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Monday, 26 October 2015

......दरार ...

दरारें दिखती है    
दरकती और दहकती सी 
सब कुछ खामोश है ,
बस जैसे ऊपर वाष्प आच्छादित हो 
और नीचे पानी में उबाल है। 
मौन अंदर ही अंदर चीखता है 
काश कोई दिल की आवाज सुने 
किस कदर प्यासे है 
जैसे की धरती अब बंजर हो चली हो। 
आक्रोश और नफरत 
भरे बाजार बिक रहे है 
प्रेम के सौदाई ने नए मुकाम गढ़े 
और नफरत को प्रेम से दिल में बसाया है। 
हकीकत है कि चिंता के लिए 
सभी चिंतित होते है 
रहनुमाओ की फ़ौज तलाश रही है 
इन चिन्ताओ को अपने रहनुमा के लिये। 
अपने ढर्रे पे  तो जिंदगी  लौट ही आती है
कभी रुकी तो नहीं 
बस कुछ के सितारे विलीन हो जाते 
और कितनो के सितारे इसमें चमक जाते है।

4 comments:

  1. सुन्दर व सार्थक रचना प्रस्तुतिकरण के लिए आभार..
    मेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका इंतजार....

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  2. वाह ... गहन चिंतन करती रचना ...

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