज्यादा याद किये जाने वाले में शायद चेतन चौहान ही होंगे।

         वक्त के साथ उन्होंने मैदान बदल दिया, किन्तु राजनीति के पिच पर बनाये गए उनके स्कोर के बनिस्बत भी वो हमेशा संभवतः वो एक क्रिकेटर के रूप में ही याद किये जायेंगे।भगवान दिवंगत आत्मा को शांति प्रदान करे।ॐ शांति..

Tuesday 11 August 2020

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की शुभकामनाएं

 आज श्रीकृष्ण जन्माष्टमी है। सभी को हार्दिक शुभकामनाएं।इस अवसर पर प्रखर राजनीतिक विचारक और दार्शनिक डॉ राममनोहर लोहिया द्वारा श्रीकृष्ण पर लिखे उनके लेख पढ़िए।उपरोक्त्त लेख "लोहिया के सौ वर्ष" नामक पुस्तक से लिये गए संपादित अँश है।।।
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    त्रेता का राम ऐसा मनुष्य है जो निरंतर देव बनने की कोशिश करता है।इसलिए उनमे आसमान के देवता का अंश कुछ अधिक है।द्वापर का कृष्ण ऐसा देव है जो निरंतर मनुष्य बने रहने की कोशिश करता है।कृष्ण सम्पूर्ण और अबोध मनुष्य है।निर्लिप्त भोग का महान त्यागी और योगी।  कृष्ण देव होता हुआ निरंतर मनुष्य बनता रहा।देव और निस्व और असीमित होने के नाते कृष्ण में जो असंभव मनुष्यताएं है,जैसे झूठ,धोखाऔर हत्या,उनकी नकल करने वाले लोग मूर्ख है उसमें कृष्ण का क्या दोष?कृष्ण ने खुद गीत गाया है "स्थितिप्रज्ञ" का, ऐसे मनुष्य का जो अपने शक्ति का पूरा और जमकर इस्तेमाल करता है।"कूर्मोङ्गनीव" बताया है ऐसे मनुष्य को।कछुए की तरह यह मनुष्य अपने अंगों को बटोरता है,अपनी इन्द्रियों पर इतना सम्पूर्ण प्रभुत्व है इसका की इन्द्रीयार्थो से उन्हें पूरी तरह हटा लेता है।'कूर्मोगानीव' और 'समग्र-अंग-एकांग्री' मनुष्य को बनना है।यही तो देवता की मनुष्य बनने की कोशिश है।
            कृष्ण बहुत अधिक हिंदुस्तान के साथ जुड़ा हुआ है। हिंदुस्तान के ज्यादातर देव और अवतार मिट्टी के साथ सने हुए है।मिट्टी से अलग करने पर वो बहुत कुछ निष्प्राण हो जाते है।त्रेता का राम हिंदुस्तान की उत्तर-दक्षिण एकता का देव है।द्वापर का कृष्ण देश की पूर्व-पश्चिम एकता का देव है। राम उत्तर- दक्षिण और कृष्ण पूर्व-पश्चिम धुरी पर घूमे। कृष्ण को वास्ता पड़ा अपने ही लोगो से।एक ही सभ्यता के दो अंगों में से एक को लेकर भारत की पूर्वी-पश्चिम एकता कृष्ण को स्थापित करनी पड़ी।काम मे पेच ज्यादा थे।तरह-तरह की संधि और विग्रह का क्रम चला।न जाने कितने चालाकिया और धूर्तताये भी हुईं। राजनीति का निचोड़ भी सामने आया -ऐसा छनकर जैसा फिर और न हुआ।
             यो हिंदुस्तान में और भी देवता है,जिन्होंने अपना पराक्रम भागकर दिखाया जैसे ज्ञानवापी के शिव ने।यह पुराना देश है।लड़ते-लड़ते थके हड्डियों को भागने का अवसर मिलना चाहिए।लेकिन कृष्ण थकी पिंडलियों के कारण नही भागा । वह भागा जवानी की बढ़ती हुई हड्डियों के कारण।अभी हड्डियों को को बढ़ाने और फैलाने का मौका मिलना चाहिए था।लेकिन भागा भी बड़ी दूर द्वारका में। तभी तो उसका नाम "रणछोड़दास" पड़ा।कृष्ण की पहली लड़ाई तो आजकल के छापामार लडाई की तरह थी,वार करो और भागो।अफसोस यह है कि कुछ भक्त लोग भागने में ही मजा लेते है।
        कृष्ण त्रिकालदर्शी थे।उसने देख लिया होगा कि उत्तर-पश्चिम में आगे चलकर यूनानियों, हूणों,पठानों,मुगलो आदि के आक्रमण होंगे।इसलिए भारतीय एकता के धुरी का केंद्र कही वही होना चाहिए,जो इन आक्रमणों का सशक्त मुकाबला कर सके।लेकिन त्रिकालदर्शी क्यों न देख पाया कि इन विदेशी आक्रमणों के पहले ही देशी मगध धुरी बदला चुकायेगी और सैकड़ो वर्ष तक भारत पर अपना प्रभुत्व कायम करेगी और आक्रमण के समय तक कृष्ण के भूमि के नजदीक यानी कन्नौज और उज्जैन तक खिसक चुकी होगी।किन्तु अशक्त अवस्था मे त्रिकालदर्शी ने देखा,शायद यह सब कुछ हो,लेकिन कुछ न कर सका हो।वह हमेशा के लिए कैसे अपने देशवासियों को ज्ञानी और साधु दोनों बनाता।वह तो केवल रास्ता दिखा सकता था।रास्ते मे भी शायद त्रुटि थी।त्रिकालदर्शी को यह भी देखना चाहिए था कि उसके रास्ते पर ज्ञानी ही नही अनाड़ी भी चलेंगे और वे कितना भारी नुकसान उठाएंगे ।राम के रास्ते चलकर अनाड़ी का भी अधिक नही बिगड़ता,चाहे बनना भी कम होता है।
             राम त्रेता के मीठे, शांत और सुसंस्कृत युग के देव है।कृष्ण पके,जटिल,तीखे और प्रखर बुद्धि-युग का देव है।राम गम्य है जबकि श्रीकृष्ण अगम्य है। कैसे मन और वाणी थे उस कृष्ण के।अब भी तब की गोपियां और जो चाहे वे,उसकी वाणी और मुरली की तान सुनकर रासविभोर हो सकते है और अपने चमड़े के बाहर उछल सकते है।साथ ही कर्म-संग के त्याग, सुख-दुख, शीत-उष्ण, जय-अजय के समत्व के योग और सब भूतों में एक अव्यय भाव का सुरीला दर्शन उसके वाणी से सुन सकती है।संसार मे एक कृष्ण ही हुआ जिसने दर्शन को गीत बनाया।
                कौन जाने कृष्ण तुम थे या नही।कैसे तुमने राधा लीला को कुरु लीला से निभाया।लोग कहते है कि युवा कृष्ण का प्रौढ़ कृष्ण से कोई संबंध नही।बताते है कि महाभारत में राधा नाम तक नही।बात इतनी सच नही,क्योंकि शिशुपाल ने क्रोध में कृष्ण को पुरानी बातें साधारण तौर पे बिना नामकरण के बताई है।सभ्य लोग ऐसे जिक्र असमय नही किया करते,जो समझते है वे,और जो नही समझते वे भी।महाभारत में राधा का जिक्र हो कैसे सकता हैं।राधा का वर्णन तो वही होगा जहाँ तीन लोक का स्वामी उसका दास है।रास का कृष्ण और गीता का कृष्ण एक है।न जाने हजारो वर्षो से अभी तक पलड़ा इधर या उधर क्यों भारी हो जाता है? बताओ कृष्ण!

                                (------   1955,जुलाई; "जन" से-////)

Sunday 28 June 2020

गतिशील लोकतंत्र

वो बहरे है..
सबने कहा हाँ बहरे है ।
वो अंधे है..
सबने कहा हाँ अंधे है।
वो गूंगे है...
सबने कहा हाँ गूंगे है।

चुनावी मंथन में
मशवरा अब अंत पर है ।
बोलो तो सुन नही पाएंगे,
दिखाओ तो देख नही पाएंगे,
अधिकार मांग नही पाएंगे,
तो फिर दिक्कत कहाँ है..?
और चुनावी प्रचार शुरू हो गया।

जो पार्टी जीती ...
उसने कहा ऐसा कुछ नही है
जनता जनार्दन है..।
हारने वाले पार्टी ने अब तक
मतदाता को बापू के बंदर ही समझ है।
किन्तु इसमे शक नही की
गतिशील लोकतंत्र उन्नति के पथ पर अग्रसर है।।

Sunday 21 June 2020

पितृ दिवस...दिन से परे भाव

            भाव जब शब्द से परे हो तो उसे उकेडने का प्रयास जदोजहद से भरी होती है। हर समय मन का भाव स्वयं में द्वंद करता है । इसलिए भगवान कृष्ण ने मन को "द्वंदातीत" कहा है।फिर शब्दो मे इसका संशय हमेशा बना रहता है कि जीवन के अद्भुत रंगों में कोई-न-कोई रंग छूट ही जाता है। फिर उस तस्वीर के ऊपर एक और कोरा कागज एक नए तस्वीर की तैयारी।

               हर तस्वीर में कुछ न कुछ कमी रह जाती है। यह जानते हुए भी समग्र को समेटने का प्रयास निष्फल ही होगा ।फिर भी प्रयास करना है यह प्रथम पाठ भी अबोध मन पर उन्ही का लेखन है। जब अनुशासन के उष्म आवरण की गर्मी दिल में एक बैचैनी देता तो आँखों से सब कष्ट हर लेने का दिलाशा भी उनके व्यक्तित्व के आयाम में छिपे रहते थे। जो वर्षों बाद इन तुच्छ नजरो को दृष्टिगोचर हो पाया। निहायत सामान्य से व्यक्तिव्य में असामान्य जीवन के कई पहलूँ को लेकर चलना सामान्य व्यक्तिव्य नहीं हो सकता। शून्य के दहलीज से सारा आसमान को छू लेने के यथार्थ को मापने के पारम्परिक  पैमाने इसके लिए उपयुक्त नहीं है। प्रतिफल का आज जिस मधुरता के रस में  घुला हुआ हमें मिला है  उसमे उनके स्वयं के वर्तमान की आहुति से कम क्या होगा? वो ऋषि की तपोसाधना और उसके बरदान स्वरूप हमारा आज।

                  मुख से निकले शब्द .....अंतिम सत्य और प्रश्न चिन्ह की गुंजाइश पर मष्तिष्क खुद ही प्रश्न निगल जाए ....। बेसक कई बार अबोध मन में प्रतिरोध की भाव दिल में उष्णता का अनुभव दे । किन्तु मन में बंधे भरोसे के ताल में सब विलीन हो जाते। आँखों के सम्मोहित तेज का भय या श्रद्धा या कुछ और ...जो कहे पर हम सबके आँख सदा मिलने से कतराती ही रही। उस तेज का सामना करने का सामर्थ्य  अनुत्तरित ही रहा। लेकिन जीवन दर्शन से भरी बातें अब भी कानो को वैसे ही तृप्त करता है, जैसे कभी वो जीवन दर्शन के जल से इन नन्हे पौधों को सींचा करते थे।

                    कई बार गीता पढ़ा लेकिन यथार्थ का अनुभव वस्त्र के तंतू बिखरने के बाद ही चला । जब सब कुछ होने पर भी शून्य दीखने लगा । किंतु  फिर वो अनुभति जो कदम कदम पर साथ चलने का अहसास और किकर्व्यविमूढ़ भाव पर दिशा दर्शन का भाव, अब भी मुक्त काया के साथ यथार्थ तो पल पल है।अब भी वो साथ है। यह संवेदना से भरे भाव न होकर यथार्थ का साक्षत्कार है। जिसे शब्दो की श्रृंखला में समेटना आसान नहीं है।

                       उधार में लिए गए नए रवायत को जब हमारा आज, उस समृद्ध संस्कृति की मूल्यों को ढोने में अक्षम है तो फिर कम से कम एक दिन के महत्व को प्रश्नों के घेरे में रखना  आज तो संभवतः अनुचित ही है...?

                        यह भाव एवम भावना दिन और काल से परे है, जो सास्वत सत्य की तरह सांसो में प्रत्येक क्षण घुला हुआ रहता है। फिर भी.......पितृ दिवस की शुभकामनाएं।।