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Monday, 27 August 2018

नीलगिरी की गोद मे ...

"नीलगिरी' नाम काफी सुना सा है और इस नाम के कौंधते ही नजरो के सामने दक्षिण की नीलगिरी पहाड़ियों की श्रीखला तैरने लगता है । जहां "ऊंटी" हरी भरी वादियों के बीच अपने खूबसूरती के लिए विख्यात है।

                 किन्तु वर्तमान जिस "नीलगिरी" में मैं यायावरी कर रहा हूं यह  ओड़िसा के बालेश्वर जिले में है।बालासोर ही बालेश्वर है और बालेश्वर ही बालासोर...। इसको भारतीय रेल ने स्टेशन की पट्टिका के हिंदी और अंग्रेजी की वर्तनी में स्पष्ट कर दिया।बालासोर जिला देश के पूर्वी तट बंगाल की खाड़ी पर स्थित है और यहां से लगभग 20 की मि की चांदीपुर स्थित है। जो  भारतीय थलसेना  की एकीकृत परीक्षण रेंज के लिए विख्यात है।इस रेंज से कई परमाणु सक्षम बैलिस्टिक प्रक्षेपस्त्रो का परीक्षण हो चुका है।

           बालासोर से कोई 20 की मि राज्य हाई-वे 5 पर जंगलो के बीच पहाड़ी की तलहटी में नैसर्गिक सौंदर्य के बीच प्राचीन काल से नीलगिरी ने अब तक लगता है ऐसे ही संजोये रखा है। जो किसी भी मायने में किसी प्रषिद्ध पर्यटन स्थल से कम नही है । इसकी जड़ प्रागैतिहासिक काल से जुड़ी हुई हैऔर पांचवी शतब्दी से इसके राज्यगत इतिहास में दर्ज है। अपनी राज्य की वजूद को नीलगिरी ब्रिटिश शासन में भी बचाये रखा। तो फिर आप समझ गए होंगे कि लगभग 564 देशी रियासत में "नीलगिरी" भी ओडिशा के 26 "प्रिंसली स्टेट"  में एक रियासत था। जो कि आजादी के बाद 1949 में भारत गणराज्य में शामिल हुए। आपको इन यादों से जुड़ी उन काल की राजसी निशानी के तौर पर "नीलगिरी राजबाटी" अब भी मौजूद है। जो कि उस शासन में निर्मित जगन्नाथ मंदिर से बिल्कुल बगल में है।धार्मिक दृष्टिकोण से "पंचलिंगेश्वर महादेव" की अपने आप मे एकमात्र इस प्रकार का विख्यात मंदिर है।

             कण-कण में बिखरे महादेव को मंदिर में देखने जाने से उपयुक्त इन पहाड़ियों के भ्रमण हमे लगा। क्योंकि घड़ी की सुई की रफ्तार बता रही थी कि समय पर्याप्त नही है। पहाड़ी के ऊपर कुछ दूर चढ़ते ही पुरातन पर नवीनता की झलक दिख गई। जहां रास्ता बाधित था और डी आर डी ओ ने इससे ऊपर अपने प्रभुत्व को स्थापित कर रखा है। जिसकी नीव पूर्व राष्ट्रपति ए पी जे अबुल कलाम ने रखा था ऐसी सूचना मौजूद एक शिलापट बता रहा है।

                   रोड के दोनों ओर लंबवत "नीलगिरी" यानी यूकेलिप्टस का पेड़ बरबस काश्मीर में रास्ते को आच्छादित करती चिनार के पेड़ की ओर बरबस ध्यान खींच ले जाता है। सौंदर्य की तुलनात्मक विवेचना तो व्यर्थ का प्रलाप है क्यो असीम की सीमा निर्धारण आपकी चक्षु-क्षमता का पर्याय है तो फिर जैसी जिसके निगाहे...। इन जंगलो में भ्रमण सिर्फ आंखों को आकर्षित तो करती है, लेकिन इन पहाड़ियों में बसे गांव और लोग की वर्तमान की हकीकत शासन के कई दावों की तस्दीक नही करता है।  विरोधाभासी जीवन के यथार्थ में दोहित प्रकृति से सुख तलाशते लोगो को जहां एक ओर यहां की रमणीय प्रकृति आकर्षित करती है । वही अब तक प्रकृति को संजो कर रखे लोगो की जीवन यापन का संघर्ष कलम की पैनापन को और तीखा करने के अवसर भी देता है।




                किन्तु मैं इन सबसे पड़े नीलगिरी की इन खूबसूरत वादियों में ज्यादा से ज्यादा भटकना चाहता हूं कि देखे आखिर नीरवता में बिखरी मोती की चमक  इतना आकर्षित कैसे करता  है...?

2 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (28-08-2018) को "आया भादौ मास" (चर्चा अंक-3077) पर भी होगी।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ऋषिकेश मुखर्जी और मुकेश - ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

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