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Wednesday 28 August 2013

शुभ-जन्माष्टमी

आप सभी को जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामना 


अब आडम्बर कोई नहीं,सब तेरा प्रभु इंतजार करे ,
कुछ शुक्ल नहीं दिखता बस चारो ओर अज्ञान भरे। 

कल्कि का कालिख उड़ रहा सब ओर तम  अँधेरा है,
भीग रहे कितने नयने यहाँ छाया अँधियारा गहरा  है। 

कर्तव्य का कोई मोल नहीं मोह ने सबको लीला है, 
गीता ज्ञान की बाते सिर्फ टकराती मंदिर शिला है। 

जो लाँघ चले मंदिरशाला तेरे विकृत गुणगान करे 
चौसंठ कला नहीं कोई बस रसिया कह सम्मान करे। 
  
इस बार फिर तू आएगा हम मधुर धुन पर नाचेंगे
कितने ही बिकल विलापो को बस कुछ पल ही  ढाकेंगे। 

अबकि आकर मुरली मनोहर कुछ ऐसा चक्र चला देना 
शिश अलग अज्ञान का कर पुनः ज्ञान रवि फैला देना। 

Monday 26 August 2013

मै सिर्फ मै हूँ

सफ़र कितना कर लिया 
शून्य से निकला ,भंवर में बिखरा 
कितने अणुओं -परमाणुओं के 
आकर्षण और विकर्षण से ठिठका 
तरल हो कब तक था उबला 
जैसे किसी संताप से निकला  
फिर भी चलता रहा अब तक 
अबाधित ,कुछ प्रायोजित 
जाने किस महाहेतु से।
शून्य के द्वार से ,
महा प्रलय के प्रहार तक। 
है सभी का कुछ न कुछ मुझमे 
सींचा है पञ्च तत्व पग में 
मन का पाया विस्तार अनंत 
न किंचित दूर छिटके कोई भी कण 
अबाधित ,कुछ प्रायोजित 
एकात्म के ही महाहेतु से।
किन्तू अब इस पड़ाव पर 
निरुदेश्य सा बेचैन,दिग्भ्रमित 
सत तत्व का सब  अक्स  धुल रहा जैसे  
रह गया बस राख का रज जैसे  
थी  मुझमे असीम आकांक्षा 
और था सामर्थ्य भी 
अनंत व्योम को खुद में समाहित 
या हो जाऊ उसमे विलीन।
प्रकाश पुंज अब छिटकता जैसे  
महाउद्देश्य से भटक गया , 
"हम" है अब भी  कितना दूर मुझसे 
"मै" सिर्फ "मै" हूँ ,में  रह गया। । 

Sunday 25 August 2013

पुनरावृती ...?

समंदर के किनारे ,
रेत पर बनती आकृतिया ,
कैसे लहरों के संग विलीन होकर
सागर में समां जाती है।
वो उकेरता है फिर भी,
कुछ रंग भरने की चाहत समेट नहीं पाता ,
है अन्जान नहीं की ,
लहरे फिर से आनी है ,इसको समां जाना है।
कितना अजीब है पर
हम इसको ही दोहराते है। ।

जो आया है खुशी  में उसके ,
और जो चला गया ,
दुःख में अहसास कर,
बरबस चेहरे पर निकल छा जाते।
ये आंसू है खारे ,सभी जानते है ,
पर  मोह  जिसे नित मानते है।
बरगद का जड़ जैसा मन,
कितना भी तोड़ो मोह से जुड़ जाते ।
कितना अजीब है पर
हम इसको ही दोहराते है। ।

कमबख्त दिनों-दिन तक उलझे रहे ,
न बुझने पाए रसोई की ताप।
ठन्डे हो जाने पर भी ,
 इन उष्ण लपटों की चाहत से ,
खुद को बचा पाते नहीं।
सब सामने है ,सब कुछ दीखता है,
रोज वही लहरों का उठाना,
और एक नई  इबारत  की कोशिश और टूटना।
कितना अजीब है पर
हम इसको ही दोहराते है। ।

स्वर्ग-नरक

                                                                                                                                                                                   (चित्र :गूगल साभार )


एक रोज सुबह -सुबह दरबार में,लाल-पीले यमराज ,
बोले अबतक क्यों नहीं आया,  चित्रगुप्त महराज।।

उनको बोलो जाकर जल्दी,सभी बही खता ले आएगा,
पृथ्वी लोकआयोग का फाइल जल्द यहाँ भेजवायेगा।।

कुछ दिनों से देख रहा हु, कुछ तो गड़बड़झाला है,
यमलोक के कामो पर अब  उगली उठने वाला है। । 

जिसने जो भी कर्म किये है वैसा ही उपदान करो ,
जैसे भी हो लंबित मामले जल्दी से निपटान करो।।

तब तक भागे-भागे पहुचे वहा चित्रगुप्त महराज,
भाव-भंगिमा चिंतित मुद्रा, बोले जय महराज।।

 बोले जय महराज गजब क्या अब घटना बोलू ,
नहीं मिल रहे फ़ाइल् अब क्या मुह मै खोलू।।

समझ कुछ नहीं आ रहा कैसे ये सब हो गया ,
मानव लोकआयोग का फ़ाइल् ही केवल खो गया।। 

थी नामे कई बड़ी मानव, जिस पर था इल्जाम बड़ा ,
कैसे उसने सेंध लगाया द्वारपाल था जब खड़ा ।।

लगता है लंबित मानव ने कोई नई  युक्ति लगाया 
दीमक से साठ-गांठ या द्वारपाल रिश्वत से मिलाया। ।  

यमराज की चडी त्योंरिया ,गरजे तब भरे  दरबार ,
कोई केस न लो मानव का लिख भेजो ब्रह्म के द्वार। 

पृथ्वी लोक के बाकी जीवात्मा वैसे ही चलेगा, 
मानव को करो वर्जित तब यमलोक बचेगा। । 

पृथ्वी लोक के आत्मा भी अब स्वक्छ नहीं रह पाता 
दूषित हवा पानी सब लेकर यहाँ संक्रमण फैलता।।

जिसका जो है कर्म का लेखा ,ब्रह्मा को सब भेजवाओ,
ले-लो साथ महेश का गण और वही सजा दिलवाओ। ।  

तब विश्वकर्मा ने  पृथ्वी पर ही  दोनों रूप बनाया , 
मानव अपने कर्मो का फल तब से यही है  पाया।।

Friday 23 August 2013

जीवन में कविता है और कविता में जीवन।।

                                                                                                                                                                              (चित्र :गूगल साभार )
जीवन की गति कुछ-कुछ यूँ बढती है,
जैसे कोई स्याही कागद पे चलती है। 
क्षण-क्षण अक्षरों का मिलता है जैसे,
पलों का  रूप शब्दों में ढलता  है वैसे।
हर कोई कुछ अर्थ गढ़ना चाहता है ,
कुछ क्षण, पल भी ठहरना चाहता है। 
कौमा ,अर्ध कौमा जैसे ठहर पड़ता है ,
पंक्तिया धर रूप निखर चलता है। 
बढ़ते हुए पर  दोनों भावों में है  मन ,
जीवन में कविता है या कविता में जीवन।।

छंद ,मात्र ,अर्ध बिंदु पर नजर है गड़ाए,
अटक-अटक कर पर नीव बढती ही जाये। 
अलंकारो की चाहत उलझती है जब-जब ,
चौराहों में कही खड़े पाते है तब -तब। 
जिनको मिला भाव संवरकर वो आगे,
जीवन के सुर में है खूब  गोते लगाते।
बढ़ते हुए पर  दोनों भावों में है  मन ,
जीवन में कविता है या कविता में जीवन।।

कोई मुक्तक है छेड़े,उन्मुक्त ही बड़ा है  ,
ढूंडता सार उसमे ,बस कोई अर्थ गढ़ा है। 
नागफनी के भी श्रृंगार कोई कर है बढता,
कोई खुसबू में उलझ कर ही रहता। 
जीवन क्या सोच-सोच कर है गढ़ते ,
या गढ़-गढ़ कर सदा सोचते है रहते ? 
बढ़ते हुए पर  दोनों भावों में है  मन ,
जीवन में कविता है या कविता में जीवन।।

ॐ नाद जीवन, जब श्रृष्टि ने पुकारा , 
ऋचा वेद कविता की संग बही धारा।  
जीवन में कविता जैसे सरिता में नीर ,
कविता में जीवन भड़े  भाव गंभीर। 
मधुकर ये जीवन जब कवित्व घुलते है,
काया बिन आत्मा, नहीं तो ये दिखते है। 
है पूरक ये दोनों, जीवन आकृति उकेड़ा ,
कविता ने भर-रंग ,जीवन छटा बिखेरा। 
बहते हुए इन भावों में अब कहता है मन ,
जीवन में कविता है और कविता में जीवन।। 

Thursday 22 August 2013

निशा मौन तुम क्यों रहती हो ?

                                                                                     (चित्र :गूगल साभार )
निशा मौन तुम क्यों रहती  हो ?
क्यों भय तुम ऐसे करती हो,
दिनकर से भला लाज हया क्यों,
क्यों तुम दवे पाँव इस आगन
हौले-हौले यु धरती हो। 
निशा मौन तुम क्यों रहती  हो ? 


जब सब कुछ है  एक बराबर,
बाँट रखा है धरा या सागर,
स्नेह मान जब सभी  करते है,
जैसे थक, माँ का आँचल धरते है।
रक्त आवरण धर आते रवि तुझे लेने
क्या उससे ही भय खाती  हो?
निशा मौन तुम क्यों रहती  हो ?

श्याम आवरण रूप भला क्या
कृष्ण की  प्रीत परछाई है,
निशब्द घूँघट ओढ रखी जैसे
रोज आते कन्हाई है।
कोई आहट कंस न आये,
क्या इससे तुम घबराती हो ?  
निशा मौन तुम क्यों रहती  हो ?

किनते जुगनू चमक-चमक ,
तुम पर रीझ कर मिट गए।  
बाह फैलाये अरमानो  के 
तारे कितने टूट गए। 
न जाने किसकी चाहत में ,
ऐसे रोज सिसकती हो ?
निशा मौन तुम क्यों रहती  हो ?
                                                                                                             

Wednesday 14 August 2013

आजादी की वर्षगांठ में नये प्रण अपनाते है

आजादी की वर्षगांठ में नए प्रण अपनाते है

सपने पुरे बेशक न हो ,कुछ कमियां रह जाती है 
दीपक दिया उजाला करती कालिख में घीर जाती है।
पुरखो ने जो  सोचा होगा आज वहाँ  न पहुच सके, 
समरसता की नीव हिली है और खड़े प्रश्न गंभीर नए।  
विचारो में अवनति की आपस में है होड़ मची, 
नैतिक मूल्यों का अवमूल्यन जैसे इसका मोल नहीं। 
छिद्रान्वेषी बनकर ढूंढे और बहुत मिल जायेंगे 
कमियां हमको बैठे-बैठे चारो ओर दिख जायेंगे।। 

किन्तु कमियों के ही कारण निराशा में  घिरे नहीं 
उन्नत मस्तक  करने को है और भी बाते कई नई, 
हमने कुछ  दिखाया है, दुनिया हमको मान रही 
हममे सारी छमता है दुनिया ऐसा जान  रही। 
आत्मग्लानी मन में भरकर ऐसे कैसे बैठ गए 
बलिदानों के सारे सपने अभी नहीं है रूठ गए। 
    बेशक मन में अंधियारे का सोच यहाँ पर छाया है, 
      पर न भूले  हर दिन सूरज नया सवेरा लाया है।। 

है हमको भी प्रेम देश का ऐसा हम दिखला देंगे 
कुछ हुई हो भूल अगर तो उसको अब सुलझा देंगे। 
गौरव सबके मन में जागे ,सबको अब समझाना है 
देश है मेरा सबसे ऊपर ऐसा अलख जगाना है। 
 दिल पे जो भी गर्द पड़े है झोंका में उड़ाना है ,
सुप्त पड़े शिराओ में आज, चिंगारी धधकाना है।   
हर्षित मन से आओ हमसब  उत्सव ये  मनाते  है, 
आजादी की वर्षगांठ में नये प्रण अपनाते है।।

Saturday 10 August 2013

हलचल अगस्त ' ४७


     ये सावन यु ही बरस रहा होगा 
       हाथो में तिरंगे भींग कर भी
   जकडन से निकलने की आहट में   
      शान से फरफरा रहा होगा।। 
            थके पैर लथपथ से  
         जोश से दिल भरा होगा 
           बस लक्ष्य पाने को
        नजर बेताब सा होगा।।


            क्या अरमान बसे होंगे 
           नयी सुबहो के आने पर 
      फिरंगी दास्ताँ से निकलने की      
        वो अंतिम सुगबुगाहट पर। । 
         जो तरुवर रक्त में  सिंची 
           अब लहलहा रहे होंगे
 लालकिले से गाँवों के खेत खलिहानों में
 सभी धुन भारती के गुनगुना रहे होंगे। ।  


          फिरंगी की दिया बस
          टिमटिमा रही होगी 
           वो बुझने ने पहले 
      कुछ तिलमिला रही होगी।।
         वो जकड बेड़ियो की
      कुछ-कुछ दरक रहा  होगा
       खुशी से मन -जन पागल
  मृदंग पे मस्त हो झूमता होगा।


          नयी भोर के दीदार को
    नयन  अपलक थामे रहे होंगे
  बीती अनगिनित काली रातो को
         हर्ष से बस भूलते होंगे।   
      जब ये माह  आजादी का 
        युहीं हर साल आता है 
     क्या रही होगी तब हलचल 
   पता नहीं क्यों ख्याल आता है।।      

Thursday 8 August 2013

शहादत मुद्दे में कही खो जाते ।

सब उठाते इसे अपने अंदाज में ,
हर किसी को फ़िक्र करना आता है ,
हुतात्मा 
आवेश में विषरहित आवेशित हो कर
चहू ओर अपनों पर फुफकारना आता है ।

फ़िक्र अपने-अपने सियासती रोजी-रोटी की
बटखरा ले विचारों का,तौलने में उलझे पड़े,
शरहदों पे बिखरे लाश को किस पाले में रखे
की नाकामियों का भार कही और पड़े ।

है लोहा गरम अभी चोट कर लेने दो
जवानों को जो खोया कुछ तो मोल लेने दो ,
हम इस पाले  में हो या उस पाले में,
हमें अपनी नजर से दर्द  देख लेने दो।

जाने कौन किसके दर्द को महसूस करता है,
उन माँ का जिसने खोया जिगर  का टुकरा ,
या चंद नीति के नियंता जिनके खद्दर पर लगा ,
चोटित अस्मिता की मवाद का धब्बा ।

उलझती नीतिया  चित्र : गूगल साभार
बहते हुए लहू किसकी प्यास बुझाती है
कुछ अपने भी है जो इसे पानी समझते है,
नाकामियों को कफ़न से ढकते ही आये
धब्बा नहीं बस लिपटे तिरंगो में शान देखते है।

दुश्मनों से दोस्ती की आश में यहाँ
खंजर खाने को बहादुरी माने बैठे ,
चमक धार की कुछ तो दिखाना लाजिम है ,
की कांपते हाथ से अमन की कामना वो भी करे।

ये शरहद पे खड़े नौजवान वीर बेचारे,
देश के अरमानो का बोझ संभाले ,
उफ़ न करते बंधे इक्छा पर कुर्बान हो जाते ,
किन्तु हर बार इनकी शहादत मुद्दे में कही खो जाते। ।

Monday 15 July 2013

जीवन क्या.................?

जीवन  क्या ............... ?
पुष्प की अभिलाषा है,
या रस से भरी मधुशाला है,
खिली गुलाब की पंखुरियां है,
या काँटों से भरी पुष्प की डलियाँ है।।

जीवन  क्या ................... ?
शांतनु का प्रेम- प्रलोभ है,
या भीष्म का राज निर्लोभ है,
कृष्ण का निष्काम कर्म योग है,
या अर्जुन का मोह संशय वियोग है।।

जीवन क्या  ...................?
एकलव्य से गुरु के दक्षिणा याचना है,
या द्रोणाचार्य की शिष्य से संवेदना है ,
दुर्योधन की भार्त्र कपट लीला है
या लांछित कर्ण की दानशीला  है।।  
   
 जीवन क्या  ...................?
उत्तरा की नींद का आगोश है,
या अभिमन्यु का चक्रब्यूह प्रवेश है,
ध्रितराष्ट्र का अंध-पुत्र मोह है,
या युधिष्ठिर का अर्ध-सत्य संयोग है।।

जीवन क्या ...................... ?
कैकई की त्रिया-हठ कोप भवन वास है,
या पुरुषोत्तम राम का त्याग बनवास है ,
कामुक इंद्र की छल-प्रपंच लीला है,
या गौतम शापित अहिल्या की शीला है।।

जीवन क्या .......................... ?
हजारो तारो का  अकुलित प्रकाश है, 
या उद्योदित रवि का अट्टहास है ,
चाँद की शीतलता का मधुर पान है, 
या अग्नि की तीब्रता का विषद ज्ञान है।।

जीवन क्या ......................... ?
खुशियों का ज्वार है,
या गम की तरल धार है,
आकंछाओ की अभिव्यक्ति है,
या मृगतृष्णा से खुद की मुक्ति है।।

जीवन क्या  ........................?

Sunday 14 July 2013

फुटपाथ

नीचे जिन कंक्रीट के रास्ते पर 
दौड़ती सरपट सी गाडिया 
शायद  उनपर  चलते बड़े लोग ।   
पर ऊपर भी साथ लगा 
है कुछ का आशियाना 
संभवतः समय से ठुकराए लोग।
पेट की भाग दौड़ में 
कारो और  सवारियो की रेलम पेल में 
दिन के भीड़  में गुम  हो जाते है।
आहिस्ता-आहिस्ता सूरज खामोशी की ओर 
चका चौंध और आशियाना जगमग
कुछ कुछ रुकती रफ़्तार है ।
पसीना में भींगी दो जून की रोटी 
हलक में उतारा है गुदरी बिछा दी 
पसर गए भूल कर आज,कल के लिए।
पहुचने के वेग मन के आवेग में 
न खुद पे यकी, होश है नहीं कही
रास्ते  को छोड़ा और जा टकराया है।
नींद में ही चल दिए,कुछ समझ भी न पाया 
फुटपाथ पर ऐसे ही  जिन्दगी मौत पाया है।
आज सब कुछ कल सा ही वही दौड़ती गाड़ी
बस पसरे हुए गुदरी का रंग बदल गया है ।। 

Wednesday 10 July 2013

आज का सच ही बन्दन है

ब्यग्र मन कल की फिकर में 
आज को ही भूल गया, 
उज्वलित प्रकाश है चहु ओर फिर भी 
सांध्य तिमिर ने घर किया।।
धड़क रहा दिल  बार -बार पर 
वो स्वर संगीत न सुन सका 
कब तलक  छेड़ेगी सरगम 
फिक्र में ही बड़ता  चला।।
है बड़ी दिल में तम्मान्ना 
बौराई बादल बरसे यहाँ, 
जब चली रिमझिम फुहारे 
सर पे पहरा दूंडता फिर रहा।।  
स्वप्न में पाने की चाहत 
है नहीं किसके दिल में 
पर नींद में भी रुक न पाया  
पहली किरण की चाहत में।।
अर्थ पाने की चाहत,
खुशियो की जो मंजिले,
अर्थ का अनर्थ करते 
जब सब कुछ इससे तौलते ।।
कल तो कल था , आयेगा कल,
कल को किसने देखा है।
आज की ही दिन है बस, 
जो जिन्दगी की रेखा है।
फितरते अनजाने पल की 
है मचलती धार सी, 
तोड़ दे बंधन कब तट का 
और बह जाये जिन्दगी।।
आज खुशियों का झरना 
आज ही गिर कर संभालना 
आज ही बस दुख प्लावित 
आज ही अमृत का बहना 
आज ही दुश्मनों का वार 
आज ही दोस्तों का ढाल 
आज  का रज ही चन्दन है  
आज का सच ही बन्दन है ।।

Sunday 16 June 2013

मंजिल की निशां नहीं बस दिल में आशाये है

क्या पाना हमें जिन राहों पर कदम बढते आये है? 
मंजिल की निशां नहीं बस दिल में आशाये है। 
न दीखता कोई दूर तलक मेरे आगे ,
फिर भी ख्वाब हमने सजाये है।
ये पत्तिया ये दबे दूब सारे ,
कर तो रहे कुछ ये भी इशारे। 
इन्ही पगडंडियो पर कोई तो है गुजरा 
जिनको इन्होंने दिए कुछ सहारे। 
इन्हें देख कर दिल में  रौशनी झिलमिलाये है। 
मंजिल की निशां नहीं बस दिल में आशाये है।।

चले हम कहा से अब कहा जा रहे है ?
उलझते सुलगते बस बड़े जा रहे है।
जिनको सुना मंजील अब मिल गई है, 
इन्ही राहो पे वो भी टकरा रहे है।
दिखा दूर झिलमिल वो मिलता किनारा 
पास आने पे खुद को  वही पा रहे है। 
पर चलने की चाहत नहीं डगमगाए है। 
मंजिल की निशां नहीं बस दिल में आशाये है।। 

ये जीवन है पथ, पथिक हम चले है, 
क्या पाना है मुझको ये द्वन्द लिए है। 
कर्तव्य पथ पर तो बढना ही होगा ,
पर पाना है क्या यहाँ कौन कहेगा ?
कदम दर कदम ख्वाहिश गहराता जाता 
किसी मोड़ पर काश कोई ये बताता।
है उम्मीद पे दुनिया बिश्वास गहराए है।
मंजिल की निशां नहीं बस दिल में आशाये है।। 

Sunday 28 April 2013

मर्दित होते मान बचाये

भ्रमित मन पग पग पर है भ्रम ,
हवा दूषित आचार में संक्रमण ,
क्या घूम चला विलोमित पथ पर 
अब संस्कार का क्रमिक संवर्धन ?

पशु जनित संस्कार कुपोषित ,
सामाजिक द्व्दन्द बिभाजित ,
कानूनों की पतली चादर 
कटी फटी पैबंद सुशोभित।। 
आओ अपना हाथ बढाये 

हाहाकार मचे अब तब ही ,
नर पिशाच जब प्यास बुझाये। 
काली दर काली हो कागद ,
और नक्कारे में भोपू छाये।। 

बंजर चित की बढती माया 
काम लोलुप निर्लज्ज भ्रम साया, 
अविकारो का विशद विमंथन 
गरल मथ रहे गरल आचमन ।।

भेदन सशत्र अविकार काट हो 
शल्य शुनिश्चित चाहे अपना हाथ हो। 
हाथ बड़े अब रुक न पाए 
मर्दित होते मान बचाये ।।  

Sunday 10 February 2013

क्या करे अब वक्त नहीं पास है

कल जो बीत गए आज न कुछ हाथ है ,
ढूंड रहा परछाई पर रोशनी नहीं साथ है।
मजनुओ को जो चाहा उतार दे दरख़्त पर,
चल परा पानी सा अब स्याही सुखी दवात  है।
यही कहते अब न कोई आस है, 
क्या करे अब वक्त नहीं पास  है।।

चेहरे के  धुल  पोछकर देखना जो चाहा है 
पाया की अब आयना खुद को दरकाया है।
उनकी बाते  काँटों से चुभन देती थी
  सुनना चाहा तो हलक न कुछ बुदबुदाया है।
यही कहते अब न कोई आस है ,
क्या करे अब वक्त नहीं पास  है।।

कदम हर  कदम अब खुद से अंजान है,
मुड़ के जो देखा तो न कोई पहचान है। 
साथ भीर में चाहा तलाशे  किसी को,
न मिला सब को किसी और की प्यास  है।
यही कहते अब न कोई आस है, 
क्या करे अब वक्त नहीं पास  है।।

बहती हुई धार के मौजों  को पहचान, 
हवा के झोको से न रह अंजान, 
कोसते हुए जिन्दगी में भी क्या रखा है ?
सूखे पतों को  क्या वर्षा से आसरा  है ?
यही न कहते रहो अब न कोई आस है, 
क्या करे अब वक्त नहीं पास  है।

Monday 15 October 2012

हकीकत

कालीखो से घिरे दीप को न देख
इस लौ को थोड़ा और जगमगाने दे,

दबी हुई थी हवा, अब बहक गई है    
रोक मत कदम बहक जाने दे।

ये गरम हवा का झोका ही सही,
दिलो में जमे बर्फ तो गलाने  दे।

हर रोज एक नई तस्वीर छपती है
थक जाय  नैन पर उसे निहारने दे।

 जो  ढूंडते अब  एक अदद जगह
 रौशनी से उनका चेहरा तो नहाने  दे।

न्याय की तखत पे बैठे है जो
उनके बदनीयत की बैशाखी अब हटाने  दे।

दिलो में घुट रही है धुआ लोगो के
इन्ही चिंगारी से आशियाना जलाने दे।

जो भीर रहे शासक से, सिरफिरे ही सही
नियत से क्या हकीकत तो जान लेने  दे।

Monday 8 October 2012

कई बार सोचा तुझे शब्दों में उतार दू

कई बार सोचा तुझे शब्दों में उतार दू

जिस धरा के अंग अंग में रास ही बसी  हो,
प्रेमद्विग्न अप्सरा भी जहा कभी रही हो।
फिसल परे जहा कभी नयन मेघो के,
ऐसा  रंग जिस फिजा  में  देव ने भरा हो।
बचे नहीं कोई यहाँ इसके महक से ,
कभी किसी ने  कदम जो  यहाँ  रखा हो।
इन्ही वादियों में बिखरे मनका न गूँथ सकूँ  
कई बार सोचा तुझे शब्दों में उतार दू,
लयबद्ध कर उसको विस्तार दू।।

थी खनकती तार वो जिसमे सुर संगीत है,
शब्द में न उतर सका ये वो मधुर गीत है।
वो हसीन लम्हों ने छेड़ा जो तान था ,
गुन्जनो के शोर सा  छलकता गान था।
थी हसी समा जैसे मोम से पिघल गए ,
चांदनी हसीन रात जाने कबके  ढल गए ,
जलज पात जिन्दगी कैसे स्याही सवार दू।
कई बार सोचा तुझे शब्दों में उतार दू,
लयबद्ध कर उसको विस्तार दू।।

रूप को ख्याल कर, क्या उसे आकार  दू
रूह में जो बस गए कैसे साकार  दू।
आभा उसका ऐसा की शब्द झिलमिला गए
केसुओ की छाव में नयन वही समा गए ।
चांदनी यु लहरों पे हिचकोले खाती है।
दूर दूर बस वही नजर आती है।
कायनात की नूर कैसे कुछ पदों में शार दू ,
कई बार सोचा तुझे शब्दों में उतार दू,
लयबद्ध कर उसको विस्तार दू।।

पहली बार उससे यू टकराना,
वो नजर की तिक्छ्नता पर साथ  शर्माना।
कदम वो  बडा चले पर झुक गयी नजर,
धडकते दिल की अक्स भी मुझे  दिखी जमीं पर।
भों तन गई मगर पलक झिलमिला गए,
अर्ध और पूर्ण विराम सुरमा में समां गए।
वाक्य न बन सका कैसे विराम दू ,
कई बार सोचा तुझे शब्दों में उतार दू,
लयबद्ध कर उसको विस्तार दू।।

पल पल वो पल ,पल के संग बंध गए,
छण बदलकर आगे आगे दिनों में निखर गए।
हर पल अब नजर  को किसी की तलाश था,
वो चमन भी जल रहा इसका एहशाश था।
प्यास थी अब बड़  चली दुरी मंजूर नहीं,
कदम खुद चल परे जिधर हो तेरा यकीं।
ऐसे एहशास कैसे अंतरा में बांध दू  ,
कई बार सोचा तुझे शब्दों में उतार दू ,
लयबद्ध कर उसको विस्तार दू।।

ठहर गए वक्त तब मेजो के आर पार ,
मिल रहे थे सुर दो कितने रियाज के बाद।
थी सड़क पे भीर भी और शोर भी  अजीब था ,
टनटनाते चमच्चो में भी सुर संगीत था .
और फिर साथ साथ हाथ यु धुल रहे ,
मिल गए लब भी और होठ थे सिल गए ,
उस सिसकती अंतरा को किस छंद में बांध दू  ,
कई बार सोचा तुझे शब्दों में उतार दू,
लयबद्ध कर उसको विस्तार दू।।
                                                  .

Sunday 7 October 2012

मोहताज

दो वक़्त की रोटी के लिए जो भी  मोहताज है,
उनके लिए क्या टू जी या कोयला का राज है।

महल मिला बडेरा को या नहर कोई पी  गया,
गरीब की दवा को भी कोई यु ही लिल गया।
गाय के  चारे को जो रोटी समझ के खा गये 
तोप के गोले भी जो युही पचा गए   ।।
आदर्श घर न मिल सका उसका क्या काज है,, 
दो वक़्त की रोटी के लिए जो भी  मोहताज है,
उनके लिए क्या टू जी या कोयला का राज है।।

जमी  असमान हो या   खेत खलिहान हो ,
 ताबूतो को भी ले गए या तेलगी का काम हो ।
जहा नजर घुमाये हम , ये भिखारी छा गए
इनको  देख के अब  भिखारी भी  शर्मा गए।।
सत्यम की बात हो या खेलगांव का राज है,
दो वक़्त की रोटी के लिए जो भी  मोहताज है,
उनके लिए क्या टू जी या कोयला का राज है।

रोटियो को मांगते गरीब हमने देखा है
जिनके पास कमी नहीं वो अमीर देखा है।।
ऐसे अमीर बढ गए जो मन के गरीब  है,
जिनके पास सब कुछ,पर लूट ही नसीब है।।
जनता अब जानता  है सबको पहचानता है,
पैसे वाले भूखे नंगे बेल अब मांगता है।
आज नहीं तो कल अब खतम इनका राज है,
दो वक़्त की रोटी के लिए जो भी  मोहताज है,
उनके लिए क्या टू जी या कोयला का राज है।।

Sunday 30 September 2012

तेरी दुनिया




भीर हाथ बांधे  खरी, वो परा लहू से सना
थी  निगाहें ढूंडती  सभी की,कौन है यु  परा।
न मिला एक हाथ ऐसा,जो की देता साथ,
बैचैन आंखे सभी कोई अपना न हो काश।
बच न पाया, बच ही जाता,कम्बखत जो कुछ ऐसा होता।
की लहू का रंग सबका, मजहबो सा जुदा  होता।।


तेरी बनाई  दुनिया तेरे बनाये लोग,
तेरे ही नाम से लड़ रहे और सब रहे है भोग।
है तेरी नियत में खोट ऐसा हमको लगने लगा 
भूल न जाये हम तुझे इसलिए यह इल्म दिया।
इस जहा में तेरी रचना और भी कितने परे 
पर हमें अब तू बता तेरे नाम पे कितने लड़े।।


है सभी के अब जहन में, कौन  अपना और पराया 
किसको भेजा तू यहाँ और कौन कही और से आया।
जो ना इसपे अब तू जागा ,देर बहुत हो जायेगा 
तेरी दुनिया यु रहेगी, पर कौन यहाँ बच पायेगा।
जो तेरे बन्दे न हो तो कायनात का क्या करोगो
तुम भी खुद को  ढूंढ़ते, फिर हमें ही याद करोगे।।

Thursday 20 September 2012

ये क्या जो गर्दिसे दीदार है।

वो  जो बैठे आसमां में, हसरतो से देख रहे,
ये क्या जो गर्दिसे दीदार है ?

बादियो से सिसकिया गूंजती है,
और उनको संगीत-उल्फ़ते आभास  है।
पेट बांधे घुटनों के बल  परे है
वो  समझते कसरतो का ये  खेल है।
वो जो  बैठे आसमां में, हसरतो से देख रहे
ये क्या जो गर्दिसे दीदार है ?

है गले तक बारिसो की सैलाब ये,
उनको मंजर सोंखिया ये झील की गहराई है।
चश्मे-शाही की बदलते सूरते भी,
हलक की प्यास बुझाते रंगीन ये जाम है।
वो जो बैठे असमा में, हसरतो से देख रहे
ये क्या जो गर्दिसे दीदार है ?

हर गली में भय का साया, निःशब्दता छाया हुआ,
वो समझते नींद के आगोश में चैन से  खोये हुए है।
रहनुमा जो मुल्क की तक़दीर पर खुद  भिर रहे ,
अमन का पैगाम भी बाटते वो चल रहे।
वो जो बैठे असमाँ में , हसरतो से देख रहे
ये क्या जो गर्दिसे दीदार है ?

कालीखो से अब यहाँ, है किसी को भय नहीं,
दूर तलक फैली हुई जो कोयले की राख है।
मुल्क की मजहुर्रियत में, मुर्दान्गिया सी छाई है 
है हलक जो खोलते भी, उनकी ही परछाई है।
वो जो  बैठे असमाँ में, हसरतो से देख रहे
ये क्या जो गर्दिसे दीदार है ?

क्या कफ़न था हमने बांधा,ऐसा हो मुल्के-वतन,
उल्फ़ते-शरफरोसों की, ये क्या इनाम है?
गोरो की उस गर्दिशी में भी, ना थी ये वीरानिया,
लुट लो मिलके चमन को,अच्छा ये अंजाम है।
वो जो बैठे असमाँ  में, हसरतो से देख रहे
ये क्या जो गर्दिसे दीदार है ?