Thursday 28 November 2013

कुछ पंक्तियाँ यूँ ही ......

सुख से ख़ुशी है या ख़ुशी से सुख
इस जीवन में किसकी हो भूख  । 

आधार एक दूजे से ऐसे है मिलते
रेत पे लकीर जैसे बनते - मिटते।

खुशियां जीवित मन का उमंग
सुख बनते वस्तु निर्जीव के संग। 

कदम-दर-कदम दोनों की  आस
उठती है मन में दोनों कि प्यास। 

इस मरीचिका को कैसे है समझे 
मन कि तरंग यतवत भटके। । 

Thursday 31 October 2013

द्वन्द

नजर अधखुली सी 
ख्वाव अधूरे से 
आसमान कि गहराई पे पर्दा 
बादल झुके झुके से। 
अविरल धार समुद्र उन्मुख 
पूर्ण को जाने कैसे भरता। 
एहसास सुख का या 
सुख क्या? एहसास कि कोशिश।  
हर वक्त एक द्वन्द 
किसी और से नहीं 
खुद से खुद का तकरार। 
नियत काल कि गति 
फिर क्यों नहीं कदम का तालमेल। 
जो है उसे थामे,सहेज ले 
या कुछ बचा ले जगह 
जो न मिला उसकी खोज में। 
हर रोज जारी है 
अधूरे को भरने कि  
और भरे हुए को हटाकर 
नए जगह बनाने का द्वन्द । । 

Saturday 26 October 2013

लक्ष्य


ह्रदय व्यथित चित्त अधीर
मुख  मलिन शांत क्यों ?
दृष्टि यूँ झुंकी -झुंकी
नयन ज्योति क्लांत क्यों ?
अर्थ शब्द नित-नियत  ,
भाव  क्यों बदल रहे  ?
अथाह मन जो धीर था,
सिर्फ बातों से  उथल रहे  ?
हताश  पस्त अस्त-व्यस्त
जाने क्यों डिग रहे। 
लहर के  हर प्रहार सा
कदम कदम पर झुक रहे। । 
किससे ये द्वन्द है
         किसपर विजय गुमान है,
      धरा नीर जब रक्त-पथ
              तब कहाँ अतृप्त निदान है ?
खुद से  है छल रहे,
  जाने क्यों मचल रहे 
                मस्तष्क मणि अहिन्ह* चाह 
            गरल सिक्त मन कर रहे। 
       दम्भ-दंड पर जब खड़े  
       ऊंचाई का कहाँ भान हो 
       असीम तृष्णा वेग प्रवाह 
                  वेद सूक्त कैसे न निष्प्राण हो।। 
जब प्रलय थी अथाह
गति न थम पाई तब 
मनुज अंश एक यगुल
असंख्य रूप प्रकट अब। 
एक काया एक तब 
असंख्य कोशिका मेल सब। 
शूल का कही प्रहार 
असहय वेदना कहीं उभार। 
मनुज मन समग्र हो 
इतना न व्यग्र  हो 
देव अंश सब धरा पे 
पल कुचक्र पर न अधीर हो। । 
            कृपणता बस त्याग हो 
            ह्रदय शक्ति संचार हो 
    शूरवीर वंशजो में 
          बस मनुजता वास हो  
तरकशें है पड़ी 
       सब वाण से है  भरीं 
      थपेड़ो से मन उभार 
        कर प्रत्यंचा से श्रृंगार 
    मन से बस एक हो 
   नहीं कोई संदेह हो 
         शत्रु दंभ ,विचार अधर्म 
       सभी लक्ष्य भेद हो।।  
*सर्प           

Monday 14 October 2013

मन का आँगन

जीवन में पाने की भाग दौड़ 
या दौड़ते हुए जीवन खोने की होड़  
पता नहीं क्या ,
आज कुछ वक्त निकल आया 
जाने कैसे ,
वक्त का मै या फिर मेरा वक्त ,
दो पल चैन से गुजारूं।  
अपने मन के आँगन में 
कुछ वक्त आज मै इसको निहारूं।   
झाँका जो धीरे से 
मन के झरोखे में ,
धुंधली परत जाने क्या 
भर आया था उस कोने में। 
मटमैले  रंगों का ढेर था जमा 
कबसे न देखा उसका था निशाँ। 
खर पतवार जाने कैसे कब घुस आये थे 
इस दौड़ में कब मन से लिपट समाये थे। 
कभी इसको माँ -बाबूजी ने 
करीने से सजाया था ,
वक्त के साथ इस आँगन में झांकना 
ये भी बताया था। 
किन्तु आपा-धापी में 
ये सब छुट गया , 
इसकी स्वच्छता का ध्यान 
खुद में रखना भूल गया। 
इस गंदगी के छीटें 
सफलता से बेशक न डिगाते  है , 
औरों की बात क्या अपनों के ही नजर में  
शायद गर्त तक गिरातें है।  
सबसे पहले बैठ कर  
अब इस को बुहारुङ्गा ,
शीतल विचारो से सींच 
उसे और निखारुंगा। 
शरीर  के साथ-साथ 
मन भी स्वच्छ साफ़ रहे
समय गुजरे अपने रफ़्तार से 
इसमें झांकना निर्बाध रहे। ।  

Sunday 13 October 2013

रावण दहन


                
 स्वधर्म का बोध नहीं रहा 
बिंबों  पर कुंठा निकालते है 
कितने चिंगारी भरकाने वाले 
दशानन पर तीर चलाते है।  
पुरातन को ढोते आये  
वर्तमान को खोते जाते है 
अपने ग्रह का ध्यान नहीं 
नव ग्रह की चिंता जताते है।  
मौके की तलाश है बस 
छद्म भेष में मारीच छाये है
जलते दशानन हर वर्ष की भांति 
फिर खुद के हाथ जलने आये है। । 

------मंगलकामना एवं विजयादशमी की
 हार्दिक शुभकामनाओं सहित--------------