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Thursday 30 August 2018

जंगल मे मारीच

कुछ शोर और क्रंदन है,
शहर के कोलाहल में
ऊंची-ऊंची अट्टालिकाओं में
जंगलो की सरसराहट है।
वो चिंतित और बैचैन है
अपनी "ड्राइंग रूम" में
की अब पलाश की ताप से
शहर क्यो जल रहा है ?
व्यवस्था साँप की तरह फुफकारता तो है
लेकिन प्रकृति के इन दुलारो को
विष-पान किसने कराया है ?
लंबी-लंबी गाड़ियों से रौंदते
इन झोपड़ियों में पहुंच कर
यहाँ के जंगलों में
ये जहर किसने घोला है?
मतलबों के बाजार में
कब कौन खरीदार बन
व्यापार करने लगे, कहना मुश्किल है ।
चेहरे पर नकाब कोई न कोई
हर किसी ने लगा रखा है
फिर व्यवस्था के संग विरोध
या फिर विरोध की व्यवस्था...?
इसलिए तो अब तक
इन जंगलो में मारीच घूमते है
वो हमको और हम उनको छलने मेंलगे रहते है ।।

3 comments:

  1. छलावा भी तो एक छलावा है.

    उम्दा रचना

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  2. मारीच ने किसको छला था? उसी को तो न, जो वनवास के तपस्वी जीवन में भी स्वर्ण-मृग का चर्म पहनकर महलों की विलासिता का भ्रम पालकर खुदको छलना चाहती थी. वास्तव में हम किसी और को नहीं, ख़ुद को छलते हैं. सुन्दर कविता कौशल लाल जी.

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  3. This comment has been removed by the author.

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