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Sunday, 4 August 2013

डूब न जाये हम ,चलो अब चले कही।।

हाथो में हाथ , कदम दर कदम साथ
चल रहे दूर कही ,न जाने कहा।
अपनों ने मुह फेरे,
जानने वाले पता नहीं क्यों मुस्कुराया।
इतनी बेरुखी, खून का रिश्ता भी
खून के प्यासे से लगने लगे,
रिश्तो के रेशे  अब तार -तार है,
इन रेशो से बने कफ़न  ढूंढ़ते उन्हें,
गली के हर मोड़ पर ठेकेदार
कब्र खोदे तैयार है।
लहलहाते अरमानो पर अब
नफरत की बारिस हो चली
डूब न जाये हम  ,चलो अब चले कही।।
सुखी पेड़ ,सपनो की छाया
तपती शिला पर अब कमर था टिकाया
कोमल से पाव में दुनिया के घाव
वो झुककर हाथो से जाने किसको सहला रहा ।।
नजर में समाने की चाहत
अब नजर चुराती हुई
किंचित ससंकित, खुद में उलझे से
मंजिल है साथ पर जाना कहा है
घृणा की आंधी में सब उड़ से गए
पता नहीं अब आशियाना कहा है।
सभ्य समाज के असभ्यता से अन्जान
कोई और कहानी न बन जाये यही
डूब न जाये हम  ,चलो अब चले कही।।

1 comment:

  1. बहुत खूब ... पर कहीं और जाने से भी क्या हांसिल होगा ... सब जगह ऐसा ही है ... इसी में जीना सीखना होगा ...

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