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Friday, 24 February 2017

घरौंदा की खातिर .....

घरौंदा की खातिर
रह रह कर बदलते है, बस चलते है।।
छोड़ कर सब कुछ
उसी की तलाश में
जिसे छोड़ चलते है।।
मैं मतिभ्रम में उलझ कर
इस भ्रम से निकलना चाहता हूँ।
जितना मति से मति लगाता
चकयव्यूह सा उलझता जाता हूं ।।
इन छोटे छोटे सोतों से
जब प्यास बुझती नहीं ,
किसी बड़े दरिया की तलाश में
मृगमरीचिका के पीछे पीछे
बस बढ़ता जाता हूं ।।
एक बड़े से घरौंदे के चाहत में
इन छोटे में कहाँ कभी ठहर पाता हूं ।।
इसी की देहरी पर
अगर खेल ले दोपहर की
छोटी सी परिछाई से
या शाम की धुंधलकी में
इन टिमटिमाते बल्ब की रौशनी से
कुछ अनमने से आवाज में भी
अपनेपन की आहट लगे ।
चाहता तो यह सब
फिर भी पता नहीं क्यों
घरौंदा की खातिर
रह रह कर  बदलते है बस चलते है। ।

3 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (26-02-2017) को
    "गधों का गधा संसार" (चर्चा अंक-2598)
    पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

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  2. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन डॉ. अमरनाथ झा और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

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  3. ये इंसान की फितरत है ...कहाँ संतुष्टि पाता है ... भटकता रहता है उम्र भर ...
    गहरी बात ...

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