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Tuesday, 18 February 2014

प्रहसन

शाम कि श्याह छाँह
जब दिन दोपहरी में
दिल पर बादल कि तरह
छा कर  मंडराते है। 
जब सब नजर के सामने हो
फिर भी
नजर उसे देखने से कतराते है। 
सच्चाई नजर फेरने से
ओझल हो जाती है। 
ऐसा तो नहीं
पर देख कर न देखने कि ख़ुशी
जो दिल में पालते है। 
उनके लिए ये दुरुस्त नजर भी
कोई धोखा से कम तो नहीं
और अपने-अपने दुरुस्त नजर पर
हम सब नाज करते है। 
तडपते रेत हर पल
लहरों को अपने अंदर समां लेता है
पुनः तड़पता है
और प्यासे को मरीचिका दिखा 
न जाने कहाँ तक
लुभा ले जाता है। 
सब सत्य यहाँ
और क्या सत्य, शाश्वत प्रश्न  है ?
बुनना जाल ही तो कर्म 
फिर माया जाल  का क्या दर्शन है
हर किसी के पास डफली
और अपना-अपना राग है। 
अपने तक़दीर पर जिनको रस्क है
हर मोड़ पर मिलते है। 
मुठ्ठी भर हवा से फिजा कि तस्वीर
बदलने का दम्भ भरते है। 
कर्ण इन शोरों पर
खुद का क्रंदन ही सुनता है। 
वाचाल लव फरफराती है
पर मूक सा ही दिखता है। 
इस भीड़ में हर  भीड़ 
अलग -अलग ही नजर आता है
बेवस निगाहों कि कुछ भीड़ को बस  
प्रहसन का पटाक्षेप ही लुभाता है।  

7 comments:

  1. सुन्दर रचना..

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  2. बहुत ही सुन्दर और सार्थक अभिव्यक्ति।

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  3. हार्दिक आभार .....

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  4. सच्चाई नजर फेरने से
    ओझल हो जाती है।
    ऐसा तो नहीं ...
    सच कहा है ... आँखें बंद करने से अंधेरा नहीं हो जाता .. जो सच है वो रहता है ...
    प्रभावी रचना है ...

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  5. बहुत सुंदर भावपूर्ण प्रभावी अभिव्यक्ति...!

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  6. शब्दों को नयी पहचान देना आपकी कलम की विशेषता है

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