Sunday, 14 April 2024

मैदान.....रिव्यू...!!

           अगर आप मैदान अभी तक नही गए है तो अवश्य जाइये। मैदान पर तीन घंटा बिताना आपमे एक जोश और स्फूर्ति भर देगा। मैदान पर दौड़ते ही ये आपको भारतीय फुटबॉल के पचास से साठ के दशक में ले कर चला जायेगा । तत्कालीन भारत में खेल की स्थिति और उसमें मुख्य रूप से फुटबॉल का यह एक क्रमिक इतिहास है और इसे भारतीय फुटबॉल का स्वर्णिम दशक कहा जाता है। यह मैदान उस इतिहास की बानगी है कि खेल या कोई और क्षेत्र क्यों न हो उसमें राजनीति हमेशा भारी रही है। लेकिन यही मैदान दस्तावेज के कई ऐसे पृष्ठ भी दर्ज कर रखा जहां खेल के प्रति समर्पण में राजनीति परास्त हो गया है।

                         तो अभी तक आप समंझ गए होंगे कि मैं फ़िल्म मैदान की बात कर रहा हूँ। शायद फ़िल्म में  प्रोमोशन की कमी हो या फिर मेरी स्वयं की उदासीनता इसका नाम मैंने नही सुना। जब अचानक से लोकतांत्रिक संवाद के तहत इस निर्णय पर पहुंचा गया कि आज कोई फ़िल्म  देखी जाय तो संवाद में अपनी उस्थिति दर्ज कराते हुए बेटे ने कहा--चलिए फ़िल्म मैदान देखते है। तो असहमति कोई कारण न था। आखिर धरना का निर्माण स्वयं के आकलन से चाहिए न कि किसी और कि धरना का विश्लेषण कर।

                         थियेटर खाली-खाली सा ही था। संभवतः अभी दर्शक इधर आकर्षित नही हुए है या फिर वीकेंड का इंतजार है। वैसे तो खेल की पृष्ठभूमि पर कई हिंदी  फ़िल्म बने है।। उसमें भी कई बॉयोपिक है जिसमे मेरीकॉम, एम एस धोनी, दंगल इत्यदि कई नाम है। जहां चक दे इंडिया हॉकी पर आधारित था, वही मैदान फुटबॉल के खेल पर आधारी है। दोनो ही फ़िल्म के कहानी का केंद्र बिंदु  कोच है। लेकिन अंतर इतना ही है कि फ़िल्म चक दे इंडिया का कोच काल्पनिक है जो हकीकत लगता है वही फ़िल्म मैदान का कोच वास्तविक है और फ़िल्म में भी कही से फिल्मी नही लगता है।

                         तो फ़िल्म "मैदान" भारतीय फुटबॉल खिलाड़ी और कोच एस ए रहीम पर आधारित है। इस कोच के साथ फ़िल्म की यात्रा करते हुए तत्कालीन कोलकाता, हैदराबाद को काफी करीब से देखते है और रह-रह कर भारतीय खिलाड़ी और खेल में व्याप्त विभिन्न असंगति को समझना हो तो आप पाएंगे ये सब कुछ पूर्ववत है। इसके बावजूद की परिस्थितियों में बदलाव दृष्टिगोचर है।कोलकाता में रहते हुए, फ़िल्म में पचास-साठ के दशक के कोलकाता को देखना एक अलग अनुभव है और इसे कितनी सूक्ष्मता से उभरा गया है यह फ़िल्म देखने पर ही पता चलेगा।

                          पूरी फिल्म का केंद्रबिंदु कोच रहीम साहेब है।मैदान’ की कहानी आजाद भारत की फुटबॉल टीम के कोच सैयद अब्दुल रहीम और उनकी टीम पर आधारित है। फिल्म में जज्बा, जुनून और इमोशन सब दिखाया है।लगभग एक सौ अस्सी मिनट की फ़िल्म आपको बांधने में सफल रहता है। यह जानते हुए भी की यह एक स्पोर्ट्स ड्रामा है और अंत भी प्रेडिक्टेबल है, फिर भी अंत तक आप बंधे रहते है। मुख्य भूमिका अर्थात रहीम कोच की भूमिका में अजय देवगन खुद है और आप कह सकते है कि वो सिर्फ खुद को साबित कर रहे है। उनकी पत्नी की भूमिका में  प्रियामणि अच्छी है। बाकी सभी पात्रों का चयन बिल्कुल पात्र के अनुरूप है और शायद वास्तविकता के करीब। लेकिन रहीम साहेब के अलावा फिल्म जिन पात्रों के इर्द-गिर्द फ़िल्म घूमता है उसमें एक मुख्य पात्र राय चौधरी है और इसकी भूमिका निभाया है गजराज राव । यह आपको अलग से प्रभावित करते है। फिर सुभन्कर के पात्र में  रुद्रमणि घोष तो ऐसे लगते है कि किरदार की आत्मा उनमें प्रवेश कर लिया हो। वैसे भी रुद्रमणि घोष बंगला फ़िल्म के अभिनेता होते हुए भी राजनीति में काफी सक्रिय है।

                            जी स्टूडियो के तहत बने इस फ़िल्म का  निर्देशन किया है अमित शर्मा ने। मुख्यतः विज्ञापन फ़िल्म बनाते है लेकिन इससे इन्होंने बोनी कपूर द्वारा प्रोड्यूस फ़िल्म बधाई हो का निर्देशन किया था,  जिसे काफी सराहा गया। और यह फ़िल्म इनको और स्थापित करेगा इसमें कोई संदेह नही है। संवाद लेखन काफी उत्कृष्ट है। "जब नींव कमजोर हो तो छत बदलने से कुछ नही होगा", यही एक खेल है जिसमे भाग्य की रेखा हाथ से नही बल्कि पैर से लिखा जाता है, कहने को एक सबसे छोटा है लेकिन यही सबसे बड़ा भी है आदि कई डायलॉग आपका ध्यान फ़िल्म में कहानी के स्थिति के अनुरूप आपका ध्यान खीचेंगे। बाकी संगीत "ए आर रहमान" का है और आप जानते है नाम ही काफी है।बैकग्राउंड संगीत बिल्कुल उनके ट्रेडमार्क का है, गीत गुंजाइश के अनुरूप है और फ़िल्म में अच्छे लगते है।

                             तो कुल मिलाकर यह एक स्वस्थ मनोरंजक, प्रेरणास्रोत, पारिवारिक फ़िल्म है और यह सब आनंद आपको फ़िल्म की समीक्षा पढ़ने में नही बल्कि फ़िल्म को देखने मे आएगा...है किन्ही  ?

Thursday, 14 September 2023

हिंदी दिवस

 सबसे पहले आप सभी को हिंदी दिवस की बधाई..!

                   हिंदी की मुखरता यह है कि यहां कोई मात्रा अथवा वर्ण "साइलेंट" नही रहता। एक बिंदु भी अपने वजूद को मुखर होकर कहता है। लेकिन अंग्रेजी में "साइलेंट" एक सामान्य बात है। तो फिर इस "साइलेंट" होने के अपने महत्व है।कई बार आप चाहते हुए भी बहुत कुछ नही कह सकते, चाहे वह आपका घर हो या दफ्तर..! वक्त वेवक्त आपको "साइलेंट" रहना पड़ता है..! सीनियर ऑफिसर किसी काम मे खोट निकाल कर आपको उपदेश दे रहे हो या घर मे श्रीमतीजी किसी बात से रुष्ट हो..! आपको पता है की यहां  "साइलेंट" रहना ही आपके हित मे है अन्यथा यह कभी भी आपके अनावश्यक तनाव का कारण बन सकता है..!  

ये "साइलेंट" की प्रवृति ही ऐसी है कि आपके प्रकृति को बनाता है..! यह हर समय संभव नही है..! जैसे अंग्रेजी के हर शब्द में "साइलेंट" नही होता है..! आपको पता रखना पड़ता है कि कब कौन सा वर्ण कहा "साइलेंट" हो गया है..! इसी "साइलेंट" की प्रवृति को पकड़ने के लिए लोग अंग्रेजी की ओर ज्यादा झुकाव रखते है..! क्योंकि हिंदी में ऐसी कोई प्रवृति नही है और न हिंदी की ये प्रकृति है कि वो कही भी "साइलेंट" रहे। जो भी आता है अपनी उपस्थिति और पहचान को पूरी मुखरता के साथ कहता है..!

           अब जिनको सफलता के सोपान पर चढ़ना है तो कहाँ "साइलेंट" रहना है, ये जानना तो जरूरी है..! जो गांव की पंचायत से लेकर देश की राजनीति में आपको हमेशा दिख जाएगा..! चाहे मुद्दे कितने भी गंभीर क्यों न हो , "साइलेंट" रहना है या बोलना है उसका कोई तय पैमाना नही होता है..! यह मौका और परिस्थिति ही निर्धारित करता है। उसी प्रकार अंग्रेजी भाषा मे कौन सा वर्ण कब "साइलेंट" हो जाएंगे इसका का कोई कायदा और कानून तो है नही। जबकि हिंदी भाषा ने, कब बिंदु का प्रयोग होगा और कब चंद्र बिंदु लगाना है या फिर आधा "र" कब नीचे लगेगा और उसे कब ऊपर बैठना है , उसके भी नियम निर्धारित कर रखे है..! अब इतने नियम कानून कहाँ तक पालन हो सकते है भला ..!

              फिर जिस राह पर चल कर सफलता मिले लोग स्वभाविक रुप से उसी राह पर चलते है..! इसलिए मुझे लगता है देश मे अंग्रेजी के प्रसार-प्रचार में इस भाषा मे निहित "साइलेंट" का खास योगदान है..!

           अब हम हिंदी भाषा पर कितना भी शोर मचाये, लेकिन अंग्रेजी को पता है कि "साइलेंट"  रह कर भी कितना विस्तार हो सकता है...है कि नही..?


Sunday, 18 June 2023

इति आदिपुरुष कथा..!!


                तुलसीदासजी रात भर बैचैनी से करवटें बदलते रहे। दिनकर के आगमन से पूर्व ही जल्दी-जल्दी स्वर्ग के किसी और छोड़ पर बना कुटिया में बाल्मीकजी से मुलाकात करने पहुंचे। महर्षि ने उनको देख गंभीर भाव से पूछ-गोस्वामीजी आज इधर का राह कैसे स्मरण हो आया..!

              तुलसीदासजी ने दंडवत प्रणाम किया और कहा- महर्षि आपके दर्शन को ही आया हूं..!

वाल्मीकिजी ने उन्हें अपने आसान के समीप लगे आसान पर बैढने का इशारा किया और पूछा- क्या कोई  विशेष प्रयोजन है.? कहकर प्रश्नवाचक निगाहों से देखने लगे!

गोस्वामीजी ने बैठते हुए कहा-मुनिवर वो कल संध्या बेला में नारद मुनि मिले थे,वो बता रहे थे  कि पृथ्वी का दौरा करके वापस लौटे है। 

वाल्मीकि जी से स्मित मुस्कान से कहा- तो इसमें क्या खास बात है। नारदजी खोज-खबर लाने के लिए  तीनों लोक में भ्रमण करते ही रहते है।

तुलसीदास जैसे गहरे सोच में पड़ते हुए गंभीर भाव से कहा- हाँ विप्रश्रेष्ठ वो तो ठीक है, लेकिन उन्होंने बताया है कि पृथ्वीलोक के मानव ने फिर से एक बार रघुबर के चरित्र का गुणगान करने के लिए एक गाथा की रचना की है..! 

बाल्मीकजी ने मुस्कुरा कर कहा - इसमें क्या खास है..?और.. हाँ... इस बात से आप इतने गंभीर क्यों है ? बल्कि आपको तो हर्ष होना चाहिए। आखिर आपके आराध्य मर्यादा पुरूषोत्तम राम का चरित्र है ही इतना विराट की मानव क्या खुद देवता भी  इस कथा को बार-बार रचना चाहते है। और आपने भी तो इसे कलयुग में रचा था, जबकि मैंने इसे त्रेता में पंक्तिबद्ध किया..!

यह सुनकर तुलसीदास और गंभीर हो गए और बाल्मीकजी से कहा-मुनिवर बात वो नही है, बल्कि बात ये है कि इनकी गाथा का रूपांतरण उन्होंने  निकृष्ट रूप से किया है और सभी पात्रों का एक प्रकार मूल चरित्र ही बदल दिया है।

बाल्मीकजी कुछ उत्सुक होते हुए पूछे-अच्छा कैसे..?

तुलसीदास जी ने कहा- महर्षि उन्होंने रावण के साथ जो किया सो किया, लेकिन उन्होंने हनुमान को भी नही छोड़ा। इनके हनुमान एक संवाद में कहते है-जो हमारी बहनों को छेड़ेगा ,उसकी हम लंका लगा देंगे..! कहिए मुनिवर भला महावीरजी इस प्रकार से संवाद बोल सकते है..!

बाल्मीकजी मुस्कुराकर बोले- अरे गोस्वामीजी ,हनुमानजी बोलना चाह रहे होंगे कि-"उनकी हम लंका जला देंगे"..! अब आपको तो पता ही है कि पृथ्वीलोक में समय कुछ ज्यादा तेज है, जल्दी-जल्दी में बोल गए होंगे..! भावना पर ध्यान दे। 

          इस बात को सुनकर गोस्वामीजी का आवेश कम नही हुआ और बोले- हमारे राम के मूल स्वरूप को बदलकर बिल्कुल आक्रमक ही बना दिया..!

बाल्मीक जी पुनः शांत रूप से तुलसीदास की ओर देखकर कहा-आप नाहक आवेश में है, मैंने बताया न जिस भूखंड पर राम अवतरित हुए, वहां आजकल थोड़ी आक्रमकता का वेग ज्यादा है..! अब बेचारा कथाकार ऐसे आक्रमक रावण से मुकाबला करने के लिए राम को थोड़ा आक्रमक ही बना दिये तो क्या है..!वैसे राम के क्रोध का तो आपको भी ज्ञात है न..! समुद्र से राह मांगने...! इससे पहले वाल्मीकिजी और कुछ कहते तुलसीदास ने कहा- हाँ मुनिवर वो तो मुझे भी स्मरण है..!लेकिन महर्षि रावण भी तो श्रेष्ठ कद-काठी का था,आपने ही बताया है..!

बाल्मीकजी पुनः मुस्कुरा कर बोले- शायद मानव को लगा होगा की हर वर्ष पृथ्वी पर रावण के जलने से वो काला हो गया होगा और जलने से केश विन्यास तो बदल ही जाते है..! अब उनको इतनी फुरसत तो है नही की वो मुझे, आपको या किसी अन्य को पढ़कर यह जाने और समझे..! 

गोस्वामीजी को संतोष नही हो रहा जैसे, उन्होंने फिर पूछा- लेकिन मुनि सीतामाता तो चूड़ामणि ही हनुमानजी को देती है न और ये चूड़ी दिखा रहे है..!

तब हंसते हुए बाल्मीकजी ने कहा--अरे गोस्वामीजी अब जब इन्होंने कभी चूड़ामणि देखा ही नही तो क्या जानेंगे..? बल्कि नारदजी यह बता रहे थे कि जब पटकथाकार इसपर चर्चा कर रहे थे तो उनका कहना था कि हमने गलती से "चूड़ी" पर "ई" की मात्रा डालना भूल गए..! इसलिए यह "चूड़िमनी" की जगह "चूड़ामणि" हो गया..!पृथ्वीलोक का यह सारा वृतांत मुझे भी ज्ञात है..! नारदजी मुझे भी बताने आये थे..! यह सुनते ही  तुलसीदासजी जैसे कुछ चौंक गए..!

बाल्मीकजी बोलना जारी रखे-  भावना पवित्र हो तो शब्द कभी मर्यादा भी लांघ जाए तो कोई बात नही..! देखिए आपके मानस कथा में भी हनुमानजी उपस्थित रहते है और यहां भी कथाकार ने बिल्कुल हनुमानजी को देखने के लिए एक आसन रिजर्व कर दिया है। आप नाहक परेशान मत होइए..!हनुमानजी सब देख रहे है..!उनको जैसे ही लगेगा उनके प्रभु का निरादर हो रहा है..! तो हनुमान खुद ही "उन सबकी लंका लगा देंगे" जाओ आप चिंतित न हो..! 

   अरे किसकी लंका लगाने की बात कर रहे है आप..! श्रीमती जी की आवाज कान में गूंजी ..!अभी फ़िल्म देखा नही तब ये हाल है, देखने पर क्या होगा..! उठिए भी अब सुबह हो गया..!

Saturday, 17 June 2023

"आदिपुरुष"..!!

                 


                     मैं इसके इंतजार में था की रिलीज हो और देखे। सप्ताहांत में मौका भी था। सामान्यतः फ़िल्म की समीक्षा फ़िल्म देखने से पहले न देखता हूँ और न सुनना पसंद है। किंतु पता नही कितने फिल्मों के बाद ऐसा हुआ है कि सोसल मीडिया पर जहां भी जा रहा हूँ, यही फिल्म छाया हुआ दिख रहा है। 

                    बहुत दिनों के बाद ऐसा हुआ है कि फ़िल्म अपने टीजर के साथ-साथ रिलीज होते ही जैसे सबको मंत्र मुग्ध कर दिया है। हर कोई फ़िल्म निर्देशक और पटकथा लेखक की जमकर कसीदे गढ़ रहा  है। वैसे तो कथा पहले से ही मौजूद था सिर्फ संवाद पर उन्होंने अपना पसीना बहाया है। पसीने से लिपटे संवाद में लवण की मात्रा तो आना ही था और बॉलीबुड इस मामले में पहले से ही नमकीन है। 

                       फ़िल्म निर्माता-निर्देशक के मेहनत का अंदाज आप लगाइए, कैसे उन्होंने मशक्कत करके युगों के फासले को पाट दिया। दर्शक तो इसी से भाव-विभोर लग रहे है, जब उनको अनुमान था कि वो त्रेता की पृष्ठभूमि रचेंगे। लेकिन उनकी खुशी और आश्चर्य का ठिकाना नही रहा जब उन्होंने देखा कि अरे कलयुगी भी क्या कहे, बिल्कुल बॉलीबुडी-युगी के धरातल पर कथानक और संवाद को पिरो दिया है। कितना दुष्कर कार्य है और वो भी इस वर्तमान दौर में जब कोई कब आहत हो जाए, हमे पता ही नही चलता। रचनाकार वाकई बधाई के पात्र है कि उन्होंने आहत और अनाहत के बीच के माध्यम मार्ग रचा है।अब देखे आगे इसपर कौन चलता है। खैर..फ़िल्म की बात।

                     यह देख और पढ़-सुनकर इन महान कला के विभूतियों के प्रति मेरा मन श्रद्धा से भर गया। आखिर किसी के मूल रूप का अनुकृति भी कोई "क्रिएटिविटी" होती है। "क्रिएटिविटी" तो वो है जो "आदिपुरुष" के साथ वर्तमान के इन कला-महापुरुषों ने किया है। ताकि देखते ही आपका मष्तिष्क सृजनशील होकर इस विश्लेषण में लग जाये कि आखिर "आदिपुरुष" वाकई "राम-गाथा" है या कुछ और..! और जो आपके विचारों को झकझोर कर रख दे वही तो असली सृजन है।साथ ही साथ यह विश्लेषण आपको आनंदित करके रख देगा और आपको आनंदमय कर दे, यही तो निर्देशक का धर्म है। 

                आप बेशक इन बॉलीवुड के सृजनशील उद्द्मियो पर प्रश्नचिन्ह लगाए, लेकिन मैं तो इनको मन ही मन नमन करता हूँ।इस "कलात्मक-सृजनात्मकता" की पराकाष्ठा का  अनुमान तो मैं इसी बात से लगा लिया कि दो-चार लाइन पढ़ते ही पूरा फ़िल्म आंखों के सामने चलने लगा।

                  इससे पहले की दो चार लाइन इनके गुणगान स्वरूप मैं कुछ और लिखता , तभी किसी कोने से मेरे कान में जैसे ये आवाज गूंजने लगा-" पैसा मेरा, निर्देशन मेरा, कलाकार और वीएफएक्स भी मेरा और बजेगा भी मेरा"....तुझको क्या.? तो कैसी लगी..!

                 अब बीड़ू भाई तुम ही जानो, अपुन तो अब तक देखा नही है....!

Wednesday, 15 February 2023

फिक्र...!!


फिक्र इतना ही हो कि 

फिक्र में, फिक्र हो..!

जिक्र इतना ही हो कि

जिक्र में, जिक्र हो..!

यूँ ही बातों में जब सिर्फ

बात ही होती है..!

कई बात, सिर्फ बातों के लिए

साथ होती है..!

फलसफा तो कई हम

यूं ही, उधेर बुनते रहते है..!

अपनी क्या कहे,

सिर्फ सुनते रहते है!

हर हाथ धनुष और तीरों से

सजे-सजे से हर ओर दिखते है!

निगाहें टिकी और कही

पर तीर कही और चलते है!

ये दौर कुछ भ्रम सा

और, भरमाया हुआ सा दिखता है!

हलक में आवाज तो है,

लेकिन, चीत्कार भी दबाया हुआ सा लगता है!

कोई किसी और के लिए,

भला, भलां यहाँ करेगा किया?

फिक्र में हमें खुद के सिवा

और दिखेगा क्या..?

इसलिए फिक्र में, 

सिर्फ फिक्र न हो..!

चलो ऐसा करे, फिक्र में,

कहीं हम तो, कहीं तुम भी हो !!