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Monday, 10 September 2012

खुद को बदले


पिछले दिनों  हिंदुस्तान समाचार पत्र में एक खबर प्रकाशित हुई।कुछ झारखंड के  छात्र  जो की  दरोगा के परीछा में असफल हो गए है वो धरना पर बैठे है।उनका मांग है  की अगर उनका चयन दरोगा के लिए  नहीं किया गया तो वो सभी नक्सली बन जायेंगे। आरोप है की भ्रष्टाचार तथा  त्रुटिपूर्ण प्रणाली के कारन उनका चयन नहीं हो सक।अगर वो नक्सली बन जाते है तो इसकी जिम्मेदारी सरकार  और पुलिस प्रशासन की होगी।संभवतः चयन में कुछ त्रुटी हो, भ्रष्टाचार जिस कदर मुह बाये हर जगह खरा है उससे इंकार किया ही नहीं जा सकता है।  किन्तु ये प्रबृति कुछ और ही इंगित करती है।समाज में फैल रहे असंतोष और बिघटनकारी  सोच की एक नई  प्रबृति  पनप रही है ,जहाँ  किसी भी मांग को जोरजबर्दस्ती से पाने की चाहत है।समाज  में ऐसे अक्षम सोच के लोग बड़ते जा रहे है जिनके लिए उदेश्य सरकारी नौकरी से ज्यादा कुछ नहीं अन्यथा नक्सल भी रोजगार का एक अबसर मुहैया करता है,इस बात से इत्तेफ़ाक रखते है। इनके नक्सली   बनने से किसे नुकसान होगा बिचारनिय है।
                                            
                      खैर रामचरितमानस में एक प्रसंग है "कादर मन कहू एक अघारा,देव देव आलसी पुकारा।"प्रसंग शायद अनावश्यक नहीं है।हमारी प्रवृती इस ओर ज्यादा झुकती जा रही है।नकारात्मकता का प्रभाव ज्यादा प्रभावी होता जा रहा है।भ्रस्टाचार के खिलाफ जब आन्दोलन चलाया गया तो ऐसा लगा की शायद साऱी  समस्याओ का जर ये नेतागण तथा हल सिर्फ जनलोकपाल बिधेयक है।आन्दोलन का स्वरुप से लगा की यह अंतिम समर की तयारी है किन्तु हम जहा से चले पुनः अपने आपको वही पा  रहे है।शायद अन्ना की तरह किसी और देव के इंतजार में है।और जब इस तरह के वाकया आता है तो स्वाभाविक रूप से यह प्रश्न उठता है की अनैतिक  रूप से दबाब डाल कर कुछ पाने के चाहत समाज के प्रत्येक तबके में किसी न किसी रूप में हर जगह ब्याप्त है।प्रेमचंद ने "नमक का दरोगा" कहानी में इस चाहत को दर्शाया था की मासिक बेतन तो पूर्णमासी का चाँद है जो एक दिन दिखाई देता है और घटते घटते लुप्त हो जाता है।जबकी उपरी कमाई बहता हुआ स्रोत है , जिससे प्यास सदैब बुझती है। यह सोच संभवतः  बढता जा रहा है। मौके की तलाश में सभी बैठे है जब तक मौका नहीं तब तक इस भ्रष्टाचार के खिलाफ पूरी सिद्दत से है।यह  प्रत्यकछ  रूप से प्रशासन और सरकार  के कार्य कलाप में दिखता है क्योकि ये सभी भी इसी सोच के समाज से आते है उनसे हम बिसेस की उम्मीद करते है शायद समस्या यही है।
           
     बस्तुतः देखा जाय तो यह एक ऐसी समस्या और मानसिकता है जिसका अपने सुबिधानुसार ब्याख्या  करने की  प्रबृति  हममें  बिकसित हो गया है।कोई भी समस्या देश या समाज के हित या अनहित से  ब्याख्या नहीं की जाती बल्कि उसको ब्याख्या करने के समय हम अपने हित-अनहित,अपने बिचारधरा जातिगत ,पार्टीगत और न जाने क्या क्या हिसाब लगाने के ही बाद हम किसी राय  को कायम करते है जिसमे की देश हित का कही कोई स्थान नहीं होता किन्तु कोई भी बात देश हित के  प्राथमिकता के ऊपर प्रचारित की जाती है।सभी भ्रष्टाचार के खिलाफ है किन्तु सभी के पैर में अपने अपने हित बेरी लगी हुई है जिसे खोल कर कोई भी आगे  नहीं बढना चाहता है।सही और गलत की ब्याख्य यदि युही  सुबिधानुसार की जायगी तो समस्या अपनी जगह यथावत बना रहेगा।  इसलिए  भ्रष्टाचार के बिरुद्ध अपार जनसमर्थन होते हुए भी यह अंजाम तक भी नहीं पहुच पाया है।हम  समस्या का समाधान अपनी सुबिधानुसार चाहते है।नहीं तो एक से एक घोटाले होते जा रहे है चाहे सरकार किसी की हो  कुकृत्य के लिए अलग-अलग दलील पक्ष  और बिपक्ष के द्वारा  नहीं दिया जाता।आजकल समस्या, समस्या स्वरुप न होकर बिचार्धरास्वरुप   बट गया है।हम पहले सही या गलत के ऊपर बहस न कर अपनी सोच के अनुसार उसका ब्याख्या करने में लगे है।नहीं तो अभी जिस प्रकार से कोयला घोटाले के ऊपर सभी दल अपने अनुसार इसके लिए आरोप प्रत्यारोप कर रहे है उससे तो यही लगता है की गलती को सुधारने की मनसा न होकर उसे सिर्फ दोषारोपन कर अपने को सही साबित किया जाय।आम जन भी किसी  समय अपनी  ब्याक्तिगत सोच और  विचारधारा से उपर नहीं उठ पाते  और सभी राजनीतिकदल जनता की इसी कमजोरी का फायदा उठाने में लगे है।क्योकि हमें एक के बाद एक भुलने की आदत है।
                 किसी भी  समाज की सोच,संस्कार,आचार,ब्याभहार ,प्रबृति न तो  एक दिन में बनी नहीं है और न ही ये इतनी जल्दी बदल सकती है किन्तु प्रयास तो किया ही जा सकता है।बस्तुतः भ्रष्टाचार  के खिलाफ आन्दोलन सिर्फ सरकार के खिलाफ था हम सिर्फ और सिर्फ  सरकारी काम काज से भ्रष्टाचार को  समाप्त करना चाहते है।इस आन्दोलन के संचालको के ऊपर कोई संसय न ही था और है किन्तु समर्थक की प्रवृत्ति  तथा सोच इमानदार है इसपर एक प्रश्न चिन्ह तो है ही।रामचरितमानस में प्रसंग है "जल संकोच बिकल भई मीना ,अबुध कुटुम्बी जिमी धन हिना " और जिस प्रकार सभी में धन की लालसा है वो किसी न किसी रूप में पाना चाहते है , परिस्थिति का फायदा उठाने की चाहत शायद ज्यादा है जो की इस प्रकार के आन्दोलन को कमजोर करता है।बस्तुतः भ्रस्टाचार भ्रस्ट  आचरण के साथ संधि है और आचरण क़ानूनी कम और नैतिक रूप से जयादा जबाबदेही होनी चाहिए।किन्तु इसे अभी सिर्फ और सिर्फ कानून के दयारे तक ही बहस में रखा जा रहा है। गीता में कहा गया है महापुरुष जो आचरण करते है सामान्य जन उसी का अनुसरण करते है।वह अपने अनुसरणीय कार्य से जो आदर्श प्रस्तुत करता है,संपूर्ण विश्व उसका अनुसरण करता है।किन्तु आज के परिदृश्य में ऐसे लोगो की कमी हो गई है जिनको की लोग अनुसरण कर सके।समुद्र में जब लहरे तट  की ओर आती है तो जमा मैल फेन रूप में उस लहर पर सबार होकर तट तक आता है किन्तु ये कितने दिनों से जमा हो रहा है ये पता नहीं। इसी प्रकार आज की परिस्थिति एक दिन की नहीं है ये समाज में काफी समय से चल रहे पतन और छाई हुई प्रबृति  का परिणाम है जिसे एक दिन में दूर करने की अपेछा नहीं की जा सकती है।समस्या है की मिटटी ब्याप्त जहर को दूर न  कर हम पेड में दबा दिए जा रहे है और चाहते है की हमें स्वस्थ तथा सुन्दर फल मिले।जो की संभव नहीं।हमें मिटटी में ब्याप्त जहर को दूर करने का प्रयास करना चाहिए। किन्तु जिस प्रकार से अन्ना समर्थक राजनीती में आना चाहते है हम शायद ये मौका गबा रहे है।

हर कोई इस परिस्थिती से ब्याकुल लगता है और इससे निजात पाना चाहता है किन्तु किसी के इंतजार में प्रतीक्छारत है। ब्रिह्दारन्यक उपनिषद में ब्याकुल मनुष्य का बर्णन इस प्रकार से हुआ है -"कृपन मनुष्य वह है जो मानव जीबन की समस्या को हल नहीं करता और अपने आप को समझे बिना कूकर -सूकर की भांति  इस संसार को  त्याग कर चला जाता है।कम से कम हर ब्यक्ति अपने आप से ईमानदारी बरतने का प्रयास करे एक तीली प्रकाश का जलाये अपने आस पास अगर प्रकाशित कर सके तो समाज में स्वतः अँधेरा कम होगा और इस प्रकार के दिग्भ्रमित युवा शायद इस प्रकार से कृपणता वश कुछ ना मांग अपने जीवन को दिशा देने वाले एक चिराग सिर्फ और सिर्फ अपने लिए रोशन कर सके तो उससे भी इस देश का भबिष्य उज्जवल होने की पूर्ण आशा है।

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