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Saturday, 24 May 2014

सब भरा-भरा है----

ये तो पूरा भरा है . . . 
                   हाँ अब हमें भी पता चल गया है। सब कुछ भरा -भरा सा ही है। अभी तक नैराश्य भाव से ग्रसित था मैं और पहली बार पता चला की अरे गिलास तो आधा नहीं पूरा ही भरा है। आधा पानी से और आधा हवा से। इस दर्शन ने सब कुछ देखने और समझने की शक्ति में जैसे अकस्मात  परिवर्तन कर दिया । मैं अब दुखी हूँ उन लोगो के लिए जो इस दर्शन से अपने आपको आत्मसात नहीं कर पाये है। अचानक लगता है जैसे कितना कुछ बदल गया है। कल तक इन विभिन्न विकास के आकड़ो पर नजर डालता तो देश की शासन व्यवस्था पर मन में सवालिया प्रश्न  हिचकोले लगाने लगते। वंचितो के समूह का तात्कालिक दायित्व से इतर सभी कुछ  संचितो के लिए विशेष रूप से किया जा रहा है ऐसा ही लगता था।किन्तु अब स्थिति में परिवर्तन सा हो गया है। अभी तक के सरकार को कोसने के सिवा और कोई भी रचनात्मक सोच मन में नहीं उठते थे। किन्तु अब सभी पूर्व सरकारों के पूर्वाग्रह से मैं अपने-आपको मुक्त महसूस करने लगा हूँ। मन कितना हल्का सा लगने लगा है। 
             अब देश के अंदर निरक्षर और साक्षर से लगता है लोग बस खेल रहे है। आखिर ये समझ में क्यों नहीं आ रहा है की देश की ७०% जनता का मस्तिष्क यदि किताबो के पन्नो से भरा हुआ है तो बाकि बचे हुए जनता ने किताबी पन्नो से इतर प्रत्येक दिन के जद्दो-जहद भरी विषय के पुस्तक और आखर इन मस्तिष्क में बिठा रखे है। किताबी ज्ञान से भरी जीवन  से बेहतर है सांसारिक ज्ञान को जीवन में उतारा जाय। क्या  बेमतलब के प्रश्नचिन्ह कुछ लोगो ने अपनी शिक्षा व्यवस्था खड़ा कर रखा है? इन आकड़ो को अब बदलना चाहिए। हम सौ फीसदी साक्षर है कुछ किताबो में छपे अक्षरो से और कुछ जीवन के घिसने से बने अक्षरो से। इन फलसपों को पता नहीं पूर्ववर्ती सरकार क्यों नहीं समझ सके। आने वाला कल पता नहीं गरीबी रेखा के नीचे रहने वालो के साथ कौन सा दर्शन  पेस करे। आधी रोटी से पूरी रोटी तक पहुंकते-पहुँचते पिछले सरकार के कितने सांसद संसद के दहलीज छोड़ जाने कहा पहुंच गए। किन्तु अब तो आधी रोटी के लिए बेचैन लोगो को वो भी मिलेगा या नहीं ये कहना दुश्वर है। कही ये धारणा  योजनागत रूप न ले बैठे की जिनका पेट रोटी से नहीं भरा हुआ है उसमे अंतरियाँ  और हवा तो भरे  है। फिर रोटी कि क्या आवश्यकता है ?
         समस्या कही कुछ नहीं है। बस नजरिया ही एक समस्या है। दर्शन जीवन का अंग है। इससे रूबरू होते ही कितनी छोटी-बड़ी समस्या अपने -आप दूर हो जाती है। इसका अनुभव अब मुझे होने लगा है। सब जस के तस होने के वावजूद भी फिजा में लगता है रूमानी ख्याल तैरने लगे  है। हम भी इसमें डूबने-उतरने लगे है।  अपने वृहत अध्यात्म और दर्शन के ज्ञान-कोष पर संदेह हो रहा है। ऐसे तो पढा नहीं है।  किन्तु मुझे दुःख बस इस बात का है कि जीवन दर्शनयुक्त  ये गूढ़ बाते अभी तक किसी मास्टर ने क्यों नहीं समझाया।   गंगा की सफाई के लिए तो नए प्रोजेक्ट बन जायेगे किन्तु मैल से पटे दिमाग को स्वच्छ करने के लिए कौन से आयोग का गठन किया जाएगा ये देखना अभी बाकी है। जो समस्या में समस्या नहीं बल्कि उसका हल देखे। काश आधा भरे ग्लास में आधा हवा कॉंग्रेस ने देखा  होता तो शायद आज ऐसी दुर्गति न होती। किन्तु अब लगता है उन्हें भी सब सही दिखने लगा है।अगर नहीं तो कोई नया नजरिया पेश करे। 

Saturday, 17 May 2014

ये परिणाम क्या कहता है

                                     लोकतंत्र के महापर्व का फैसला आखिर आ गया। अंतिम परिणाम कुछ स्वाभाविक के साथ-साथ अप्रत्याशित भी है। किसी भी देश का जनादेश देश की दशा तथा दिशा तय करने के लिए ही होता है। किन्तु इस बार का जो परिणाम आया है उसको देख के तो   यही लगता है की यह देश की इतिहास को भी दिशा व् दशा देगा। यह अब जाता रहा है की जनता अब किसी के लिए कोई किन्तु परन्तु नहीं छोड़ना चाहती है।   पिछले एक दशक के जनतांत्रिक आकड़ा ये कहता है  की विभिन्न मोर्चे पर अनिर्णय की स्थिति का कारण जनता के  ही   निर्णयों पर थोप दिया जाता है। अब जनता  परिणाम चाहती है  इसलिए   उसने मोटे-मोटे अक्षरो में परिणाम दीवारो पर लिख दिया है। आकांक्षा के अनुरूप सम्पूर्ण समावेशित विकास की गाडी यदि पटरी पर नहीं दौड़ती है तो उसे पुनः उसके हाथो से लगाम खिंच लिया जाएगा।
                      ये परिणाम साफ-साफ़ कहता है की अब जनता बेकार की लफ्फाजी से ऊब गई है। मुद्दो से हटकर मुद्दे बनाने की राजनितिक दलों की आदत से भी अजीज आ गई है।  उसने हर एक की बात को बड़े ध्यान से देखा और सुना है। किसी भी देश की विकास इतिहास के विभिन्न मोड़ पर थमती और सुस्ताती है जहाँ से यह निर्णय इतिहास के पन्ने में दर्ज होता है की अब कारवां किस राह तय करेगा। यह परिणाम इतिहास के एक ऐसे मोड़ को दर्ज करेगा ,जहाँ से देश में लोकतान्त्रिक व्यवस्था के एक नए युग का सूर्योदय दीखता है। यह जनता में जागृत एक ऐसी प्रवृति को वयक्त करता है कि वह मात्र वोट का प्रतिक भर नहीं बल्कि ये निर्णय लेने में अब सक्षम है कि भावनात्मक बातो की जगह अब कार्यात्मक बातो के के ऊपर दृष्टि उसने आरोपित कर दिया है। अब दिल ही नहीं बल्कि दिमाग लगाने का समय आ गया है। 
                  आजादी के बाद से ही बिभिन्न चले सामाजिक और राजनितिक आंदोलनों ने बेशक अनेक उपेक्षित और सामाजिक रूप से पिछड़े वर्गों में राजनैतिक चेतना जो जगाया उसका स्थान इतिहास में योगदान के रूप में दर्ज तो अवश्य होगा। किन्तु उस उपलब्धि को कुछ ही लोगो के द्वारा  हर बार सिर्फ चुनावी फसल काटने भर से वो वर्ग का उथ्थान हो जाएगा ऐसा नहीं है और उसे पहचान कर उससे ऊब चूँकि  जनता ने उन आंदोलनों के जमात को नकार दिया है। ये परिणाम  स्पष्ट रूप से उन हासिये पर रहे वर्गों की भी उद्घोषणा है कि अब सांकेतिक सक्ता से कुछ नहीं होगा। जमीं पर उस उपलब्धी को परिलक्षित करना होगा। जो समाज के सबसे निचले पायदान पर खड़े व्यक्ति के उथ्थान का कारण बन सके।  पहली बार किसी गैर कांग्रेसी पार्टी को जनता ने इस प्रकार का बहुमत दिया है। सेंसेक्स की उचाई कितनी भी छू ले एक राष्ट्र के स्तर पर दुर्भाग्य होगा जो एक भी व्यक्ति को एक साँझ भूके पेट सोना पड़े। मंगल की यात्रा पूरी भी हो तो भी अभिशाप है कि देश में एक भी निरक्षर रहे। समस्या कि फेहरिस्त बेसक लंबी हो किन्तु काम  करने कि मंशा और उसके लिए अपेक्षित पुरुषार्थ यदि किया जाय तो कोई भी समस्या ऐसा नहीं जिसका निदान नहीं हो। जनता ने उसी भरोसे और विश्वास को चुना है। 
                ये परिणाम साफ़ -साफ ये दिखाता है कि बीते कल राजनैतिक सोच और शैली को अब बदलना होगा। बाते अब सिर्फ और सिर्फ तरक्की और विकास कि होगी। नकारात्मक सोच को त्याग कर अब सकारात्मकता कि ओर सभी को कदम बढ़ाना होगा। यदि जो भी पार्टी इस पर खड़ी नहीं उतरती है जनता उसे इतिहास का हिस्सा बनने को बाध्य कर देंगे।आज जिस पार्टी पर जनता ने अपना भरोसा जताया है ,उसे उस जन-आकांक्षाओं पर उतरने का प्रयास अवश्य ही करना होगा ,नहीं तो वे भी गद्दी  से उतार दिए जाएंगे।  अब राजनैतिक पार्टियों को अपना एजेंडा फिर से सेट करना होगा क्योंकि इस परिणाम के द्वारा जनता ने सभी के लिए अपना एजेंडा तय कर दिया है।