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Sunday 29 June 2014

आसमां से परे

आसमां से परे
एक आसमां की तलाश है, 
सुदूर उस पार क्षितिज के 
जहा धरती और गगन 
मिलने को बेकरार है।  
और जो अब तक मिल नहीं पाये 
बस और थोड़ा दूर 
न जाने अब तक कितने फासले नाप आये 
किन्तु फिर भी वही  दुरी, पास-पास है।  
और इसपर पनपते जीव ने 
उस धरती से  कांटे नहीं तो 
आसमां के शोलो को ही 
बस दिल में बसाया है। 
हैरत नहीं की उसने भी 
इन दोनों के प्यार को बस 
छद्म ही पाया है। 
प्रतीत होता है और है का अंतर 
सबने ज्ञान से अर्जित किया है, 
प्रेम की पहली परिभाषा ही 
अब यहाँ दूरियों में अर्पित किया है। 
जिसको किसी की चाह नहीं 
हर किसी ने दुसरो में वही देखा है। 
मैं  प्रेम का सागर हूँ 
बाकी में सिर्फ  नफरत की ही रेखा है। 
न देखे इस आसमां से बरसते शोलों को
या धरा पर चलते फिरते शूलों को,  
चलो इससे परे कोई आसमां ढूंढेंगे  
जहाँ धरती गगन एक दूसरे को चूमेंगे। । 

Monday 28 April 2014

बदलते पैमाने

रौंद कर सब शब्द 
उससे गुजर गए,
कुछ दिल को भेद
कुछः ऊपर से निकल गए। 
अलग-अलग करना 
अब मुश्किल है, 
जिंदगी जहर बन गया 
नहीं तो जहर जिंदगी मे घुल गये। 
लानत और जिल्लत के बीच
वो खुद को ढूढ़ रहा था,
जलालत की सब बातें जब से
इंसानी सरोकारों में मिल गए।
सबने चिंता दिखाया 
कल के लिये सब बैचेन दिखे,
कुछ को देश निकाला मिला तो 
कुछ को समुन्दर मे डुबों दिये।
बदलेगा क्या 
ये तो वक्त बताएगा, 
किन्तु सब भाव अब 
वोट के कीमत मे सिमट  गये। 
जो जरिया है और   
तरक्की का पैमाना है बना,  
उस लोकतंत्र में चुनाव ने  
सारे पैमाने बदल दिये। ।    

Monday 7 April 2014

आंसू

बहते आसुओं कि लड़ी को 
उम्मीदो के धागे से बाँध कर 
मैंने अर्पित कर दिया उसी को 
जिसने ये सोता बनाया। 
न कोई मैल है न शिकायत 
की ये झर्र -झर्र कर बहते है 
शुष्क ह्रदय कि इस दुनिया में 
मुझसे  खुशनसीब कौन है। 
ये गिर कर बिखर न जाए 
बस इतना ही फ़िक्र करता हूँ 
की और कोई मोतियों की लड़ी नहीं 
जो मै तुझको समर्पित कर सकूँ। 
मांगू क्या और तुझसे 
न मिले तो भी रिसती है 
और मिलने के बाद भी 
फिर यूँ  ही बहकती रहती है। 
मैं  जानता हु तू मेरा है ये जताने के लिए  
दर्द बन कर यूँ ही  सताता है 
और तेरी रहमत का क्या कहना 
साथ में आंसू भी दवा बन आ ही जाता है। ।   

Wednesday 2 April 2014

माया

वंचित आनंद से और 
संचित माया का राग ,
जीवन के हर दुःख में बस इसका प्रलाप 
फिर स्व उद्घोषित माया क्या ?
माया तो कुछ भी नहीं
लोलुपता का महा-काव्य है
खुद से छल, अनुरक्त से विरक्ति
लोभ -प्रपंच से सिक्त
निकृष्ट प्रेम का झूठा प्रलाप है।
हर वक्त ह्रदय में आलोड़ित
असीम  आनंद कि तरंगे,
सुरमई शाम के साथ
विहंगो कि कलरव उमंगें,
सब से विमुख हो
और करते प्रलाप ,
डसे जाने का त्राश, 
जीवन के द्वारा ही जीवन को।
फिर माया के नाम का करते आलाप है 
किन्तु यह निकृष्ट इच्छा का प्रलाप है।
गढ़ा है खूब वक्त कि कालिख से 
की इसके स्याह आवरण ने ढक दिया है,
उस श्रोत को जो अनवरत
बस आनंद का श्रृजन  करता है। 
और हम भटकते रहते है 
उस खोज में जीवन के, 
जो श्रृष्टि  ने आदि से ही 
हर किसी  के संग लगाया है। 
माया की महिमा को 
जीवन के दर्शन में क्या सजाया है ,
जैसे दर्शन जीव का न हो निर्जीवों कि काया है।  
और अनवरत चले जा रहे है, 
उसी निर्जीव में सजीव आनंद की  चाह लिये,
जिसे माया के नाम पर 
जाने कब से ह्रदय में उठते आनंद को, 
हमने स्व-विकृत चाह में इसे दबाया है। 
आनंद को माया के नाम छलना ही संताप है 
क्योंकि यह निकृष्ट सुख का छद्म प्रलाप है। । 

Thursday 27 March 2014

ठगे -ठगे सब बमभोला बन जाते ..

हर उलझन को ये सुलझा दे 
और सब कुछ है फिर उलझा दे 
बड़े-बड़े वादों से आगे अब 
हर चौक पे होर्डिंग लगवा दे। 
नए-नए ब्रांडो की लहरे 
थोक भाव में बेच रहे है  
जनता क्या सरकार चुने अब 
देश नहीं सिर्फ बाजार पड़े है। 
गांधी जी के बन्दर भांति 
आमजन बैठे-बैठे है 
मूड पढ़े कैसे अब कोई 
न कुछ देखे न ही सुने है। 
वोटर सब नारायण बनकर  
हवाई सिंघासन पर लेटें है 
दोनों हाथ उठे है लेकिन 
मुठ्ठी बंद किये ऐंठे  है। 
लोभ ,लालच प्रपंच में कितने 
रुई कि भांति नोट उड़े है 
सेवक सेवा कि खातिर अब 
कैसे-कैसे तर्क गढ़े है।  
बेसक कल लूट जाये नैया 
लगा दांव सब पड़े अड़े है 
आश निराश के ऊपर उठ कर 
द्वारे-द्वारे भटक फिर रहे है। 
किसकी किस्मत कौन है बदले 
आने वाला कल कहेगा 
जो करते सेवा का  दावा 
कितने सेवक वहाँ लगेगा। 
मंथर चक्र क्रमिक परिवर्तन 
सब पार्टी में अद्भुत गठबंधन 
तुम जाओ अब हम आ जाते 
ठगे -ठगे सब बमभोला बन जाते। 

Wednesday 5 March 2014

एक ख्वाहिश

खुली आँखों से 
जो न दिखी हो अब तक 
किया हूँ बंद पलक बस 
तुझे निहारने के लिए       ।। 
प्यास बुझे तेरे प्रेम की 
ऐसी तो  कोई खवाहिश नहीं
बस चाहता हूँ जलूं  और
इसे  निखारने के लिए     ।। 
गूंजती है कई आवाजे 
टकराकर लौट जाती 
बस गूंजती है सनसनाहट 
तूं पास ही है ये जताने के लिए  ।। 
कभी पास-पास हम बैठे  
ऐसा न कर पाया 
दिलजले कई घूमते अब भी 
कुछ तस्वीर जलाने के लिए    ।।
टूटकर तो कितनो ने  
तुझपे इश्क का चादर चढ़ाया है 
मैंने ओढ़ा है तुझे 
खुद को भूलाने के लिए     ।।
कई रंग है तेरे 
सब अपना-अपना ढूढ़ते है 
मैंने मिला दी सबको 
नए निखार लाने के लिए   ।। 
तू इबादत है ,प्रेम है,इश्क या कुछ और 
मुझे मालूम नहीं 
बस ख्वाहिश  है इतनी 
तू छूटे न कभी और कुछ पाने के लिए। ।     

Tuesday 25 February 2014

अहम्,

आज न जाने कैसे  
दोनों के अहम्
आपस में टकरा गए। 
निर्जीव दीवारें भी
इन कर्कश चीखों से
जैसे कुछ पल के लिए
थर्रा गए। 
एक दूसरे के नज़रों में 
अपनी पहचान खोने का गम था। 
"मैं" और "तुम" यादकर 
"हम" से मुक्त होने का द्वन्द था।   
अब चहारदीवारी में 
दो सजीव काया
निर्जीव मन से बंद थे। 
बंद थी अब आवाजे
ख़ामोशी का राज था। 
खूबसूरत कला चित्र भी
अब इन दीवारो पर भार था। 
कुछ देर पहले निशा पल में
जो गलबहियां थी। 
दो अजनबी अब पास-पास
युगों-युगों सी दूरियां थी। 
बुनते टूटते सपने पर भी
कभी तर्जनी एकाकार थे। 
समय के बिभिन्न थपेड़ो पर
मन में न कभी उद्विग्न विचार थे। 
वर्षो साथ कदम का चाल जैसे 
अचानक ठिठक गया। 
मधुर चल रही संगीत को 
श्मशानी नीरवता निगल गया। 
टकराते अहम् है जब 
मजबूत से रिश्ते दरक जाते है। 
धूं -धूं कर दिल से उठते धुएं 
कितने आशियाने जला जाते है। ।   

Tuesday 18 February 2014

प्रहसन

शाम कि श्याह छाँह
जब दिन दोपहरी में
दिल पर बादल कि तरह
छा कर  मंडराते है। 
जब सब नजर के सामने हो
फिर भी
नजर उसे देखने से कतराते है। 
सच्चाई नजर फेरने से
ओझल हो जाती है। 
ऐसा तो नहीं
पर देख कर न देखने कि ख़ुशी
जो दिल में पालते है। 
उनके लिए ये दुरुस्त नजर भी
कोई धोखा से कम तो नहीं
और अपने-अपने दुरुस्त नजर पर
हम सब नाज करते है। 
तडपते रेत हर पल
लहरों को अपने अंदर समां लेता है
पुनः तड़पता है
और प्यासे को मरीचिका दिखा 
न जाने कहाँ तक
लुभा ले जाता है। 
सब सत्य यहाँ
और क्या सत्य, शाश्वत प्रश्न  है ?
बुनना जाल ही तो कर्म 
फिर माया जाल  का क्या दर्शन है
हर किसी के पास डफली
और अपना-अपना राग है। 
अपने तक़दीर पर जिनको रस्क है
हर मोड़ पर मिलते है। 
मुठ्ठी भर हवा से फिजा कि तस्वीर
बदलने का दम्भ भरते है। 
कर्ण इन शोरों पर
खुद का क्रंदन ही सुनता है। 
वाचाल लव फरफराती है
पर मूक सा ही दिखता है। 
इस भीड़ में हर  भीड़ 
अलग -अलग ही नजर आता है
बेवस निगाहों कि कुछ भीड़ को बस  
प्रहसन का पटाक्षेप ही लुभाता है।  

Monday 27 January 2014

जीवन

जीवन 
दोनों के पास है
एक  है इससे क्षुब्ध
दूसरा है इससे मुग्ध
एक पर है भार बनकर बैठा
दूजा इसपर बैठकर है ऐंठा। 
जीवन 
दोनों के पास है,
एक ही सिक्के के,
दो पहलूँ कि तरह। ।
जीवन 
एक महल में भी कराहता है 
तो कहीं फूंस के छत के नीचे दुलारता है। 
कोई अमानत मान इसे संभाल लेता 
तो दूजा तक़दीर के नाम पर इसे झेलता। 
जीवन 
दोनों के पास है 
एक ही मयखाने के 
भरे हुए जाम और टूटे पैमाने की तरह। । 
जीवन 
मुग्ध सिद्धार्थ जाने क्यों
हो गया इससे अतृप्त,
अतृप्त न जाने कितने
होना चाहते इसमें तृप्त। 
जीवन 
दोनों के पास है ,
एक ही नदी के 
बहती धार और पास में पड़े रेत की तरह। ।
जीवन 
शीतल बयार है यहाँ
वहाँ चैत की दोपहरी,
वो ठहरना चाहे कुछ पल 
जबकि दूजा बीते ये घडी। 
जीवन 
दोनों के पास है ,
एक ही पेड़ के 
खिले फूल और काँटों की तरह। । 
एक ही नाम के 
कितने मायने  है ,
बदरंग से रंगीन 
अलग-अलग आयने है, 
लेकिन जीवन अजीब है 
बस गुजरती है जैसे घड़ी की  टिक-टिक। 
उसका किसी से 
न कोई मोह न माया है ,
वो तो गतिमान है उसी राहों पर 
जिसने उसे जैसा मन में सजाया है। । 

Sunday 26 January 2014

गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएँ

हर वर्ष जब दिन ये आता करते सब ये प्रण,
बदलेंगे हम देश का भाग्य देकर तन-मन-धन। ।
किन्तु इसके बाद फिर बिसरा देते सब  भाव,
तब तो  वर्षो बाद भी नहीं बहुत बदलाव। ।
चिंगारी साम्प्रदायिकता की जो सैतालिस में भड़की
आज तलक है बुझी कहाँ रह-रह कर है धधकी। ।
जात-पात के नाम पे करते बड़ी-बड़ी जाप
किन्तु फिर भी जाने क्यों नहीं मिटा ये श्राप। ।
गरीबी का हो उन्मूलन गाते सब ये गान
पर भूखो न जाने कितने त्याग दिये है प्राण। ।
इतने वर्षों बाद भी ऐसे है हालात 
हो कोई भी, गण हम, चिंता की ये बात।।
चढ़ शूली जो सपना देखे आजादी के परवाने 
बदले हम तस्वीरे जिससे व्यर्थ न जाए बलिदाने। । 
बीति ताहि बिसार के अब आगे कि सोंचे 
विश्व गुरु हो पुनःप्रतिष्ठापित आओ कर्मों से इसे सींचे। । 

------------सभी को गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ  --------------- 

Monday 20 January 2014

एक किसान

चित्र;गूगल से
हर समय देखता उसके तन पर
बस एक ही कपडा।
मैं  किंचित चिंतित हो पूछता जो
वो कहता -
हर मौसम से है उसका
रिश्ता गहरा।
बारिस के  मौसम से
बदन की गंदगी धूल जाती है,
मौसम कि गर्मी से ज्यादा तो
पेट कि अगन झुलसाती है,
जुए से जुते बस चलते है,
फिर सर्दी में भी बदन दहकते है। 
फिर मैंने पूछा -
क्यों शाम होते ही
यूँ बिस्तर पे चले जाते।
वो कहता -
क्या करूँ
मेरा मित्र गाय-बैल ,चिड़ियों की चहचहाट
जो शाम के बाद साथ नहीं निभाते।
सुबह इतनी जल्दी जाग कर
क्या करना है
वो कहता -
घूमते है हरि ब्रह्म मुहूर्त में
बस उनसे ही मिलना है।
क्यों इस खेत-खलिहान में
अब तक हो उलझे,
कुछ करो ऐसा की
आने वाला जिंदगी सुलझे।
मुस्कुरा कर वो कहता-
किसी को तो इस पुण्य का
लाभ कामना है
सब समझे कहाँ माँ के आँचल में 
ख़ुशी का जो खजाना है। 
बेसक अर्थ में जो 
इसका हिसाब लगाएगा ,
इन बातो को 
वो नहीं समझ पायेगा। 
जीने के लिए तो 
सभी कुछ करते है,
पर सिर्फ मुद्रा से ही 
पेट नहीं भरते है। 
हमारे उपज  से ही
सभी कि क्षुदा शांत होती है ,
तृष्णा फिर हजार 
सभी मनो में जगती है। 
वो दिन भी सोचो 
जब विभिन्न योग्यताओं  के ज्ञानी होंगे ,
पर खेती से अनभिज्ञ सभी प्राणी होंगे। 
कर्म तो कर्म है 
उसे करना है 
पर निजहित में 
परहित का भी 
ध्यान रखना है। 
सब इस भार को नहीं उठा पाते 
भगवान् इसलिए किसान बड़ी जतन से बनाते।।

Saturday 18 January 2014

शिक्षा और दुरियाँ

घर के रास्ते
बस चौराहे पर मिलते थे ,
दुरी राहो की
दिल में नहीं बसते  थे।
मेरी माँ कभी
अम्मी जान हो जाती थी
तो कभी अम्मी माँ रूप में नजर आती थी।
नामों के अर्थ का
कही कोई सन्दर्भ न था ,
सेवई खाने से ज्यादा
ईद का कोई अर्थ न था।
उसका भी आरती के थाली पे
उतना ही अधिकार था ,
कोई और ले ले प्रसाद पहले
ये न उसे स्वीकार था।

पैरो कि जूती
बराबर बढ़ रही थी,
मौसम बदल कर लौट आता
किन्तु उम्र बस  बढ़ रही थी।
तालीम अब हम
दोनों पाने लगे ,
बहुत अंजानी बातें
अब समझ हमें आने लगे।
ज्यों-ज्यों ज्ञान अब बढ़ता गया,
खुद में दिल बहुत कुछ समझाता गया।

घर के रास्ते से ये चौराहे की दुरी
कई दसको से हम नापते रहे,
अब भी कुछ वहीँ खरे है ,
दसको पहले थे जहाँ से चले।
घर ,रास्ते सब वहीँ  पड़े है ,
पर नई जानकारियों ने नये अर्थ गढ़े है।
टकराते चौराहे पर
अब भी मिलते  है ,
पर ये शिक्षित होंठ
बड़े कष्ट से हिलते है।

किन्तु वो निरा मूरखता की बातें ,
जाने क्यों दिल को है अब भी सताते।
वो दिन भी आये जो बस ये ही पढ़े हम
मानव बस मानव नहीं कोई और धर्म। । 

Thursday 16 January 2014

पन्नों में दबी चींख

गर्म हवा जब मचलती है ,
सारे पन्ने फरफरा उठते है। 
एक बार फिर लगता है कि  
जिंदगी ने जैसे आवाज दी। 
हम ढूंढते है ,खोजते है, 
गुम साये को 
आज में तलाशते है। 
ये पन्नों कि फरफराहट 
चींख सा लगता है। 
दबे शिला में  जैसे कोई घुँटता है।  
अक्षरों कि कालिख , 
स्याह सा छा जाता  है।  
धुंधली तस्वीर 
आँखों में कई उतर आता है।  
कितने ही साँसों का ब्यौरा 
बचपन कि किलकारी 
यौवन का सपना 
धड़कते दिल से इंतजार 
शौहर का करना 
बूढ़े नयनों में आभास 
समर्थ कंधो की 
जो छू ले नभ वैसे पंजों की। 
जो धड़कते थे , जाने कैसे रुक गए  
कारवां ख़ुशी के  
बीच सफ़र में ही छूट गए ।   
हर एक की कहानी 
इन पन्नों में सिमटी है ,
एक नहीं अनेकों  
रंग बिरंगे जिल्द में ये लिपटी है। 
सागवान के मोटे फ्रेमों में 
पारदर्शी शीशे के पीछे 
किसी कि साफगोई, 
या किसी चाटुकारिता कि किस्सागोई ,
न  जाने कितनी अलमारियाँ 
सजी-सजी सी पड़ी है। 
प्रगति और विचारवानो के बीच 
ड्राइंग रूम कि शोभा गढ़ी है। 
किन्तु बीच -बीच में 
न जाने कैसी हवा चलती है ,
इन आयोगों के रिपोर्ट में दबी 
आत्मा कहर उठती है। 
वो चीखतीं है ,चिल्लाती है ,
काश कुछ तो ऐसा करो  
की  इन पन्नों को 
रंगने कि जरुरत न पड़े। 
हम तो इन पन्नों में दबकर 
जिसके कारण अब तक मर रहे ,
उन कारणों से कोई 
अब न मरें। ।

Monday 13 January 2014

संक्रांति का संक्रमण


कर्म में लीन 
पथ पर तल्लीन 
रवि के चक्र से बस इतना समझा 
दक्षिणायण  से  उत्तरायण में
प्रवेश कि बस  है महत्ता। । 

ग्रहों के कुचक्र हमसे ओझल  
जो उसे बाधित नहीं कर पाता  
मास दर मास न विचलित हो 
पुनः धरा में नव ऊर्जा का  
तब संचार है कर पाता। । 

हम उस प्रयास को 
भरपूर मान देते है 
लोहड़ी ,खिचड़ी ,पोंगल मना  
इस संक्रमण को 
किसी न किसी रूप में सम्मान देते है। । 

बिंदु और जगहवार
उसकी पहचान करते है  
बेवसी और ख़ामोशी से  
कल्पित हाथ हर पल   
जहाँ उठते और गिरते है।। 

कि आज का ये दिन 
पिछले मासों के कालिख भरी पसीनो को 
आज का स्नान धो देगा 
ये कटोरी में गिरते तिल के लड्डू 
इस आह में ख़ुशी भर देगा। । 

चलो संक्रांति के इस संक्रमण को 
इस विचार से मुक्त करे 
हाथ उठे न कि उसमे 
हम कुछ दान करे 
सतत प्रयास हो जो मानव सम्मान करें। ।

(सभी को मकर संक्रांति कि हार्दिक शुभकामना )

Wednesday 1 January 2014

नव वर्ष सबको मंगलमय हो।

नव वर्ष सबको मंगलमय हो

काल चक्र के  नियत क्रम में,
समां गए गत वर्ष अनंत  में,
क्या खोया क्या पाया हमने,
करे विवेचन स्व के मन में। ।

नए ओज उत्साह का भान कर,
स्व से विमुक्त हम का मान कर,
सम्पूर्ण धरा सुख से हो संवर्धित,
मनुज सकल को हो सब अर्पित। ।

घृणा ,क्रोध,सब असुर प्रवृति,
दिन-हिन् दारिद्र्य सी वृति,
बीते काल समाये गर्त में,
न हो छाया इसकी नव वर्ष में। ।

मंगल मन मंगल सी भावें,
ह्रदय मनोरथ और जो लावें,
कृपा दृष्टि सदा नभ से बरसे,
   न कोई वंचित उत्कर्ष मन हर्षे। । 

कटु सत्य यथार्थ भी कुछ है, 
नागफनी, कहीं चन्दन वृक्ष है ,
पर जिजीविषा हर जगह अटल है ,
घना तिमिर अरुणोदय पल है। । 

यश अपशय से ऊपर उठकर ,
सहज भाव आत्म सुख से भरकर, 
नव आलोक मुदित सब मन हो 
नव वर्ष सबको मंगलमय हो। । 

Monday 23 December 2013

तन्द्रा

कुछ-कुछ हवा सख्त थी 
बेचैन अनगिनत कुंठाओ से 
तन्द्रा टूट सी गई ,
मूक जिव्हाओ ने 
चोंगाओ से गठबंधन कर 
हाहाकार चहुँ ओर व्याप्त किया ,  
खरखराते पत्तियां टूट-टूट 
जलने को एक जगह इक्कठ्ठा हो आये , 
ओह अब ये जल पड़ेगा 
कोठीओ के झरोखों तक 
इसका ताप पहुचेगा ,
बड़े सूखे-सूखे से है ये पड़े 
चिंगारिओ को और क्या हवा देगा। 

गीले हरे लट -पट अधर 
नजर में श्रृंगाल सा सगल ,
क्या सपनो का बाज़ार 
थम सा गया है 
टूटी क्यों तन्द्रा आज 
कही कुछ कम सा गया है ,
सपनो को हकीकत से क्या लेना ,
क्या है इनका जो पाना चाहे 
सब छोड़ ये जलना चाहे ,
अब और सब्र न कराना है 
कोई नया ख्वाब दिखाना है।  

चलो एक बौछार छोड़ो 
गर्म संताप पे कुछ ठंडक घोलो ,
पत्तिया लड़खड़ाती -खड़खड़ाती 
कुछ नर्म झोंका से फरफराया 
उष्ण मन में कुछ शीत का झोंका पाया ,
पुनः तन्द्रा सा सबपे छाया है 
सब बदल गया ऐसा ही माहौल बनाया है ,
जब तक ये ठंडक है 
बैचैन होने का कोई कारण नहीं ,
तंद्रा फिर से छाने लगा है 
जगे-जगे से सोये 
फिर सब नजर आने लगा है। । 

Wednesday 11 December 2013

हर्षित पद रचाऊंगा

जिन छंदो में पीड़ा झलके,
शोक जनित भावार्थ ही छलके
वैसे युग्म समूहो में
मैं शब्दो को न ढालूँगा
त्रस्त भाव को अनुभव कर भी
हर्षित पद रचाऊंगा । ।

सुख-दुःख का मिश्रण जब जीवन
यह यथार्थ नहीं कोई कोई भ्रम
तब क्यों आखर को व्यर्थ कर
बुधत्व भाव बनाऊंगा
त्रस्त भाव को अनुभव कर भी
हर्षित पद रचाऊंगा । ।

समर भूमि के इस प्रांगण में 
कर्म डोर थामे बस मन में 
गीता भाव सदा बस गूंजे 
क्यों अर्जुन क्लेश जगाऊंगा  
त्रस्त भाव को अनुभव कर भी
हर्षित पद रचाऊंगा । ।

छल ,फरेब ,धोखा की  बाते 
ठोखर खाकर छूटती सांथे 
मेरे पंक्ति में न छाये 
बस हाथ मदद में उठते को सजाऊंगा  
त्रस्त भाव को अनुभव कर भी
हर्षित पद रचाऊंगा । ।

Saturday 7 December 2013

भ्रम



कितने विश्वास .... 
अति विश्वास ? के भवर में ,
डूबते और निकलते है ,
कि तैर कर बस हमने पार कर लिया ,
इस प्रकृति पे अपना 
अधिकार कर लिया। 
और देखो वो बैठ कर 
मुस्कुराता है..... 
कहकहा शायद नहीं ,
क्योंकि अपनी रचना पर 
कभी-कभी........ 
हाँ कभी-कभी शायद पछताता है, 
कि हमने क्या बनाया था 
आज ये क्या बन गए है। 
जितने भी आकृति उकेडी है ,
सब एक ही नाम से, 
अब तक जाने जाते है। 
पर ये इंसान  जाने क्यों ?
सिर्फ हिन्दू-मुसलमां ही कहाँ ,
न जाने कितने सम्प्रदायों में 
खुद को बांटते चले जाते है। 
भ्रम के जाल में ,
उलझे दोनों परे है अब। 
रचना खुद को रचनाकार समझ बैठा ,
और जिसने  सींचे  है इतने रंग
वो सोचता हरदम  
कब फिसली मेरी कूची 
कि ये हो गया बदरंग। ।

Wednesday 4 December 2013

तिनके का जोश


वक्त की आंधी उठती देख 
तिनको में था जोश भड़ा ,
अबकी हम न चूकेंगे 
है छूना आकाश जरा। 
दबे-दबे इन वियावान 
कब तक ऐसे रहे पड़े ,
चूस गए जो रस धरा का 
देखे कैसे अब  वो इसे सहे।  
हलके -हलके झोंकों ने 
जब भी हमको पुचकारा ,
ऊँचे दीवारो से टकराकर 
पाया खुद को वहीँ पड़ा।  
है सबका एक दिन यहाँ 
ऐसा हम तो सुनते है ,
पाश ह्रदय के नयन में हमको 
आज अश्रु से दिखते है। 
ओह देखो अब आन पड़ा है 
है बिलकुल ही पास खड़ा ,
इन झंझावात के वायुयान से 
देखूं अब  नया आसमान जरा। । 

Thursday 31 October 2013

द्वन्द

नजर अधखुली सी 
ख्वाव अधूरे से 
आसमान कि गहराई पे पर्दा 
बादल झुके झुके से। 
अविरल धार समुद्र उन्मुख 
पूर्ण को जाने कैसे भरता। 
एहसास सुख का या 
सुख क्या? एहसास कि कोशिश।  
हर वक्त एक द्वन्द 
किसी और से नहीं 
खुद से खुद का तकरार। 
नियत काल कि गति 
फिर क्यों नहीं कदम का तालमेल। 
जो है उसे थामे,सहेज ले 
या कुछ बचा ले जगह 
जो न मिला उसकी खोज में। 
हर रोज जारी है 
अधूरे को भरने कि  
और भरे हुए को हटाकर 
नए जगह बनाने का द्वन्द । ।