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Wednesday, 8 January 2025

ड्रॉप या एटेम्पट !

  अयोध्या बाबू विगत तीन साल से कोलकाता में है। सरकारी सेवा के स्थानांतरण क्रम में यह अभी इनका ठिकाना है। इस सेवा की अपनी दिनचर्या है और उनका ऑफिस सुबह साढ़े नौ से शाम छः बजे तक होता है। अयोध्या बाबू  उससे इतर  खुद के लिए खुद की निर्धारित दिनचर्या निर्धारित कर रखे है और उसके लिए स्वतः सजग रहते है।इसी के तहत सुबह टहलना उनका शगल और शौक है। वो कहते है कि ये सुबह का एक घंटा सिर्फ और सिर्फ उनका है, जिसमे वो खुद से बात करते है, खुद को देखते है । नही तो दुनियादारी के कवायद में कभी ठीक से देखे ऐसा मौका भला कहा मिलता है।वैसे तो पारिवारिक जिम्मेदारियों की अपूर्णता को भरने में ही परिवार के मुखिया की पूर्णता समझा जाता है।लेकिन फिर भी यह एक घंटा वो सुबह के भ्रमण में खुद से संवाद के लिए रखते है। इसी दिनचर्या अनुसार अयोध्या बाबू सुबह पांच बजे के आस पास जग गए।

               अप्रैल के महीने में कोलकाता के आसमान में अभी सूरज का आगमन नही हुआ है, लेकिन उसकी आहट से ही रात का साया जैसे ड़र से सिमटने लगा है ।स्वास्थ के प्रति सचेत लोगो की पदचाप अब घर के सामने वाले रोड से आने लगा है। सुबह लगभग साढ़े चार बजे से पक्षियों की चहचहाट की तीव्रता में अब धीमा हो गया है। जैसे सबको जगाने के बाद अब  किसी और काम पर निकल गए हो। कोलकाता के जिस इलाके  में  वो रहते है, वहाँ अमूमन वनिस्पतियो की संख्या अन्य क्षेत्र के तुलना में ज्यादा है। खेलकूद वाले पार्क के साथ-साथ कई वनिस्पतियो वाले पार्क भी है। इसी के कारण चिड़िया जो कई शहरों से विलुप्त होते  जा  रहे सिटी ऑफ जॉय में इन चिड़ियों का रैन बसेरों अभी भी ज्यादा है और कोलकाता का यह क्षेत्र उनमे से एक है।
           
            अमृत के बारहवीं  बोर्ड का परीक्षा हो चुका है और आईआईटी जेईई के लिए अध्यनरत है।  पहला प्रयास जनवरी में हो चुका है और परिणाम अपेक्षानुरूप नही आया। तो फिर अप्रैल में होने वाले दूसरे प्रयास के लिए लग गया। जनवरी से अब तक कभी बोर्ड परीक्षा तो कभी आईआईटी प्रवेश परीक्षा के दरम्यान अपनी तैयारी के तालमेल बैठता हुआ अध्यन करता आ रहा है। अब कुछ दिन हो गए और बारहवीं के परिणाम भी घोषित हो चुके है, परिणाम अपेक्षानुरूप अच्छा  आया और प्रसन्न है, किन्तु अब भी सारा ध्यान अप्रेल के दूसरे प्रयास के जेईई के परिणाम पर टिका हुआ है।
            वैसे तो अयोध्या बाबू बच्चे के दिन प्रति दिन के कार्यकलापों पर नजर रखते है,  लेकिन  विशेष कुछ टोका टाकी नही करते। बस बीच-बीच मे पुछ लिया करते है कि कैसा तैयारी चल रहा है और वो संक्षिप्त सा उत्तर देता है- ठीक चल रहा है पापा !
फिर वो पूछते- ठीक या अच्छा ..?
तो फिर अमृत एक संक्षिप्त उत्तर देता - अच्छा ही है !

              आज जब वो सुबह  बाहर टहलने के लिए निकलने वाले थे, तभी अमृत अपने कमरे से निकलकर आया। सामान्यतः उनके बाहर निकलने के समय वह अपने कमरे में ही अध्यनरत रहता है। इसलिए आज  इस समय अमृत को  देखकर उन्हें लगा कि कुछ कहना चाहता है। इससे पहले की वो कुछ पूछते, लगभग रुआंसा होता हुआ अमृत बोला- रिजल्ट आउट हो गया है..!
            पिछले दो तीन दिन से जेईई प्रवेश परीक्षा के परिणाम घोषित होने की चर्चा चल रही थी और बच्चे बेसब्री से इसका इंतजार कर रहे थे। ताकि परिणाम के अनुरूप अपनी योजना भविष्य के लिए तैयार करे..!
           वैसे तो अयोध्या बाबू अमृत के चेहरे के भाव से ही समझ गए कि परिणाम क्या हुआ है । किन्तु  उसके मन पर घिरे उजास की परिछाई जो चेहरे पर स्पष्ट दिख रहा है, उसको नजरअंदाज करते हुए अपने जूते के फीते बांधते हुए उन्होंने पूछा- क्या हुआ..?
अमृत लगभग रुंधे गले से बोला - नही हुआ...!
     अमृत के चेहरे पर घिर आये निराशा के भाव तो बिल्कुल स्पष्ट ही दिख रहे थे, उसके लिये अयोध्या बाबू को  मनोविज्ञान के किसी विशेष अध्ययन की जरूरत तो है नही। आखिर पचास दशक तक जिंदगी के थपेड़े किसी भी  किताब से ज्यादा ज्ञान दे देता है। वैसे भी स्कूली पढ़ाई का विज्ञान पहले सिंद्धांत देता है और फिर प्रयोग द्वारा सिद्ध करने का प्रयास करता है। लेकिन जीवन अनुभव का विज्ञान तो पहले जिन्दगी की प्रयोगशाला में सिद्ध होता है और फिर उसके अनुरूप सिद्धान्त गढ़ता  है।

            तो अयोध्या बाबू को समझते देर नही लगा कि अमृत दिन-रात एक करके जिस लक्ष्य के लिए समर्पित है, वो उसकी पहुंच से अभी दूर है।परीक्षा परिणाम घोषित होने के बाद का समय एक ऐसी मानसिक उहापोह की रचना कर सकता है, जहां दिल में उठते हतोत्साह की धड़कन, रेत के तूफान की तरह भविष्य के लिए संजोए कई सपनो को रेत के टीले के अंदर दफन कर सकता है।  मन मे उठते उदासी की लहर  को अगर सही समय पर शांत नही किया गया तो यह कई बार बच्चों का भविष्य भी इस तरह के परिणाम से निकले भंवर में घिर कर विलीन हो जाते है। आये दिन इस प्रकार के खबर समाचार पत्रों में छपते रहते है।
         अयोध्या बाबू सुलझे हुए व्यक्तित्व के है। बेटे के भविष्य निर्माण के लिए सजग है, लेकिन अपेक्षाओं का बोझ कभी बेटे पर जाहिर नही होने देते। बल्कि समय-समय पर हमेशा सिर्फ हौसलावर्धन करते रहते है और जब कभी अमृत में अपनी तैयारियों को लेकर कुछ अनावश्यक तनाव में देखते तो मुस्कुराते हुए कवि "नागार्जुन" के कविता के ये दो पंक्ति जोर-जोर से बोलते-
“जो नहीं हो सके पूर्ण काम,
मैं उनको करता हूँ प्रणाम”!
        फिर वो अमृत से कहते बोलो। तो वो भी साथ-साथ इसे दोहराता । ऐसे ही बातों-बातों में  अयोध्या बाबू अमृत  से कहते-,देखो बेटा, भगवान श्री कृष्ण ने गीता का ज्ञान यूँ ही नही दिया। वो जानते थे आने वाले काल में हर कोई महत्वाकांक्षा और अपेक्षा के बोझ तले दबा होगा।कई बार अपेक्षाओं का भार इतना बढ़ जाएगा कि जीवन दूभर हो जाएगा। इसलिए  उसको संतुलन में लाने के लिए गीता सार ही उपयुक्त होगा। इसलिए गीता के मर्म को याद रखो। वो कहते सिर्फ अपने लक्ष्य और कर्म के प्रति समर्पित रहो ।वैसे भी फल तो आज के समय मे कुछ ही  है और उसके लिए प्रयासरत  तो कई है। फिर मुस्कुरा देते।

             लेकिन जैसे ही अयोध्या बाबू कहते- देखो बेटा इस लिए बार-बार एक ही मर्म को दोहराया जाता है की कर्म करो और फल की इच्छा मत करो। तो कभी-कभी अमृत कहता- पापा गीता में क्या सिर्फ इतना ही नही लिखा है,मैं भी बीच-बीच मे पढ़ता हूँ।
तो अयोध्या बाबू मुस्कुराकर कह देते- हाँ बेटा गीता में सिर्फ इतना ही नही लिखा है,बल्कि ये तो पूरे जीवन का अलग-अलग अध्याय ही है, लेकिन जीवन के जिस अवस्था  मे तुम हो वहां बस कर्म योग के इसी मर्म का ध्यान रखना काफी है।बाकी भी आगे काम आएंगे।
इसलिए बेटा सिर्फ अपना बेहतर करने का प्रयास करो, अगर इसमे नही हुआ तो इसका अर्थ है कोई और बेहतर प्रयास तुम्हारे इंतजार में है। फिर जोर-जोर से कविता पाठ करने लगते-
“जो नहीं हो सके पूर्ण काम,
मैं उनको करता हूँ प्रणाम”
    अमृत थोड़ा निश्चिंत होकर, मानो जेठ के सूरज पर अचानक से बादल घूमर आने से जैसे गर्मी से राहत का अनुभव होता , उसी निश्चिंत भाव से अपने  अध्यन में लग जाता।

        एक दिन अमृत के तैयारी के ऊपर  बातचीत के क्रम में अयोध्या बाबू अपनी पत्नी से कहते है- अभिभावक बच्चों के भविष्य के प्रति सजग और सचेष्ट रहे यहां तक तो ठीक है, किन्तु जब अपनी अधूरी इच्छा को पूरा करने की अपेक्षा का बीज अपने मन मे पनपने देते है तो कई बार बच्चे अपने ऊपर लादे गए इस अपेक्षा के बोझ से उबर नही पाते है।क्योंकि  यह अपेक्षा का बीज तो एक परजीवी पौधे की तरह है, जो एक बार दिमाग में पनप गया तो आपके दिल को चूसकर  दायरा इतना बड़ा बना देगा कि उसकी घनी परिछाई में बच्चे उसमे जैसे कही खो जाते है।

अयोध्या बाबू की इन बातो को सुनकर सुनकर उनकी पत्नी कुछ नही बोली। सिर्फ यह सोचती रही क्या अयोध्या बाबू घुमाफिराकर उनको तो कुछ कहना नही चाहते।

वैसे भी आये दिन समाचार चैनलों में इस प्रवेश परीक्षा से पूर्व ही बच्चों के आत्महत्या के खबर से मन  सशंकित रहता है। वो कभी-कभी इस समाचार को देखकर कहते हुए अपनी धर्म पत्नी से कहते- पता नही अभिभावक बच्चों को सिर्फ खिलने देना चाहते है या फिर खिलने के बाद इन फूल का माला अपने गले मे डालना चाहते है। तो उनकी पत्नी उनके बातों पर गौर किये बिना कहती- अब बच्चों के आत्महत्या में आप फूल और माला की क्या चर्चा करने लगे। अयोध्या बाबू इसपर बिना कुछ कहे मौन ही रहते।

       तो जैसे ही आज सुबह-सुबह अमृत ने यह कहा की नही हुआ  ! अयोध्या बाबू अंदर से निराश तो बहुत हुए, ये निराशा इस बात का नही था कि उनको बच्चे से कोई ढेर सारी अपेक्षा थी, बल्कि इस बात का था कि अमृत ने परिश्रम में कोई कोर-कसर नही छोड़ा था। लेकिन दिल के भाव को चेहरे पर आने नही दिया।
       तभी अमृत की मम्मी  रसोई घर से  दो कप चाय ट्रे में लेकर वहां पहुंच गई। टहलने से पूर्व लगभग नित्य का नियम है कि एक कप गर्मा गर्म चाय पीकर ही बाहर निकलते है। वैसे तो सर्दी के मौसम में सुबह-सुबह इस एक चाय की तासीर अमृत से कम नही होता। लेकिन अन्य मौसम चाहे वो अप्रेल या मई क्यों न हो, आदत में सुमार चीज की तासीर लगभग एक जैसा ही होता है।
  जैसे ही अमृत के मम्मी यह सुनी की - नही हुआ.! वो हाथ मे चाय का ट्रे पकड़ी हुई ऐसे देखने लगी जैसे कोई बहुत बड़ी अनहोनी हो गई है।
       सामान्यतः माताएं आजकल बच्चों के भविष्य के प्रति कुछ ज्यादा संवेदनशील हो गई है। इस संवेदनशीलता के तह में कब बच्चे के भविष्य से ज्यादा अपनी अहम की पूर्ति की लताये पनप जाती उनको पता ही नही चलता। बच्चों के भविष्य के प्रति अनावश्यक सजगता कब बच्चों पर भार बनकर उसे अवसाद में धकेल देता है, वो भी पता नही चलता।कभी माँ तो कभी पिता इस रूप में पेश आते तो कभी दोनों।
     खासकर आर्थिक रूप से मध्यमवर्गीय परिवार में यह एक सामान्य गुण या कहे अवगुण विकसित हो गया है। बाकी आर्थिक रूप से झूझ रहे परिवार में तो बच्चे बचपन से ही संघर्ष में तपकर निकलते है। बेशक प्रवेश परीक्षा में कम उत्तीर्ण होते है और नही भी होते है तो संघर्ष के जज्बा से प्रेरित ही रहते है । अवसाद के लक्षण इनको छूने में थोड़ा हिचकिचात  है।जबकि आर्थिक रूप से सम्पन्न परिवार कई बार इसके बल पर बच्चे का भविष्य अनुकूल करने में सफल हो जाते है।
     जैसे ही अयोध्या बाबू ने अमृत के माँ को हाथ मे ट्रे लिए मूर्तिवत देखा, वो समझ गए कि मन मे संजोये हुए शीशमहल अमृत के इस कथन का बोझ  नही ढो सका और भरभराकर ढह गया है। इसके पहले की उसके बोझ से ट्रे भी गिर जाए उन्होंने चेहरे पर अनावश्यक मुस्कुराहट लाते हुए कहा- क्या हुआ चाय दो !
अमृत की मम्मी चेहरे पर उभर आये तनाव को छिपाने का असफल प्रयास करते हुए एक कप चाय उनकी ओर बढ़ा दिया और वही रखे सेंटर टेबल पर ट्रे सहित चाय का कप रख दिया। फिर अमृत की ओर देखते हुए पूछा - क्या कह रहे थे बेटा, क्या नही हुआ ? क्या परीक्षा का परिणाम निकल गया ? मैं इतने दिन से बार-बार कह रही थी! ठीक से पढ़ाई करो..ठीक से पढ़ाई करो। लेकिन मेरा कोई सुने तब तो। आजकल के बच्चे तो खुद को ही बहुत होशियार समझने लगते है। लो अब...अब क्या करोगे..? एक ही सांस में वर्तमान और भविष्य से सभी संबंधित प्रश्न पूछ बैठी।

आयोध्या बाबू आंखों के भंगिमा से उनकी द्रुत गति पर रोकने का प्रयास करते रहे ! लेकिन जिसके सपने सुबह के चिड़ियों की चहचहाट में टूटू जाये तो उनका ध्यान उस शोर पर होता है, वो चेहरे का भाव कम और आवाज पर ध्यान ज्यादा देते है।
अयोध्या बाबू थोड़ा संयत से बोले- अरे आखिर ऐसा क्या हो गया, जो सुबह-सुबह इतना बोल रही हो।आखिर पूरी बात तो सुनो।
उनकी पत्नी कुछ न बोल ट्रे से कप उठाकर चाय पीने लगी। तो अयोध्या बाबू अमृत की ओर देखते हुए बोले- तो रिजल्ट कब निकला !
अमृत ने फिर संक्षिय सा उत्तर दिया- रात में ! लगभग बारह बजे के आसपास।
       अयोध्या बाबू समझ गए कि अमृत के रात की नींद इस परिणाम के इंतजार में रूठा हुआ था और अब परिणाम अमृत से रूठ गया है !अर्थात यह एक ऐसी परिस्थिति में पहुंच गया है, जहां अवसाद इसे अपने गिरफ्त में लेने को तैयार बैठा होगा। उसपर अमृत के मम्मी की प्रतिक्रिया लगभग उसे उस घेरे की ओर धकेल ही दिया है।अमृत वही चुपचाप नजरे नीचे किये खड़ा है और पैर के अंगूठे से फर्स को कुरेद रहा है। कमरे में एक खामोशी पसर गई है, सिर्फ घर के बाहर रोड से बीच-बीच मे पदचाप की आवाज आ रही है। अयोध्या बाबू  अपने जूते का फीता बांध सीधे होकर सोफा पर बैठ गए है और चाय का कप हाथ मे लिया। अमृत की मम्मी वही सामने वाले सोफा पर चुपचाप बैठे जैसे कही और खो गई है।
            एक घूंट चाय पीने के बाद अमृत की ओर देखकर कहते है- तो फिर अब क्या सोचा है ? अमृत कुछ कहता उससे पहले अमृत की माँ थोड़ी उत्तेजित होकर बोली- तो अब क्या, अब कॉलेज में एडमिशन लेगा, जिसमे भी होता है ले लेगा, कही से आखिर इंजिनीरिंग तो करेगा!
              काफी समय से चुप खड़ा अमृत अपनी माँ की इस बात पर तुरंत बोला- मैं एड्मिसन नही लूंगा, मुझे कोई अच्छा कॉलेज नही मिलेगा । कहकर फिर अंगूठे फर्स को कुरेदने का प्रयास करने लगा।
तो अयोध्या बाबू फिर से अमृत की ओर उन्मुख होकर बोले तो फिर क्या चाहते हो ?
अमृत ने कहा- मैं "ड्राप" लूंगा !
अयोध्या बाबू थोड़ा गंभीरता से पूछे- ड्राप मतलब...?
अमृत- मैं एक "एटेम्पट" और लेना चाहता हूं !
अयोध्या बाबू इस पर स्मित मुस्कान के साथ बोले- "ड्राप"या "एटेम्पट" यह तो स्पष्ट होना  चाहिए! क्योंकि कई बार हमारे द्वारा प्रयुक्त शब्दो के अर्थ हमारे परिणाम या फल को प्रभावित करता है।
अमृत अयोध्या बाबू का आशय समझते हुए इस बार आवाज में थोड़ी दृढ़ता के साथ बोला - एटेम्पट ! फिर अपनी मम्मी की ओर देखा। वो अयोध्या बाबू और अमृत के बीच इस बातचीत को निर्रथक समझ इसके ऊपर कोई ध्यान नही दे रही थी।
        तबतक अयोध्या बाबू अपनी धर्मपत्नी को देखते हुए बोले- एक और प्रयास करना चाहता है तो क्या दिक्कत है।
वो बोली मैं कब बोल रही हूं कि कोई दिक्कत है, हाँ बच्चे का ध्येय और लक्ष्य स्पष्ट होना चाहिए।
       अयोध्या बाबू मुस्कुराते हुए बोले- बेटा असफलता एक स्वभाविक प्रक्रिया है। जीवन मे अलग-अलग मोड़ पर इससे सामना होता ही रहता है। बड़ी बात ये है कि उसको स्वीकार कर फिर से एक बार लक्ष्य निर्धारित कर पिछले गलतियों से सबक ले प्रयास करना ही असली विजय है और यही गीता मर्म भी है। इसलिए फिर से एक बार उसी जोश और जुजुन के साथ फिर से एक औऱ प्रयास में लग जाओ। फिर से नागार्जुन की कविता के दो पंक्तियों ऊंचे स्वर में अपनी आदत अनुसार पाठ करने लगे-
“जो नहीं हो सके पूर्ण काम,
मैं उनको करता हूँ प्रणाम”!
         आयोध्या बाबू का चाय का कप खाली हो चुका और सामने उनकी धर्मपत्नी चाय पीने में लगी हुई है। अमृत चेहरे पर छाई उदासी के बादल जैसे अयोध्या बाबू के शब्दों से कही विलीन हो गए। चहरे पर एक आत्मविश्वास की किरण तैरने लाग।
           अयोध्या बाबू उठकर सुबह के भ्रमण पर निकल गए और अमृत अपने अध्ययन कक्ष की ओर चल दिया। चिड़ियों की चहचहाट अन्य दिनों की अपेक्षा आज ज्यादा गूंज रही है।

  

Tuesday, 11 February 2020

लक्ष्य

             प्रभु मन में क्लेश छाया हुआ है। अंतर्मन पर जैसे निराशा का घोर बादल पसर गया है। कही से कोई आशा की किरण नहीं दिख रहा। लगता है जैसे भविष्य के गर्भ में सिर्फ अंधकार का साम्राज्य है। मन में वितृष्णा छा गया है। प्रभु आप ही अब कुछ मार्ग दर्शन करे।वह सामने बैठ हताशा भरे स्वर में बुदबुदा रहा जबकि प्रभु ध्यानमुद्रा में लीन लग रहे थे।पता नहीं  ये शब्द उनके कनों को भेद पाये भी या नहीं? फिर भी उसने अपनी दृष्टि प्रभु के ऊपर आरोपित कर दिया। प्रभु के मुख पर वही शांति विराजमान ,योग मुद्रा में जैसे आठो चक्र जागृत, पद्मासन में धर कमर से मस्तिष्क तक बिलकुल लम्बवत ,हाथे बिलकुल घुटनो पर अपनी अवस्था में टिका हुआ। उसने दृष्टि एक टक अब तक प्रभु के ऊपर टिका रखा था। आशा की किरण बस यही अब दिख रहा । कब प्रभु के मुखारबिन्दु से शब्द प्रस्फुटित हो और उसमें उसमे बिखरे मोती को वो लपेट ले जो इस कठिन परिस्थिति से उसे बाहर निकाल सके।यह समय उसके ऊपर कुछ ऐसा ही है जैसे घनघोर बारिश हो और दूर दूर तक रेगिस्तान का मंजर । आखिर कैसे बचें ? संकटो के बादल में घिरने पर चमकते बिजली भी कुछ राह दिखा ही देती है और प्रभु तो स्वंम प्रकाशपुंज है। प्रभु के ऊपर दृष्टि टिकी टिकी कब बंद हो गया उसे पता ही नहीं चला।

             क्या बात है वत्स , कंपन से भरी गंभीर गूंजती आवाज जैसे उसके कानों से टकराया उसकी तन्द्रा टूट गई। पता नहीं वो कहा खोया हुआ था। चौंककर आँखे खोला दोनों हाथ करबद्ध मुद्रा में शीश खुद ब खुद चरणों में झुक गया और कहा-गुरुदेव प्रणाम। प्रभु ने दोनों हाथ सर पर फेरते हुए कहा- चिरंजीवी भव। कहो वत्स कैसे आज  इस मार्ग पर पर आना हुआ। प्रभु गलती क्षमा करे कई बार आपके दर्शन को जी चाहा लेकिन आ नहीं पाया।इन दिनों असमंजस की राहो से गुजर रहा हूँ। जीवन में लगता है निरुद्देश्य के मार्ग से चलकर उद्देश्य की मंजिल ढूंढ रहा हूँ। निर्थकता और सार्थकता के बीच खिंची रेखा को भी जैसे देखने की शक्ति इस चक्षुओं से आलोपित हो गया है। जीवन को जीना चाहता हु लेकिन क्यों जीना चाहता हु इस उद्देश्य से मस्तिष्क भ्रमित हो गया है। प्रभु आपके सहमति स्वरूप मैं इस जीवन को अपनी दृष्टि से देखना चाहता था। आपसे पाये ज्ञान से मैं इस समाज को आलोकित करना चाहता था किंतु अब लगता है खुद ज्ञान और अज्ञान के भाव मध्य मस्तिष्क में दोलन कर रहा है। कब कौन से भाव के मोहपाश मन बध जाता पता ही नहीं चलता।जागृत अवस्था में भी लगता है मन घोर निंद्रा से ऊंघ रहा है। प्रभु मार्गदर्शन करे।

            प्रभु के मुखारबिंद पर चिर परिचित स्वाभाविक मुस्कान की स्मित रेखा उभर आई। दोनों पलक बंद किन्तु प्रभु के कंठ से उद्द्गार प्रस्फुठित हुए- वत्स मै कुछ समझ नहीं पा रहा हूँ। आखिर तुम्हारा मन मस्तिष्क इतना उद्धिग्न क्यों है। तुमने योगों के हर क्रिया पर एकाधिकार स्थापित कर रखा है, फिर इस हलचल का कारण मैं समझ नहीं पा रहा हूँ।

               प्रभु आप सर्वज्ञानी है, आप तो चेहरे को देख मन का भाव पढ़ लेते है। अपनी पलकों को खोल एक बार आप मेरे ऊपर दृष्टिपात करे।प्रभु आप सब समझ जाएंगे। उसके स्वर में अब कातरता झलकने लगा।प्रभु की नजर उसपर पड़ी और उसकी दृष्टि नीचे गड गई। वत्स मेरे आँखों में देखो क्यों नजर चुराना चाहते हो। नहीं प्रभु ऐसी कोई बात नहीं लेकिन आप के आँखों में झांकने की मुझमे सामर्थ्य नहीं है। मैं आपके आदेशानुसार कर्तव्य के पथ पर सवार हो मानव समिष्टि के उत्थान हेतु जिन समाज को बदलने की आकांक्षा पाले आपके आदेश  मार्ग पर कदम बढ़ा दिया। अब उस राह पर दूर दूर तक तम की परिछाई व्याप्त दिख रही है। मुझे कुछ नहीं समझ आ रहा की आखिर इस अँधेरी मार्ग को कैसे पार करू जहाँ मुझे नव आलोक से प्रकाशित सृष्टि मिल सके।

            तुम कौन से सृष्टि की बात कर रहे हो वत्स। परमपिता परमेश्वर ने तो बस एक ही सृष्टि का निर्माण किया है।सारे जीव इसी सृष्टि के निमित्त मात्र है। तुम कर्म विमुख हो अपने ध्येय से भटक रहे हो। तुम्हारी बातो से निर्बलता का भाव निकल रहा है। आखिर तुम खुद को इतना निर्बल कैसे बना बैठे?
              अपने आप को संयत करते हुए कहा- प्रभु जब सत्य एक ही है तो उसे देखने और व्यख्या के इतने प्रकार कैसे है? आखिर हर कोई सत्य को सम भाव से क्यों नहीं देख पाता है?आखिर  मानव उत्थान के लिए बनी नीतियों में इतनी असमानता कैसे है ? सक्षम और सामर्थ्यवान दिन हिन् के प्रति विद्रोही और विरक्त कैसे हो जाते है? अवसादग्रस्त नेत्रों में छाई निराशा के भंवर को देख देख कर अब मेरा चित अधीर हो रहा है और इन लोगो के क्लांत नेत्र को देख देख व्यथित ह्रदय जैसे इनका सामना नहीं करना चाहता । प्रभु मुझे आज्ञा दे मैं पुनः आपके सानिध्य में साधना में लीन होना चाहता हूँ।

         प्रभू ने उसके सर पर पुत्रवत हाथ फेरते हुए कहा-लेकिन इस साधना से किसका उत्थान होगा ? आखिर किस ध्येय बिंदु को तुम छूना चाहते हो ? समाज के उत्थान हेतु जिस कार्य को मैंने तुम्हे सौपा है। आखिर वत्स तुम इससे विमुख कैसे हो सकते हो ? लगता है मेरी शिक्षा में ही कुछ त्रुटि रह गई। कातरता से भरे स्वर में उसने कहा नहीं प्रभु ऐसा न कहे।मैं आपको तो हमेशा गौरवान्वित करना चाहता हूँ।परंतु प्रभु आपने इस सन्यास धर्म के साथ राजनीति के जिस कर्म क्षेत्र में मुझे भेज दिया, लगता है वो मेरे उपयुक्त नहीं है।प्रभु मंद मंद मुस्कुराते हुए बोले-क्या वत्स तुम इतने ज्ञानी हो गए की खुद की उपयुक्तता और अनुपयुक्तता का निर्धारण कर पा रहे हो। इसका तो अर्थ हुआ की मै तुम्हारे क्षमता का आकलन करने योग्य नहीं। प्रभु धृष्टता माफ़ करे आपकी क्षमता पर किंचित शक मुझे महापाप का हकदार बना देगा। मेरा अभिप्राय यह नहीं था। फिर क्या अभिप्राय है पुत्र -प्रभु के स्वर से वात्सल्य रस बिखर गए।

                  प्रभु इतने वर्षों से मानव सेवा हेतु मैंने राजनीति का सहारा लिया।यही वो माध्यम है जिसके द्वारा मानव कल्याण की सार्थक पहल की जा सकती है।किंतु प्रभु इसका भी एक अलग समाज है, जो कल्याण की बाते तो करते है विचारो के धरातल अवश्य ही अलग अलग है किंतु मूल भाव में सब एक से दीखते है। प्रभु इनके मनसा,वाचा और कर्मणा के बीच कोई सम्बन्ध नहीं है।इस कारण इनके साथ तालमेल कैसे करूँ प्रभु ?खुद को दूषित करू या इनसे दूर हो जाऊं। प्रभु क्या करूँ मैं? 

                 वत्स तुम्हे तो मैंने निष्काम कर्म योग की शिक्षा दी है फिर भी तुम अर्जुन की तरह विषादग्रस्त कैसे हो सकते हो? गीता के श्लोक अवश्य तुम्हे कंठस्त होंगे, लेकिन मर्म समझने में लगता है तुम भूल कर बैठे हो।पुत्र मानवहित हेतु ध्येय की प्राप्ति में अगर काजल की कोठरी से निकलने में कालिख से डर कर वापस  लौट जाया जाए तो इसका तो अर्थ हुआ की अज्ञान के अंधकार को विस्तार का मौका देना। किसी न किसी को तो अपने हाथों से कालिख को पोछने होंगे।क्या जयद्रथ और अश्व्थामा का दृष्टान्त वत्स तुम भूल गए। तो क्या भगवान कृष्ण अब भी इन धब्बो से तुम्हारी नजरो में दोषी होंगे ? समझो अगर भगवान् कृष्ण ने इस विद्रूपता को अपने हाथों से साफ़ नहीं किया होता तो आज मानव की क्या स्थिति होती। कर्तव्य के राह पर पाप पुण्य हानि लाभ से ऊपर उठ देखो , समग्र मानवहित जिसमे दिखता है उपयुक्त तो वही मार्ग है। यही तो योग है कि इस परिस्थितयो के बाद भी अपने को  लक्ष्य से भटकने नहीं देना है। अगर कालिख लग भी जाए नैतिकता के सर्वोत्तम मानदंड और मानव कल्याण के उत्कर्ष के ताप से स्वतः कालिख धूल कर एक नए ज्ञान गंगा की धारा में परिवर्तित हो जाएगा। तुम प्रयास तो करो। वत्स कोई न कोई तो प्रथम बाण चलाएगा। इस डर से गीता श्रवण के बाद भी  गांडीव अगर अर्जुन रख ही देता तो क्या आज महाभारत वैसा ही होता ? अनुकूल स्थिति में कर्तव्य पथ पर चलना सिर्फ दुहराना है उसमें कैसी नवीनता। समाज में घिर आये ऐसे विचार की सन्यासी का राजनीती से क्या लेना ही इस दुरावस्थिति का कारण है। समाज के  शिक्षित जन इस स्थिति में आम जन के दुरवस्था से विमुख हो सिर्फ खुद के प्रति मोह भाव रख ले तो किसी न किसी को तो पहल करना ही होगा। पुत्र सन्यास आश्रम समाज से विमुखता नहीं बल्कि इसकी सापेक्षता का भाव है।जब तक यह अपनी नीति नियंता समष्टि के हर वर्ग के अनुरूप बनाकर चलता है और सब समग्र रूप से खुशहाल हो हम भजन कीर्तन  कर भागवत ध्यान में लीन रह सकते है।किंतु अगर ऐसा नहीं है तो हमें तो इसका प्रतिकार कर उत्तम ध्येय के मार्ग पर सभी को आंदोलित करना ही होगा। जीवन योग तो पुत्र ऐसा ही कहता है।परम सत्य का ज्ञान तो वर्तमान के साक्षत्कार से ही होता है भविष्य का तो सिर्फ चिंतन और मनन ही क्या जा सकता है।

              सन्यास धर्म समाज से विमुख करता है इस प्रतिकूल विचार के भाव को बदलने हेतु ही तो तुम्हे भेजा।इस अवधारणा से पुत्र मुक्त हो जाओ की सन्यास आश्रम परिवार से विरक्ति है ,बल्कि पूरे समाज को अपना परिवार मान उसके प्रति आसक्ति का भाव ही सन्यास धर्म का मर्म है। अवश्य आलोचनाओं के तीर तुम्हारे हिर्दय को छिन्न विच्छिन्न करेंगे किन्तु जब ध्येय श्रेष्ठ है तो ऐसे बाधाएं मार्ग च्युत नहीं कर सकता है।सन्यास धर्म खुद को श्रेष्ठ तो बनाना है किंतु यह प्राणी मात्र को श्रेष्ठता के मार्ग पर प्रसस्त करने हेतु है।जब समाज का कोई भी क्षेत्र कलुषित हो जाए तो उसका उद्धार करना ही सन्यासियों का धर्म भी है और कर्म भी है। आज राजनीति की पतन की जो गति है उसे समय रहते नहीं थामा गया तो पूरे मानव समाज को इसके गंभीर परिणाम भुगतने होंगे। अतः वत्स अपने धेय्य से न भटको और इन्ही राहो पर चलकर ही तुम योग और सन्यास की श्रेष्ठता को सिद्ध करोगे। यह हमारा दृढ़ विश्वास है। इतना कहने के साथ ही प्रभु ध्यानमग्न हो गए।

            उसने प्रभु के चरणों में अपना शीश झुकाकर दंडवत प्रणाम किया। अब उसके चेहरे पर संतोष और दृढ विश्वास की आभा फ़ैल गया। पीछे मुड़कर उन राहो चल दिया जिनसे चलकर आया था। दृष्टि विल्कुल अनंत में टिकी हुई जैसे उसे लक्ष्य स्पष्ट नजर आ रहा हो।