हम चिंतित नहीं होते, ये कुछ अक्षरों के ज्ञान का सगल है कि बहुत अनुत्पादक होने के बाद भी हम कुछ ऐसा सोचने को विवश होते है जिसका सरोकार जितना हमसे होता है उतना ही समाज से। बहुउदेशिय सरोकार की धार जब एकल सम्मुख बहने लगे और सहयोगी धार का रुख मुड़ जाए या आप ये समझिए की एकांगी राह की और उन्मुख होने लगे तो स्वयं का अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह लगा ही देती है । अपने मुख्य धारा की बहाव को भी उसी मात्रा में प्रभावित करती है। उसके शुष्क होते भाव अगर बैचैनी की छाया से ग्रसित नहीं कर रहा है तो भविष्य के अंधकार को भांपने में हम सक्षम नहीं हो पा रहे है।
वर्तमान हमेशा से भूत और भविष्य के अन्तर्विरोधों से द्वन्द करता आया है। सभ्यता का विकास जिस काल चक्र की धुरी पर अग्रसर है वह उसका आदि और अंत वैचारिक सभ्यता के उदय के साथ से ही विवादस्पद भविष्य की रुपरेखा तय करता आया है। या फिर इस मतैक्य के साथ एक सीधी रेखा के समुख्ख गमनशील विचार आखिर कैसे वस्तुनिष्ठ होकर भावनाओ की अहमियत दरकिनार कर श्याम गुफा की अग्रसर होता जा रहा है।
यह भी अहम है कि आखिर भविष्य जब भावरहित हो संबंधों के बीच बंधनों को ढूंढने का प्रयास करे तो एक घर की छत से लटक रहे पंखे दीवारों की सोभा बढ़ाते कलात्मक रौशनी के बल्व या ड्राइंग रूम की सोभा बढ़ाते खूबसूरत कुर्सी और गद्देदार सोफे का संबंध उस घर से जितना सरोकार रखता है । इंसानी सरोकार भी उतने में सिमट कर कही रह न जाए।
कितना विरोधभास है कि सभ्यता के चरम की ओर गमनशील समाज जब विज्ञानं के सतत विकास के साथ सुख सुविधाओं के नए आयाम को ढूंढ रहा है । वही दूसरी और इंसान इंसानी चेतना के नित्य विकृत होते जा रहे चेहरे से आए दिन रु आबरू होता आ रहा है। इस सिमटते दुनिया में जब भाव और विचार जिसकी कोई वैज्ञानिक आयाम में इकाई नहीं है बढ़ती दुरियो का निर्धारण आखिर कैसे किया जाय? वर्तमान की अटखेलियां कई कर्कश ध्वनियों का उत्सर्जन कर रही है उस शोर को ख़ारिज कर आखिर हम कौन सा राह तय करना चाहते है? या फिर आत्मकेंद्रित भाव जहाँ स्व का निर्धारण भी असमंजस की स्थिति पैदा कर रहा है वहां समुच्चय बोध का निर्धारण भी आखिर किस प्रकार से किया जाय ? पारस्परिक सहयोग और प्रेम का जितना सरोकार वैश्विक स्तर पर किये जाने का प्रयास हो रहा है, उतने ही स्तरों पर एकांगी चेष्टा की धार यह प्रदर्शित कर रहा है कि बुनियादी स्तर पर भावो का विरूपण ऐसा हो गया है कि सामूहिक रूप से भविष्य का क्रन्दन कौन सुनेगा इसका सरोकार अब मतलब की बात नहीं है।
फिर बिडम्बना तो ये भी है कि हम इकाइयों में जन्म से बटना शुरू हो जाते है। परिवार की इकाई, समाज की इकाई, नगर की इकाई, जिले की इकाई, राज्य की इकाई और फिर देश होते हुए विश्व की इकाई। इन मध्य में पड़ने वाले वैश्विक स्तर पर छितराये जाती, धर्म, सेक्ट इत्यादि को आप छोड़ भी दे तो। अर्थात विकास के क्रम में बटते इकाई जब बाटते बाटते इस स्तर पर आ जाए जहाँ अस्तित्व की तलाश का प्रयास होने लगे फिर भविष्य पर नजर लगाना जरूरी हो जाता है।
वर्तमान के वैज्ञानिक रोबोट में भी भाव और संवेदना के संचार में अध्ययनरत है और इंसान में जैसे ये गुण शुष्क होता जा रहा है। भाव भंगिमाओं के नए नए आवरण चढ़ा जब हम एक दूसरे से ही अजनबी सा व्यवहार करने लग रहे है।समझ की अवधारणा बदलती जा रही हो फिर समझना तो दुःसकर होगा ही। फिर ये भी समझना होगा की आखिर हम समझना क्या चाहते है? क्या मत मतान्तर के नाम पर स्वजन निर्मूल का भाव धरा जाय या सर्वश्रेष्ठ की नस्ल की स्थापना के लिए अन्य का निर्बाध आघात किया जाय अपनी समकालीन श्रेष्ठता को स्थापित करने के लिए प्रतिरोधी भाव धर भूतकाल की भांति पलभर में एक समूह और स्थान को संज्ञा शून्य कर दिया जाय?
वर्तमान इन रोगों से ग्रस्त है चाहे वो किसी भी इकाई और स्तर पर हो। मानवीय मष्तिष्क के इन संवेदनात्मक तंतुओ का जिस प्रकार से क्रमिक क्षय हो रहा है। वहां आने वाली पीढ़ी उसको ढूंढने का सिर्फ प्रयास ही करता रहेगा बाकी समाज,धर्म,देश-राष्ट्र कही अपने होने के निहतार्थ पर स्वयं से प्रश्न करता हुआ किसी जीवाश्म की तरह परिवतिर्त हो सिसकियाँ बहा रही होगी।