Thursday 14 August 2014

जश्ने-आजादी

भूल कर याद करना
और याद कर भूल जाना
बदलना दीवार की तस्वीर को 
या नई दीवार ही बनाना। 
कस्मे ,वादे और
सुनहरी भविष्य के सपने
यादो में धंसे शूल
और भविष्य के सुनहरे फूल। 
सब कुछ पूर्ववत सा
पहले ही जहन में उभर आता है
रस्मो अदायगी ही मान
सब जैसे गुजर जाता है। 
फिर नया क्या है
ये उमंगें कुछ-कुछ
जैसे  बनवाटी  तो नहीं। 
मर्म छूती  है कही क्या 
या महज दिखावटी तो नहीं। 
किससे ये छल 
या खुद से छलावा है। 
एक दिन की ये बदली तस्वीर 
किसके लिए ये  दिखावा है। 
यादों को जो रोज नहीं जीते 
इस दिन का इंतजार है
करने के इरादे का क्या 
जब लफ्फाजी का बाजार है। 
तालियां बजाकर कब तक 
गर्दिशों के दिन जाते है 
जूनून एक रोज का क्यों हो 
हर दिन जश्ने-आजादी मनाते है।  

Wednesday 9 July 2014

खाली मन .....?? ?

जब यहाँ कुछ भी नहीं था 
तब भी बहुत कुछ था 
कुछ होने और न होने की 
कयास ही बहुतो के लिए
बहुत कुछ था। 
फिर मै बैचैन क्यों होता हूँ 
की अब मेरे मन में क्या है ? 
नहीं कुछ उमड़ने घुमड़ने पर भी 
कही न कही अंतस के किसी कोने में 
कुछ बुलबुले छिटक उठते है 
और अपनी नियति में 
जाने कहाँ सिमट जाते है। 
इन बुलबुले से किसी 
धार बन जाने की चाहत में 
बस बुलबुले का बनना और 
मिट कर शून्य में विलीन हो जाना    
मन में एक क्षोभ जाने क्यों 
भर जाता है।  
अनायास कितने प्रकार के 
तरंग छिटक जाते है 
कुछ समेटु उससे पहले ही 
कितने विलीन हो  जाते है।  
किन्तु एक बुलबुले में खोना भी 
कितना कुछ कह जाता है। 
शून्य सा दिखता ,शून्य को समेटे 
शायद सब शून्य है,ऐसा कह जाता है। 
बाह्य प्रकाश के पाने से 
कैसी सतरंगी छटा छटकती है 
खाली मन को भी 
उम्मीदों के कई रंग भर जाती है। 
शून्य  मन क्या शांत और गंभीर है, 
या इस निर्वात को भरने की 
झंझावती तस्वीर है ,
जद्दोजहज जारी है 
मन में कुछ नहीं होना 
क्या बहुत कुछ का होना तो नहीं है ? 

Thursday 3 July 2014

छोटी सी ख़ुशी

                                     मैं  कभी-कभी सोचता हूँ की आखिर विकास के अवधारणा के साथ -साथ ,क्या  मन में उत्त्पन्न खुशी  के अवधारणा के साथ  कही कोई संबंध  है ? या क्या ऐसा तो नहीं की मन में उठने वाले खुशियों के तरंग  के आयाम के साथ विकास या कहे कि सुख -सुविधा के आयाम में पारस्परिक न होकर अंतर्विरोधी सम्बन्ध हो। विकास जब शारीरिक सुख सुविधाओ का अनन्य भोग देता है तब दिल के हिलोरों में ठहराव कैसे महसूस हो रहा है।क्या दोनों अलग इकाई है या एक होते भी अलग -अलग है?पता नहीं ऐसा क्या हो रहा है जिससे लगता है की परेशानी तो थी किन्तु मजा ज्यादा था। इस मजा का कोई ऐसा पैमाना नहीं मिल पा  रहा जिसपे उसे तोल सकूँ  या कोई गणितीय सम्बन्ध स्थापित कर सकूँ की पहले के असुविधा और दिल में उमंग और आज की सुविधा और घटते ख़ुशी की  तरंग को किस इकाई में विवेचन करूँ। क्या ऐसा कोई सिद्धांत है जिसपर इसका परखा जा सके?
                                   अभी-अभी कुछ दिन पहले अपने गाँव से लौटा हूँ। बदलाव बदसूरत जारी है। विकास के पटरी पर दौरता हमारा रेलवे स्टेशन प्रगति के पथ पर अग्रसर है।पटरियों ने छुद्र से अपने आपको विस्तारित रूप में परिवर्तित कर दिया है।पहले से कही ज्यादा ट्रेने अलग-अलग गंतव्य  के लिए उपलबध है। पर पता नहीं क्यों ऐसा महसूस होता है कि अब आसानी से उपलब्ध ट्रेने पहले के मुकाबले यात्रा के रोमांच को उसी अनुपात में कम कर रहा है। नहीं तो फिर  बचपन की कौतूहलता का उमंग उम्र के बढते बोझ से दब सा गया।कुछ तो ऐसा है की दोनों के बीच तारतम्य या सामंजस्य नहीं बैठ पा रहा है।  ऐसा तो नहीं अज्ञान के भाव में उमंग कि लहरे ज्यादा हिलोर मारती है और ज्ञान कि बहती धार में उमंग हिचकोले खाता हुआ डूबता प्रतीत होने लगता है। कुछ तो ऐसा ही है ,नहीं तो क्यों ऐसा हुआ कि आज जब पटरियों पर दौड़ती ट्रेन प्लेटफॉर्म कि ओर अग्रसर था तो मन यंत्रवत सा सिर्फ और सिर्फ उसके आने का इन्तजार कर रहा था। पहले वाली वो घंटियों के टन -टन जो कि ट्रेन के आने कि सुचना होने के साथ शुरू होती थी और उमग और कौतुहल काले -काले धुओं  और इंजन के पास आने की तीव्रता के अनुपात में बढ़ती थी वो नदारद था। ऐसा तो नहीं कि अभी भी कुछ ऐसा महसूस करने का प्रयास कर रहा हूँ जहाँ उम्र के इस पड़ाव पर महसूस करने की चाहत बचकानी लगे। या ट्रेने की तरह तेज भागती जिंदगी  इसमें खोने या महसूस करने का अब समय ही नहीं देती। इन छोटी सी ख़ुशी और उमंग दिल में नहीं कौंधने के कारण एक ही साथ कई सवाल दिल में कौंध गए।शायद बड़ी ख़ुशी के चाह में स्वाभाविक रूप से उठने वाले छोटी -छोटी  ख़ुशी कहीं न कहीं हर कदम पर स्वतः ही दम तोड़ देता और हमें पता भी नहीं चलता। या उमंग और ख़ुशी ने अपना रूप बदल लिया हो और मैं उसे समझ नहीं पा रहा हूँ। मन कि निश्छलता प्रकृति स्वरूप न रह कर अपनी प्रकृति समय के साथ जाने कैसे बदलती है? शायद यही कहीं इसकी प्रकृति तो नहीं ?       

Sunday 29 June 2014

आसमां से परे

आसमां से परे
एक आसमां की तलाश है, 
सुदूर उस पार क्षितिज के 
जहा धरती और गगन 
मिलने को बेकरार है।  
और जो अब तक मिल नहीं पाये 
बस और थोड़ा दूर 
न जाने अब तक कितने फासले नाप आये 
किन्तु फिर भी वही  दुरी, पास-पास है।  
और इसपर पनपते जीव ने 
उस धरती से  कांटे नहीं तो 
आसमां के शोलो को ही 
बस दिल में बसाया है। 
हैरत नहीं की उसने भी 
इन दोनों के प्यार को बस 
छद्म ही पाया है। 
प्रतीत होता है और है का अंतर 
सबने ज्ञान से अर्जित किया है, 
प्रेम की पहली परिभाषा ही 
अब यहाँ दूरियों में अर्पित किया है। 
जिसको किसी की चाह नहीं 
हर किसी ने दुसरो में वही देखा है। 
मैं  प्रेम का सागर हूँ 
बाकी में सिर्फ  नफरत की ही रेखा है। 
न देखे इस आसमां से बरसते शोलों को
या धरा पर चलते फिरते शूलों को,  
चलो इससे परे कोई आसमां ढूंढेंगे  
जहाँ धरती गगन एक दूसरे को चूमेंगे। । 

Monday 26 May 2014

आशा भरी पहल


                              इतिहास गतिमान है। बिलकुल समय की धार की तरह। हर वक्त पल-पल का लेखा जोखा कही न कही रखा जा रहा है। अंतर बस इतना है की कुछ पल स्वर्ण अक्षरो में दर्ज होते है और कुछ के लिए बस नीली स्याही उकेड़ दी जाती है। वक्त की धूल भरी कितनी भी मोटी  परत उसके ऊपर क्यों न चढ़ जाए स्वर्ण अक्षरो में दर्ज समय अपनी चमक यो ही बिखेर देते है बाकी इतिहास के पन्नो में धूल धूसरित हो जाते है। बदले हुए स्थिति इतिहास के कई मान्यताओ को बदल कर रख देता है। पुराने पन्नो को पलटने से बेहतर है की कोई नए अध्याय की शुरुआत की जाय।उसमे दर्ज तथ्यों के ऊपर ही मंथन छोड़ या तो अब नए कायदे शुरू करने का समय है या नहीं तो कम से कम  इसे तो परखा तो जा ही सकता है। हेकड़ी भरी एक उद्घोषणा लाखो कड़ोरो के मन को आलादित कर सकता है किन्तु वो जीवन से जुड़ी मानवता के बंधन को बस तार-तार ही करती है। यूँ तो भारतीय इतिहास उन मनीषियों और मानवता के रक्षको से भरा परा है जो  सम्पूर्ण सृष्टि समुच्चय को ही अपने वाणी और कर्तव्य से उद्घोषित  करता रहा है।
                          तमाम कड़वे अनुभव के वावजूद भी नयी सुबह के उम्मीद का दामन न छोड़ने कि सोच  ही मानव समाज को एक नयी दिशा और ऊर्जा  देता है। आग्रह और पूर्वाग्रहों के बीच का कोई न कोई रास्ता तो अख्तियार करना ही होगा। असंवाद की दीर्घकालिक परिणीति सिर्फ और सिर्फ अविश्वास की खाई को और गहडा ही कर सकता है। उस अंधकूप की ओर जहाँ उम्मीद की कोई स्याह किरण भी न दिखाई पड़े , कदम बढ़ाना किसी के भी हित में नहीं होगा। अपने हितो की रक्षा और दूसरों के हितो का सम्मान ही इस देश की युगो पुरानी परमपराएँ है। बदलती मान्यताओ के साथ भी हमने अपने परम्परा को कायम रखा है। एक नयी पहल एक नए युग का सृजन कर सकता है। भविष्य के गर्भ में छिपे परिणाम को अभी तो जानना कठिन है किन्तु यदि नेकनीयत से कोई भी कदम उठाया जाता है परिणाम सकारात्मक होते है। विगत अनुभव अवश्य ही ऐसे विचारो के ऊपर ग्रहण लगते हो किन्तु अपनी ओर  से एक पहल सामने वाले को पुनः एक बार सोचने को मजबूर तो करेगा। इतिहास इस बात का साक्षी है की युद्ध की अंतिम परिणति भी शांति के के मेज वार्ता पर ही हुई है। फिर कदम को उतना बढाने से पूर्व क्यों न एक बार पुनः मिल बैठ कर प्रयास किया जाय। बेसक ये अतिश्योक्तिपूर्ण हो किन्तु कितना अच्छा हो यदि मानव सीमा से आजाद हो पाते। 

Saturday 24 May 2014

सब भरा-भरा है----

ये तो पूरा भरा है . . . 
                   हाँ अब हमें भी पता चल गया है। सब कुछ भरा -भरा सा ही है। अभी तक नैराश्य भाव से ग्रसित था मैं और पहली बार पता चला की अरे गिलास तो आधा नहीं पूरा ही भरा है। आधा पानी से और आधा हवा से। इस दर्शन ने सब कुछ देखने और समझने की शक्ति में जैसे अकस्मात  परिवर्तन कर दिया । मैं अब दुखी हूँ उन लोगो के लिए जो इस दर्शन से अपने आपको आत्मसात नहीं कर पाये है। अचानक लगता है जैसे कितना कुछ बदल गया है। कल तक इन विभिन्न विकास के आकड़ो पर नजर डालता तो देश की शासन व्यवस्था पर मन में सवालिया प्रश्न  हिचकोले लगाने लगते। वंचितो के समूह का तात्कालिक दायित्व से इतर सभी कुछ  संचितो के लिए विशेष रूप से किया जा रहा है ऐसा ही लगता था।किन्तु अब स्थिति में परिवर्तन सा हो गया है। अभी तक के सरकार को कोसने के सिवा और कोई भी रचनात्मक सोच मन में नहीं उठते थे। किन्तु अब सभी पूर्व सरकारों के पूर्वाग्रह से मैं अपने-आपको मुक्त महसूस करने लगा हूँ। मन कितना हल्का सा लगने लगा है। 
             अब देश के अंदर निरक्षर और साक्षर से लगता है लोग बस खेल रहे है। आखिर ये समझ में क्यों नहीं आ रहा है की देश की ७०% जनता का मस्तिष्क यदि किताबो के पन्नो से भरा हुआ है तो बाकि बचे हुए जनता ने किताबी पन्नो से इतर प्रत्येक दिन के जद्दो-जहद भरी विषय के पुस्तक और आखर इन मस्तिष्क में बिठा रखे है। किताबी ज्ञान से भरी जीवन  से बेहतर है सांसारिक ज्ञान को जीवन में उतारा जाय। क्या  बेमतलब के प्रश्नचिन्ह कुछ लोगो ने अपनी शिक्षा व्यवस्था खड़ा कर रखा है? इन आकड़ो को अब बदलना चाहिए। हम सौ फीसदी साक्षर है कुछ किताबो में छपे अक्षरो से और कुछ जीवन के घिसने से बने अक्षरो से। इन फलसपों को पता नहीं पूर्ववर्ती सरकार क्यों नहीं समझ सके। आने वाला कल पता नहीं गरीबी रेखा के नीचे रहने वालो के साथ कौन सा दर्शन  पेस करे। आधी रोटी से पूरी रोटी तक पहुंकते-पहुँचते पिछले सरकार के कितने सांसद संसद के दहलीज छोड़ जाने कहा पहुंच गए। किन्तु अब तो आधी रोटी के लिए बेचैन लोगो को वो भी मिलेगा या नहीं ये कहना दुश्वर है। कही ये धारणा  योजनागत रूप न ले बैठे की जिनका पेट रोटी से नहीं भरा हुआ है उसमे अंतरियाँ  और हवा तो भरे  है। फिर रोटी कि क्या आवश्यकता है ?
         समस्या कही कुछ नहीं है। बस नजरिया ही एक समस्या है। दर्शन जीवन का अंग है। इससे रूबरू होते ही कितनी छोटी-बड़ी समस्या अपने -आप दूर हो जाती है। इसका अनुभव अब मुझे होने लगा है। सब जस के तस होने के वावजूद भी फिजा में लगता है रूमानी ख्याल तैरने लगे  है। हम भी इसमें डूबने-उतरने लगे है।  अपने वृहत अध्यात्म और दर्शन के ज्ञान-कोष पर संदेह हो रहा है। ऐसे तो पढा नहीं है।  किन्तु मुझे दुःख बस इस बात का है कि जीवन दर्शनयुक्त  ये गूढ़ बाते अभी तक किसी मास्टर ने क्यों नहीं समझाया।   गंगा की सफाई के लिए तो नए प्रोजेक्ट बन जायेगे किन्तु मैल से पटे दिमाग को स्वच्छ करने के लिए कौन से आयोग का गठन किया जाएगा ये देखना अभी बाकी है। जो समस्या में समस्या नहीं बल्कि उसका हल देखे। काश आधा भरे ग्लास में आधा हवा कॉंग्रेस ने देखा  होता तो शायद आज ऐसी दुर्गति न होती। किन्तु अब लगता है उन्हें भी सब सही दिखने लगा है।अगर नहीं तो कोई नया नजरिया पेश करे। 

Wednesday 21 May 2014

उफ़ ये गर्मी .....

                             सुबह का समय ब्लॉग पर बैठने का उपयुक्त लगता है। मौसम में तल्खी थोड़ी कम होती है। हलकी -हल्की संवेदना भरी हवा दिमाग को थोड़ी ठंडक और राहत पहुचाती है। किन्तु अब जैसे लग रहा चुनाव के ज्वार से निकलने के बाद भी तापमान शेयर बाजार में उछाल की तरह जारी है। सारे इंसानी इंतजामो पर मौसम ने अपना रंग चढ़ा रखा है। तापमान भी शायद इन परिणामो से उत्साहित होकर कुलांचे भड़ने को बैचैन दिख रहा है। समझ नहीं पा रहा हूँ कि इसके लिए किसपर नजर टिकाऊ। ऊपर वाले कि कुदृष्टि समझूँ इसे या जमीन पर रहने वाले विभिन्न  पेशेवर लोगो कि दूरदृष्टि, द्वन्द कायम है। ऐसे तो सारे कारणों  में से एक कारण बहुत ही आसान दीखता है क्यों न इसके लिए भी पूववर्ती सरकार को ही जिम्मेदार मान लिया जाय।  घर तो खैर घर है जहाँ बहुत प्रकार के इंसानी मरहम उपलब्ध है किन्तु खुला आसमान आकर्षित नहीं कर रहा है। मुक्ति की तमाम आग्रहों के बावजूद भी लगता है कही कैद हो जाना ही बेहतर। उधर मौसम बिभाग ने भी रस्म अदायगी करते हुए बता दिया है। फुहारे पड़ने में अभी लगभग पंद्रह दिन का वक्त है। इतने दिनों तक अभी कितने लोग जल-जल जिएंगे कहना मुश्किल है। चुनाव में जले और भस्म हुए के लिए वो मानसून कोई नया जीवन दान दे पायेगा  या नहीं ये कहना तो मुश्किल है। किन्तु जिसको सिर्फ ताप लगा वो अवश्य ही बूंदो में अपने संताप के डुबोने का प्रयास तो  कर ही  सकते है। जो इनसे इतर है वो इसके श्रृंगार से खुद को सुशोभित करने को आतुर तो होंगे ही। 
                          बहुतो के लिए प्रचंड ऊष्मा के तल्ख़ तेवर अब भी मन मष्तिष्क में  शीतोष्ण प्रभाव कायम रखे होंगे। चेहरे पर छाई भावना की भावुकता युक्त लहर में बह कर इस गर्मी में भी ताल तालिया में डुबकी का आनंद महसूस कर रहे होंगे। दिक्कत बस उनके किये है जो अपने जीवन दर्शन में भावना में बहना मनुष्य की कमजोरी समझते है और कमजोरी से निजात पा कर लू से टकरा-टकरा कर हौसला कायम रखे है। किन्तु भावना प्रधान देश के नागरिको के लिए ही छह ऋतुओ का सौगात है। प्रचंड तीखी धुप में मन -मस्तिष्क पर अपना नियत्रण रखने का अभ्यास  ही तो हमें ऐसे पांच वर्षीय आयोजन में उठते ताप को सहन करने का क्षमता प्रदान करता है। 
                  अब खिड़की से आने वाली हवा साँप की तरह फुफकार छोड़ रही है। बेहतर यही लगता है कि फुफकार डस ले उससे पहले उनका रास्ता बंद कर दिया जाय। किन्तु हम अपने आपको को कहा तक बंद रख पाएंगे ये तो पता नहीं । कही प्रकृति ने ये मौसम इस लिए भी तो नहीं बनाया कि स्वछंद उन्मुक्त विचार के हिमायती मानव मस्तिष्क कभी-कभी बंधन को महसूस करे  और इसका अभ्यास भी कायम रहे। खैर इससे पहले की ये फुफकार किसी को डसे हम तो यही आशा करते है कि जल्द ही खुला आसमान श्वेत -श्याम चादरों से ढक जाए और दिल खोल कर बुँदे नाचे।  जिसमे भीगकर प्रकृति के गर्मी और मानव ताप किसी में भी झुलसे लोगो के दिल में ठंडक पहुंचे।     

Saturday 17 May 2014

ये परिणाम क्या कहता है

                                     लोकतंत्र के महापर्व का फैसला आखिर आ गया। अंतिम परिणाम कुछ स्वाभाविक के साथ-साथ अप्रत्याशित भी है। किसी भी देश का जनादेश देश की दशा तथा दिशा तय करने के लिए ही होता है। किन्तु इस बार का जो परिणाम आया है उसको देख के तो   यही लगता है की यह देश की इतिहास को भी दिशा व् दशा देगा। यह अब जाता रहा है की जनता अब किसी के लिए कोई किन्तु परन्तु नहीं छोड़ना चाहती है।   पिछले एक दशक के जनतांत्रिक आकड़ा ये कहता है  की विभिन्न मोर्चे पर अनिर्णय की स्थिति का कारण जनता के  ही   निर्णयों पर थोप दिया जाता है। अब जनता  परिणाम चाहती है  इसलिए   उसने मोटे-मोटे अक्षरो में परिणाम दीवारो पर लिख दिया है। आकांक्षा के अनुरूप सम्पूर्ण समावेशित विकास की गाडी यदि पटरी पर नहीं दौड़ती है तो उसे पुनः उसके हाथो से लगाम खिंच लिया जाएगा।
                      ये परिणाम साफ-साफ़ कहता है की अब जनता बेकार की लफ्फाजी से ऊब गई है। मुद्दो से हटकर मुद्दे बनाने की राजनितिक दलों की आदत से भी अजीज आ गई है।  उसने हर एक की बात को बड़े ध्यान से देखा और सुना है। किसी भी देश की विकास इतिहास के विभिन्न मोड़ पर थमती और सुस्ताती है जहाँ से यह निर्णय इतिहास के पन्ने में दर्ज होता है की अब कारवां किस राह तय करेगा। यह परिणाम इतिहास के एक ऐसे मोड़ को दर्ज करेगा ,जहाँ से देश में लोकतान्त्रिक व्यवस्था के एक नए युग का सूर्योदय दीखता है। यह जनता में जागृत एक ऐसी प्रवृति को वयक्त करता है कि वह मात्र वोट का प्रतिक भर नहीं बल्कि ये निर्णय लेने में अब सक्षम है कि भावनात्मक बातो की जगह अब कार्यात्मक बातो के के ऊपर दृष्टि उसने आरोपित कर दिया है। अब दिल ही नहीं बल्कि दिमाग लगाने का समय आ गया है। 
                  आजादी के बाद से ही बिभिन्न चले सामाजिक और राजनितिक आंदोलनों ने बेशक अनेक उपेक्षित और सामाजिक रूप से पिछड़े वर्गों में राजनैतिक चेतना जो जगाया उसका स्थान इतिहास में योगदान के रूप में दर्ज तो अवश्य होगा। किन्तु उस उपलब्धि को कुछ ही लोगो के द्वारा  हर बार सिर्फ चुनावी फसल काटने भर से वो वर्ग का उथ्थान हो जाएगा ऐसा नहीं है और उसे पहचान कर उससे ऊब चूँकि  जनता ने उन आंदोलनों के जमात को नकार दिया है। ये परिणाम  स्पष्ट रूप से उन हासिये पर रहे वर्गों की भी उद्घोषणा है कि अब सांकेतिक सक्ता से कुछ नहीं होगा। जमीं पर उस उपलब्धी को परिलक्षित करना होगा। जो समाज के सबसे निचले पायदान पर खड़े व्यक्ति के उथ्थान का कारण बन सके।  पहली बार किसी गैर कांग्रेसी पार्टी को जनता ने इस प्रकार का बहुमत दिया है। सेंसेक्स की उचाई कितनी भी छू ले एक राष्ट्र के स्तर पर दुर्भाग्य होगा जो एक भी व्यक्ति को एक साँझ भूके पेट सोना पड़े। मंगल की यात्रा पूरी भी हो तो भी अभिशाप है कि देश में एक भी निरक्षर रहे। समस्या कि फेहरिस्त बेसक लंबी हो किन्तु काम  करने कि मंशा और उसके लिए अपेक्षित पुरुषार्थ यदि किया जाय तो कोई भी समस्या ऐसा नहीं जिसका निदान नहीं हो। जनता ने उसी भरोसे और विश्वास को चुना है। 
                ये परिणाम साफ़ -साफ ये दिखाता है कि बीते कल राजनैतिक सोच और शैली को अब बदलना होगा। बाते अब सिर्फ और सिर्फ तरक्की और विकास कि होगी। नकारात्मक सोच को त्याग कर अब सकारात्मकता कि ओर सभी को कदम बढ़ाना होगा। यदि जो भी पार्टी इस पर खड़ी नहीं उतरती है जनता उसे इतिहास का हिस्सा बनने को बाध्य कर देंगे।आज जिस पार्टी पर जनता ने अपना भरोसा जताया है ,उसे उस जन-आकांक्षाओं पर उतरने का प्रयास अवश्य ही करना होगा ,नहीं तो वे भी गद्दी  से उतार दिए जाएंगे।  अब राजनैतिक पार्टियों को अपना एजेंडा फिर से सेट करना होगा क्योंकि इस परिणाम के द्वारा जनता ने सभी के लिए अपना एजेंडा तय कर दिया है।  

Thursday 15 May 2014

अच्छे दिन आने वाले है

काफी जल्दी में लग रहा था।  उसने दीवार के कोने में किल में टंगी कुर्ते को उतरा।  जिसके बाजू और धर के बीच बने फासले जिंदगी में उसके स्थिति को बांया कर रहे थे। बनियान में गर्मी के हिसाब से हवा आने जाने के लिए अपना रास्ता पहले ही बना रखा था। उसकी पत्नी वही बगल में बैठी दिन भर पेट में जलने वाली आग को बुझाने के लिए डब्बे में जाने क्या कौन सी जलधारा ढूंढ़  रही थी।घर के छत से आसमान झांक रहा था।
आज सुबह -सुबह कहाँ की तैयारी है ? पत्नी ने पूछा 
अरे कुछ पता भी है तुम्हे बस सवाल ही पूछोगी  और तो दिन दुनिया कि कोई खबर नहीं …। आँखों में कुछ अजीब चमक आ गया  था।
आखिर ऐसा क्या हो गया है ? उसके दिनचर्या में अचानक बदलाव को वो समझ नहीं पा  रही थी।
अरे हमारा गमछा कहाँ है। लगभग खिजते  हुए पूछा
बौरा गए हो क्या ? खांसते हुए पलट कर बोली काँधे पे ही तो रखे हो।
वो लगभग झेप कर बोला ठीक बोलती हो लगता है मैं  भी अब सठिया गया हूँ।
लेकिन बात आखिर किया है अब कुछ बोलोगे भी आखिर इतने सुबह-सुबह जा कहाँ रहे हो।
आज दिन के लिए चावल भी नहीं है ,दिन में किया बनेगा ?बेवसी उसके चेहरे पे झलक रही थी।
सब हो जाएगा अब हर दिन एक जैसा थोरे ही होता है। आँखों में विश्वास की परिछाई उभर आई थी।
किन्तु आखिर ऐसा क्या होने जा रहा है ?बीते कल की बेबसी  बातो में ज्यादा थी।
ऐसा मत सोचो इसबार कुछ तो बदलेगा।  उत्साह उसके बातो में झलक रहा था।
सालो से ऐसे ही सुन रही हूँ। क्या इसबार कोई भानुमति का पिटारा मिल गया है जो सुबह -सुबह चल  दिए हो।
कुछ ऐसा ही सोचो। उसने विश्वास दिलाने के लहजे में कहा।
अरे देख नहीं रहे हो सब उधर ही जा रहे है।
आखिर किधर ?
तुम तो बस इसी चूल्हा में उलझी रहो तो का पता चलेगा।
उसके पत्नी के चेहरे पर अविश्वसनीय भाव उभर आये।
उत्सुकता से  पूछी -क्या इस चूल्हे की उलझन को कोई सुलझा दिया है ?
बिलकुल ठीक समझी ----वही तो लाने जा रहा हूँ।
अच्छे दिन आने वाले है शायद वहां कुछ हमें भी मिल जाय। आवाज में सुन्दर भविष्य की खनक थी।
और  उसके बातों से पत्नी के चेहरे पर बेवसी पूर्ण मुस्कान उभर आये, नासमझ तो नहीं है आखिर इतने सालो से तो उसके साथ है ।  

Sunday 11 May 2014

शो जारी है......


वन मैन शो 

वृत्त चित्र 
                        राज साहब कि फ़िल्म "मेरा नाम जोकर" का  यह संवाद  "द शो मस्ट गो औन " लोकतंत्र के महापर्व को चरितार्थ कर रह है। बिभिन्न शो में फिल्म देखने के आदि  जनता अब पूर्ण  रुप से सामान्यतः पांच वर्ष मे बनने वाली फ़िल्म के क्लीमेक्स मे शो के अलग-अलग अंदाज का मजा लेने मे लगे हुयें  है। पहले हकीकत को पर्दे पर उतारने कि दुहाई फिल्मकार देते थे ,किन्तु अब राजनीती के  मजे  निर्देशकों ने पुरे फ़िल्मी दुनिया को जैसे हकीकत के जमीं पर उतार दिया है।मैटनि शो ,नून शो ,इवनिंग शो से लेकर रात्रि शो का  विषेश  प्रसारन अब अन्तिम चरन मे आ गया है। प्रतिबद्ध रचनाकारों कि अलग-अलग टोली अपनी क्रियात्मक कार्य -कलापों से वास्तविक जमींन के उपर न जाने कितने विभिन्न प्रकार के क्षद्म और आभासी  स्टेज़ बना रखे है।इन फिल्मकारों को गुमान है की जिसके सामने बैठ कर दर्शक हकीकत के  सिसकते स्वर सरगम  के उपर भी सुरीली बांसुरी सा लुफ्त लेंगे। जहाँ जनता दर्शक भर बन कर "टैग लाइन" वाले संवादों पर तालिया बजाते है और मुख्य किरदार उन तालियों के आवांज को अपनी सस्तुति समझ कर स्वतः अपना  पीठ ठोंकने में लगे हुये है। जिन संवादों के ऊपर सेंसर बोर्ड अब तक बैन लगाते आये  है उन सैंसर बोर्ड को अब फिल्मकार कि दलील भविष्य मे बैन लगाते वक्त  अवश्य सुनना पड़ेगा। क्योंकि इस शो में संवाद अदायगी के दौरान  कोइ भी रि-टेक नहि लिया  जा रहा है।आपत्ति और अनापत्ति के बीच फ़िर उससे भी दोहरी मारक क्षमता वाले संवादों का  प्रयोग बदसूरत ज़ारी है। 

प्रायोजित फ़िल्म 
                    अब जनतंत्र मे लोक चुनाव एक समान्य प्रक्रिया  भर नही  रह गया है। अलग-अलग राजनीतिक दल "राम गोपाल वर्मा की फैक्ट्री " जैसे प्रोडक्शन हाउस बन गए है। जहाँ अब सब कुछ वास्तविकता से कोसों दुर शिल्पकारों की  रचना के अनुरुप बस अभिनय करते प्रतीत हो रहे है। कई बार लो बजट की भी फ़िल्म सुपर-डुपर हिट  हो जाती है ,वैसे हि अलग-अलग जगह से लो बजट के  कईं नये राजनीतीक रचनाकार अपना  उत्पाद भी ज़नता के सामने परोसने मे लगे है। आखिर जनता तो जनार्दन है जाने क्या पसन्द आ जाये। किसकी किस्मत का पिटारा बॉक्स ओफ़िस पर खुल जाये ये कौन जानता है ? प्रकाश झा को अवश्य हि इस सत्य का  भान हुआ होंगा की राजनीति पर फ़िल्म बनाने से बेहतर तो फिल्मो जैसी राजनीति है। जहाँ एक बार दाव  लग गया तो पाँच साल के लिये बॉक्स ऑफिस पर हिट। जैसे बाहु-बली चुनाव मे मदद करते-करते खुद ज़नता की मदद करने सब कुछ त्याग कर आ सकते है तो "पंच लाईन " के रचनाकार अपनी रचनाधर्मिता का उपयोग जनता की सेवा मे क्यों नहि कर सकते ?

फिल्म कि सफलता … बस 
                                  आखिर इस शो मे ऐसा कौन सा तत्व नहीं है जो इसे जनता के बीच लोकप्रिय न  बनाये। नायक ,खलनायक ,नायिका ,सह-कलाकार ,जूनियर आर्टिस्ट ,संगीतकार,गीतकार ,सँवाद लेखक से लेकर मंच सज्जा और न जाने क्या -क्या सब इस शो को सफल बनाने मे लगे हुये है।विदूषकों कि टोलियां अपने मसखरेपन पूरी वयवस्था के बदलते मायने को अपने अंदाज मे समझाने मे लगे है। किन्तु जनता किसके शो से सबसे ज्यादा खुश है ये तो आने वाला समय ही  बताएगा ,जब बोक्स ऑफिस के पिटारे को १६ मई को खोला जाएगा।
                              
                             जनता भी अब मसहूस करने लगी है ,परिवर्तन की सब बाते बस दंगल के पेंच है स्थिति तो जस का तस ही बना  रहता  है ,चलो इस से मनोरंजन कर कुछ तो मन बहलाया जाय। हकीकत से कोसो दूर ये कलाकार अब बस सभी को सब्जबाग हि दिखा  रहे है। जैसे दावे और प्रतिदावे न होकर क़ादर खान के संवाद वाले नौटंकी चल रहा हो । कुछ आस्था के भग्नावेश पर नौलक्खा इमारत गढने कि तागिद कर रहे  तो ,कुछ ने सपने कैसे देखने  है इन सपनो को देख़ने कि सपनें दिखा  रहे है।कुलबुलाहट के बीच पनपने वाली जिंदगी इन सब नजारो को देख कर बस मन मसोस कर रह जाती और वास्तविकता से इतर अब सिर्फ़ मन बहलाने का बहाना ही इन प्रायोजित कार्यक्रमो में  देख कर किसी नये स्र्किप्ट लेखक का इन्तजार करने लगती है।अब जनता वोटर न होकर बस दर्शक दीर्घा से दर्शक बन  सब देखने को मजबूर है, उसे इस बॉक्स ऑफिस मे टिकट गिराने की बेवसी को समझना शायद कुछ कठीन है । वोट की कीमत कितनी है समझाने मे करोड़ लगाने ,उस वोटर को पोलिंग बूथ तक लाने मे बेहिसाब खर्च करने वाले के लिये जमीनी सच्चाई को समझने मे और उसके उपदान के लिये उसका एक भाग भी यदि  मनोयोग से जनता के कल्याण को लगाने को इच्छुक  दीखते तो संभवतः इस शो को बॉक्स ऑफिस मिले सफलता की संगीत कि गूंज  आमजन के दिल मे बजता और इससे अजीज ज़नता कहता " शो अवश्य जारी रहे "।  (सभी चित्र गूगल साभार ) 

Tuesday 6 May 2014

शक्तिपीठ भदुली भद्रकाली.......१०० वीं पोस्ट

                                               ॐ जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी। 
                                                दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोSस्तु ते। । 
"शक्तिपीठ भदुली भद्रकाली मंदिर"
             अकस्मात कभी कुछ संयोग ऐसा बन जाता है कि अपनी हृदय मे आह्लादित ख़ुशी दैवीय कृपा के रुप मे प्रतीत होता है। ऐसा ही ख़ुशी महसूस  हुई जब "शक्तिपीठ भद्रकाली " के दर्शन क सौभाग्य प्राप्त हुआ। काफी वर्ष झारखण्ड में व्यतित करने के बाद भी इस शक्तिपीठ के विषय मे अनभिज्ञ था। कहते है जब माता बुलाती है तो कोइ न कोइ सन्योग निकल हि आता है। वैसा हु कुछ इस दर्शन के दौरान हुआ।  लब्धप्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विद्यानंद झा की पुस्तक "शक्तिपीठ भदुली भद्रकाली" जो कि उक्त शक्तिपीठ के ही है उपर है,जो झारखण्ड राज्य के चतरा ज़िला अन्तर्गत "ईटखोरी " प्रखंड मे अवस्थित है। पुस्तक के लोकार्पण समारोह मे शामिल होने वावत निमंत्रण  पत्र प्राप्त हुआ। समारोह की तिथी ४ मई रविवार को सुनिश्चित कि गई थी। श्री विद्यानन्द  झा बिहार प्राशासनिक सेवा से सेवानिवृत अधिकारी है। अपने प्रशासनिक सेवा के दौरान कई वर्ष उस क्षेत्र मे विभिन्न दायित्व का  निर्वहन उन्होने किया था।  
 तीन -चार दिन पूर्व निमंत्रण पत्र मिला था। किन्तु गर्मी के बढ़ते प्रकोप के काऱण निश्चित निर्णय नहीं  कर पा रहा था।अकस्मात मौसम ने रंग बदलना शुरु किया जैसे उक्त कर्यक्रम मे शामिल होने के लिये देवी माँ  कि क्रिपा वृष्टि हो रही है। पहले तो सोचा स्वयं चला जाय किन्तु श्रीमतीजी ओर और पुत्र के द्वारा उग्र विरोध प्रदर्शन उस क्षणिक विचार के उपर पूर्ण विराम लगा  दिया। अवकाश का दिन होने के कारण मेरे पास और कोइ आधार नहीं था जिसके बहाने मै क़ोई   दलील पेस कर पाता।इसी दौरान एक सहकर्मी मित्र ने भी उक्त कार्यक्रम मे शामिल होने के लिये मिले निमंत्रण के विषय मे बताया ,चलो एक से अच्छे दो परिवार। भक्ति और पर्यटन के अपने अपने ख़ुशी से श्रीमतीजी और पुत्र दोनो रोमांचित हो गये  जैसे  हि  मैने उद्घोषणा किया  कि कल प्रातः हमलोग  "शक्तिपीठ भद्रकाली "  लिए प्रस्थान करेंगे।
माँ भद्रकाली
                             सुबह-सुबह रविवार के दिन तय कि हुई गाड़ी द्वार पर खडी हो गई। निर्धारित समय पर हमलोग सभी तैयार थे किन्तु मित्र सपरिवार आने मे कुछ विलम्व हो गये। जगह के विषय में ज्यादा जानकारी नही होने के कारण मनोज गाड़ी चालक, जो क़ी उपयुक्त व्यक्ती था उसने बताया कि  ईटखोरी बोकारो से लगभग २०० कि मी की दुरी पर है और अनुमानतः तीन से चार घंटे लगेंगे। बोकारो से सीधे राष्ट्रिय राजमार्ग -२३ पकड़ कर  रामगढ़  कैंट   के रास्ते हम बढ़ चले। बीच में लगभग ४० की मी की दुरी पर रास्ते मे रजरप्पा मुख्य सड़क से लगभग १० की मी अंदर दामोदर और भैड़वी नदि के मुहाने  एक प्रमुख विख्यात शक्तिपीठ  माँ छिन्नमष्तिका है जिसे हमने मन ही मन  प्रणाम किया।                      रामगढ़ कैंट झारखण्ड का  एक प्रमुख जिला शहर है साथ हि साथ यहॉँ सिख तथा पँजाब रेजिमेंट के काऱण इसकी  अपनी महत्ता है। जिसकी दुरी बोकारो से लग्भग ७० की मी है।  रामगढ़ से लगभग पांच कि मी पहले हि हमने  राष्ट्रिय राज मार्ग -३३ से होते हुए हजारीबाग कि ओर चल पड़े। पुरे रास्ते रमणीक माहोर दृशय देख दिल खुश हो गया। प्रकृति की खुबसुरती  का आनंद कुछ रुक उठने क मन कर रह था किन्तु पहले हि विलम्ब होने के काऱण ये इच्छा को दबा दिया ।   हजारीबाग से लगभग २० की मी राष्ट्रिय राज मार्ग -३३ पर चलने के बाद बीच से इटखोरी जाने वाले रोड मे मूड़ गये। जहाँ एक छोटा बोर्ड रोड के किनारे इटखोरी मोङ दर्शाते हुये लग हुआ है।   जहाँ से लगभग ३० की मी और दुरी शेष था। 

                     लगभग ११:३० बजे हम मंदिर के मुख्य प्रांगण मे पहुच चुके थे। वही एक सभा मंडप था जिसके अन्दर पुस्तक लोकार्पण का समारोह आयोजित किय गया था। सबसे पहले हमने माँ कि पूजा अर्चना कि।  अष्टधातु गोमेद से बनी माँ कि मूर्ति से अलौकिक आभा को प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर किया जा सकता है। माँ का ये मंदिर "भदुली " नदी के  किनारे स्थित है इसलिए "भदुली भद्रकाली" के रुप मे से भी  ये प्रषिद्ध है।मंदिर परिसर काफी मनोहर और आकर्षक है। प्रागै ऐतिहासिक काल से शक्ति स्वरूप भगवती का प्रसिद्ध पुजा स्थल है। ईटखोरी का नामकरण बुद्ध काल से सम्बद्ध है और किवदंती है की यहाँ गौतम बुद्ध अटूट साधना किये थे। जैन साहित्य के १० वे तीर्थंकर शीतला स्वामी का जन्म स्तन भदुली को ही कहा जाता है।   पंडित विद्यानन्द  झा ने अपनी पुस्तक मे इस मन्दिर के पौराणिकता के साथ-साथ इसके एतिहासिक पहलूँ पर भी  प्रकाश डाला  है।  आध्यात्मिक दृष्टिकोण से यह स्थान प्रागैतिहासिक है एवम महा काव्य काल ,पूराण काल से संबन्धीत है। ऐतिहासिकता के दृष्टिकोण से इस मन्दिर का निर्माण पाल वंश के राजा महेन्द्र पाल प्रथम (९८८ से १०३८ ई )के शासन के दौरान किय गया। यह स्थल हिन्दू ,जैन और बौद्ध धर्म के प्राचीन काल से समन्वय स्थल है। 


     
पुस्तक "शक्तिपीठ भदुली भद्रकाली" का लोकार्पण 
      पंडित विद्यानन्द  झा कि पुस्तक उक्त  शक्तिपीठ के आध्यात्मिकता  , पौराणिकता  और ऐतिहासिकता के विभिन्न बिन्दूओं के बीच परस्पर अनुसंधानात्मक विवेचना है। माँ भद्रकाली का प्रादुर्भाव ,उपासना ,माहात्म्य आदि विभिन्न महत्वपूर्ण बिन्दुओ क वर्णन इस पुस्तक मे है। लोकार्पण समारोह में जिला प्रशासनिक अधिकारियो के आलावा मुख्य अतिथि के रुप मे डा विन्देश्वर पाठक,जो कि किसी परिचय के मोहताज नहीं है और "सुलभ-स्वछता -आंदोलन " से दुनिया उन्हे जानती है , समारोह स्थल पर मौजूद थे। मंच पर और भी कई प्रख्यात लेखक मंचासीन थे। कार्यक्रम का आयोजन पुस्तक के प्रकाशक  "सरोज साहित्य प्रकाशन " दरभंगा (बिहार ) के द्वारा किया गया था। ज्ञात हो की पंडित झा की कई कृतियाँ मैथिली मे भी  है। 
धर्म विहार 
                  
      समारोह  के दौरान कुछ सांस्कृतिक कार्यक्रम भी  प्रस्तुत किये गये। उसके प्रसाद स्वरूप भोजन कि समुचित व्यवस्था आयोजको द्वार कि गई थी।  सभी प्रसाद ग्रहण के लिये प्रस्थान किये। हमलोगो ने भी प्रसाद ग्रहण किया। समय अपने अंदाज में निकलता जा रहा पुरा मन्दिर परिसर भी  नहि घुमा अंतः उसके बाद मन्दिर परिसर के आलावा चारो ओर फैले गहन जॅंगल मे छाये नीरव शांती को महसुस कर, चुंकि सुरज भी मध्यम पड्ता जा रहा था।  इसलिए समय और इजाजत नहि दे रह था कि उस शांति क और आनन्द ले सके। बच्चे भी अब थकान महसूस कर रहे थे।  अब घर जल्द-से जल्द पहुचने क था ,घङी की सुइ छह पर था। अतः हम  सभी गाडी मे सवार हो मा को प्राणाम कर वापस वापस बोकारो के लिये प्रस्थान कर गये।      
                 माँ भद्रकाली सब पर कृपा करे। जय माँ भद्रकाली। 

Monday 28 April 2014

बदलते पैमाने

रौंद कर सब शब्द 
उससे गुजर गए,
कुछ दिल को भेद
कुछः ऊपर से निकल गए। 
अलग-अलग करना 
अब मुश्किल है, 
जिंदगी जहर बन गया 
नहीं तो जहर जिंदगी मे घुल गये। 
लानत और जिल्लत के बीच
वो खुद को ढूढ़ रहा था,
जलालत की सब बातें जब से
इंसानी सरोकारों में मिल गए।
सबने चिंता दिखाया 
कल के लिये सब बैचेन दिखे,
कुछ को देश निकाला मिला तो 
कुछ को समुन्दर मे डुबों दिये।
बदलेगा क्या 
ये तो वक्त बताएगा, 
किन्तु सब भाव अब 
वोट के कीमत मे सिमट  गये। 
जो जरिया है और   
तरक्की का पैमाना है बना,  
उस लोकतंत्र में चुनाव ने  
सारे पैमाने बदल दिये। ।    

Thursday 24 April 2014

अंतहीन समर

न जाने कितनी आँखे
रौशनी की कर चकाचौंध
ढूंढती है उन अवशेषों में
अतीत के झरोंखे की निशां। 
गले हुए कंकालो के
हड्डियों की गिनतियाँ
बतलाती है उन्हें 
बलिष्ठ काया की गाथा।
और नहीं तो कुछ 
सच्चाई से मुँह मोड़ना भी तो 
कुछ पल के लिए श्रेस्कर है 
स्वप्न से  क्षुधाकाल बीते यदि 
विचरण उसमे भी ध्येयकर है। 
किन्तु होता नहीं उनके लिए 
जो अपने गोश्त को जलाकर  
बुझातें है अपनी पेट की आग
और रह-रह कर अतृप्त कंठ 
रक्त भी पसीना समझ चुसती है।
आज संभाले जिसके काबिल नहीं 
विरासत का बोझ भी डालना चाहे 
झुके कंधे जब लाठी के सहारे अटके है 
उस भग्नावेश की ईंटों को कैसे संभाले। 
उस विरासत में कहीं जो
आनाज का  इक दाना शेष हो
उसे पसीने से सींच कर,
अब भी लहलहाने की जिजीविषा 
सूखे मांशपेशियों के रक्त संग सदैव है  
किन्तु निर्जीव पत्थरों  में भाव जगता नहीं 
जबतक  भूख संग अंतहीन समर शेष है। ।  

Sunday 20 April 2014

चित्रलेखा के साथ, एक कोने की तलाश


                          सरकारी सेवा के सौजन्य से छठे दशक तक सरकारी आवास की सुविधा के बावजूद भी सर पर छत की सुनिश्चितता उनकी प्राथमिकता सदैव से रही है। आखिर गाँव-गाँव है ,जहाँ उत्तरार्ध का जीवन व्यतीत करना उनको लगता है ज्यादा कठिन होगा। फिर इसकी उपलब्धि का सुख उन्हें बार बार रोमांचित करता है मैं बार -बार टाल जाता हूँ।   फिर भी बीच-बीच में इसी  "हम " के बीच " मैं"  के लिए भी एक कोना तलासने का प्रयास अर्धांगिनी कर्तव्य को निभाते हुए प्रयत्नशील थी। जिसमे गूगल बाबा का पूर्ण सहयोग तथा सपनो के आशियाने प्रदान करने वाले की मिश्री युक्त वार्तालाप का विशेष प्रभाव था की रह-रह कर मुझे कुछ करने को प्रोत्साहित करती रहती ,जैसे मैं कुछ कर ही नहीं रहा हूँ। वर्तमान को न जी कर भविष्य सुधारने की तर्कसंगत बातो में मेरी दिलचस्पी कभी ज्यादा नहीं रही। वर्तमान को सही तरीके से जिया जाय तो भविष्य सुन्दर भूत में परिवर्तित होगा ऐसा मेरा मानना है। फिर भी अर्धांग्नी की विचार का आदर न करना कर्कश संगीत के साथ सुरालाप करने जैसा है और आदर करके उसपर कदम न उठाना उनके प्रति प्रेम-निष्ठां पर प्रश्न चिन्ह। 
 इसलिए काफी मसक्कत के बाद मैं उनके विचारों से सहमति जताया तो आनन फानन में हमने कार्यक्रम  भी निश्चित कर दिया। मैंने भी सोचा चलो एक बार अपने "मैं" के लिए एक कोना ढूंढ़ ही लेते है। किस शहर में ये कोना होगा ये उनके द्वारा पहले ही निश्चित किया जा चुका था। क्योंकि मेरे व्यक्तिगत राय से शुरु से ही वाकिफ होने के कारण  की मुझे अपने गाँव की धूल  काफी आकर्षित करती है ,उसके आलावा बाकी सभी शहर मेरे लिए एक जैसा ही है ,मुझे उनके प्रस्ताव पर कुछ विशेष कहने को नहीं था। क्योंकि गाव की वातावरण में अभी भी "हम" का ही अस्तित्व है सो "मैं " को ढूंढने मुझे किसी शहर में ही जाना पड़ेगा। 
                      अपने वरिष्ठ अधिकारी को इस सम्बन्ध में बताया तो उन्होंने भी श्रीमतीजी के प्रस्ताव पर अपनी ख़ुशी प्रकट की तथा सलाह दिया अभी समय है नहीं तो समय यु ही निकल जाएगा। साथ ही साथ अवकाश के सन्दर्भ में कोई अनापत्ति नहीं दर्ज किया जो की मुख्य उदेश्य था। 
 सफर में हमसफ़र
                      अवकाश स्वीकृत होते ही तत्काल में आरक्षण हेतु प्रयास किया अतिरिक्त खर्च कर सुविधा पाने में सफल रहा। कार्यक्रम कुछ पहले से प्रस्तावित्त न होने के कारण जल्दीबाजी में अपने जरुरत के सामान ले कर चल दिए। चूँकि जिस शहर का प्रस्ताव था वहां पहले से ही बड़े भइया रहते है इसलिए कुछ विशेष चिंता नहीं थी। शुरू से ही यात्रा में कुछ उपन्यास ले कर चलने की आदत ही बेशक उसे पढ़े या नहीं उससे कोई विशेष फर्क नहीं पड़ता। सो एक पुस्तक अलमीरा से निकल कर रख लिया। श्रीमतीजी ने इसपर भी आपत्ति जताई जब पढ़ना था तभी याद नहीं अभी ढूंढते चलते है। मैंने  मुस्कुराकर व्यंग वाण का रुख विपरीत कर दिया। उन्होंने नजर हटा ली और अपने काम में लग गई। 
                      हम दो हमारे एक तीनो ने अपना-अपना एक एक बैग लिया और स्टेशन को प्रस्थान कर गए। ट्रेन अस्वभाविक रूप से निश्चित समय पर होने के कारण स्वभाविक ख़ुशी दिल में आलोड़ित हुई। अपने गंतव्य आरक्षित सीट पर बैठने के साथ ही श्रीमतीजी जी भावी कार्क्रम में खो गई जबकि बेटा अष्टम वर्ष के अपने उम्र के  अनुरूप ट्रेन के साथ-साथ चल रहे वृक्ष और पेड़ पौधों में खो गया। मैं पहले किये हुए गलती को सुधरने के लिए बैग में रखे पुस्तक को बाहर निकला। हाथ में भगवती चरण वर्मा  की प्रसिद्ध उपन्यास "चित्रलेखा" पाया। काफी बार पढ़ने के बाद भी हर बार यह एक नया अनुभव देता है। दिल में प्रसन्नता हुई चलो  सफर अच्छा कटेगा। 
                    राजधानी ट्रेन के सेवा के अनुकूल सभी सेवा समय से यात्रीगण को खुश करने के प्रयाश में लगे हुए थे। इसी  बीच पुस्तक का प्रथम पेज पलटा और वही प्रश्न -"और पाप " महाप्रभु रत्नाम्बर से श्वेतांक ने किया। जिसके जवाव में उन्हने कहा की इसे तुम्हे संसार में ढूँढना पड़ेगा जिसके लिए उनके दोनों शिष्य श्वेतांक और विशालदेव ने अपने  आपको सहर्ष प्रतुत किया। उसी बीच में चाय के लिए श्रीमतीजी द्वारा पूछना जैसे खलल डालना प्रतीत हुआ। वैसे वो किसी भी सेवा का अधिकतम उपभोग में यकींन  रखती है। वैसे रखना भी चाहिए आखिर मूल्य भी तो चुकाया जाता है। 
               जैसे जैसे ट्रैन की गति बढ़ती जा रही थी मैं  भी पढ़ने की  गति बढ़ता जा रहा था। अब विशालदेव कुमारगिरि योगी के कुटीर में और श्वेतांक बीजगुप्त के प्रसाद में पाप को ढूंढने एक वर्ष के लिए  पहुंच चुके थे और ट्रेन अपने अगले ठहराव पर।
             बीजगुप्त और चित्रलेखा के द्वारा जीवन का सुख क्या है। इसके चर्चा से कहानी दोनों के मस्ती उल्लास-विलास में मादकता का पूट लिए आगे बढ़ती है। जो जीवन में सुख ,अनुराग ,विराग ,पाप और पुण्य को तलाशने के क्रम में आगे बढ़ती है। जब रत्नाम्बर द्वारा  श्वेतांक बीजगुप्त के बैभव में पाप का पता लगाने के छोड़ दिया उसी बीच में श्रीमती जी ने पुस्तक को छोड़ कर खाने के लिए आमंत्रित किया। राजधानी ट्रेन में भोजन की व्यवस्था होने के कारन वो पहले से ही खुशी थी की अतिरिक्त भार  नहीं पड़ेगा। हम दोनों के बीच उसी क्रम में पुनः चर्चा हो ही गई जिससे मैं  पुस्तक के द्वारा बच रहा था। किन्तु जब कुमार गिरी विशालदेव को मन को  शुद्ध और ममत्व से मुक्त रहने के लिए प्रयत्न करने को कहते है।यह एक तपस्या है और तपस्या में दुःख नहीं है और इच्छाओ को दबाना उचित नहीं ,इच्छाओ को तुम उत्पन्न ही न होने दो। मुझे लगा मैं और मेरी श्रीमतीजी दोनों सही है उन्होंने इच्छाओ को दवया नहीं और मैंने इच्छा को जगाया नहीं। 
            भोजन समाप्ति के उपरांत पुत्र निंद्रा देवी के आगोश में चला गया और मैं पुनः विशालदेव के इस विचार में उलझ गया की मनुष्य उत्त्पन्न होता है क्यों ?कर्म करने के लिए। उस समय कर्म के साधनो को नष्ट कर देना क्या विधि के विधान के प्रतिकूल नहीं है। उधर श्वेतांक चित्रलेखा के विचार से  दिग्भ्रमित है जब वो कहती है -पिपासा तृप्त होने की चीज नहीं है। आग को पानी की आवश्यकता  नहीं है ,उसे धृत की आवश्यकता होती है जिससे वो और भड़के। जीवन एक अविकल प्यास है। उसे तृप्त करना जीवन का अंत करना है। जीवन हलचल है ,परिवर्तन है और हलचल तथा परिवर्तन में सुख और शांति का कोई स्थान नहीं है। इसी बीच खाने के उपरांत दिए जाने वाले  आइसक्रीम बढ़ाया मैं  कहानी में अतिरिक्त हलचल को आमंत्रित नहीं करना चाहता था अतः उसे इंकार कर दिया। श्रीमतीजी खुश हो गई। आइसक्रीम खाने के बाद उन्होंने अब सोने का निश्चय  किया। मैं लाइट के बंद होने तक पुस्तक छोड़ना नहीं चाह रहा था। 
                     इसी बीच कुमारगिरि के आश्रम पर बीजगुप्त और चित्रलेखा पहुंचे। चित्रलेखा ने मस्तक नवा कर कहा -" पतंग को अंधकार का प्रणाम " । सौंदर्य में कवित्व और वासना  की मस्ती में अहंकार। अनुराग और विराग के दार्शनिकता का तथ्य  लिए योगी और नर्तकी के बीच संवाद जीवन के विभिन्न आयामों को सम्बोधित कर बढ़ रहा था। क्रांति और शांति का मुकाबला ,जीवन और मुक्ति होड़ बढ़ चली थी। "शांति और सुख " शांति अकर्मण्यता का दूसरा नाम है जबकि सुख की कोई परिभाषा नहीं है। योगी के लिए ये जीवन का विद्रूप सिंद्धांत था। तब तक प्रकाश के कारण अन्य यात्री को थोड़ी असुविधा होने लगा। मैं  भी नींद में सुख को देख उसी के आगोश में चला गया। 
                सुबह नींद खुलने पर पुत्र ने इतना मौका नहीं दिया दिया की जीवन के विभिन्न पहलुओ को पुस्तक में झाँकू। अब ट्रेन अपने गंतव्य पर पहुंच चूका था। हमलोग अपना-अपना सामान ले कर ठिकाने के लिए चल दिए। पहुचने पर भइया को हमारे आने प्रयोजन चुकी पहले से ही पता था  अतः उन्होंने कहा आराम करने के बाद चलेंगे। 
                इस बीच बिभिन्न कोनो में छत की तलाश जारी रही। समाचार पात्र में सपनो के आशियाने पर तालाबंदी का समाचार पहले आकर्षण पर तुषारापात कर दिया। न्यूज चैनलों पर आवेदको के आँखों में भविष्य की श्याह परछाई दिल को भयभीत कर दिया। सरकार के तमाम आलोचनाओ के वावजूद भी सभी का एक मत से राय था की हमे अब ऐसा ही कोना लेना था जिसे सरकार ने खुद बनाया हो। इस प्रकार के कई परियोजनाओं को देखने में अवकाश के दिन निकल गए। कंक्रीट के बियावान में समकालीन शारीरिक सुविधाओ के अनुसार एक कोना हमने तय कर दिया। अब जल्द से जल्द वापस आना था।  क्योंकि अभी तक की जमाई और और आगे की कमाई के ऊपर ही दिए जाने वाले दस्तावेज की जरुरत थी जिस पर कुछ आने वाले वर्षो में नाम हमारा और लिखित कागद पर किसी और का अधिकार होगा। इसी दौरान चित्रलेखा कुमारगिरि की और बीजगुप्त परिस्थिगत कारण  से मृत्युंजय की पुत्री यशोधरा की ओर आकर्षित होते दिख रहे थे। कुमारगिरि विराग से अनुराग की और सफर करने लगा जबकि चित्रलेखा के दिल में विराग ने अपना घर बनाना शुरू कर दिया। 
                 हमने भी भविष्य की योजना को कार्यान्वित करने के लिए एक सप्ताह उपरान्त  ट्रेन पकड़ लिया,जो की पहले से ही सुनिश्चित था । अब बीजगुप्त जीवन के उल्लास से उचट शांति की तलाश में काशी पहुंच गए जहाँ यशोधरा भी साथ हो गई। बीजगुप्त जिससे दूर भाग रहा था परिस्थिति उसे नजदीक ला  रही थी जबकि जबकि चित्रलेखा जिसकी नजदीक जाना चाह रही थी अब उससे दूर भाग रही थी। बीच में विशालदेव और श्वेतांक पाप और पुण्य के बदलते निहितार्थ अनुराग और विराग , शांति और सुख के मध्य ढूंढने का प्रयास कर रहे थे। जब बीजगुप्त यशोधरा से ये कहता है की हम स्थान को नहीं पसंद करते है -स्थान तो केवल एक जड़ पदार्थ हम वातावरण को पसंद करते है जिसके हम अभ्यस्त हो जाते है। कितना सही है एक घटना ने वातावरण को प्रभावित किया और हमने अपना निर्णय बदल दिया। राजधानी ट्रेन अब राजधानी से अपनी दूरी  बढाती जा रही थी। मैं ट्रेन और जीवन के हलचल से दूर  पुस्तक में अपने लिए शांति तलाश रहा था। श्रीमतीजी भावी कटौती पर विचार कर रही थी जबकि पुत्र इन सबसे मुक्त अपनी दुनिया में अपने खेल-खिलौने के साथ खोया हुआ था। मनुष्य परतंत्र है परिस्थिति का दास है ,वह करता ही नहीं साधन मात्र है। बीजगुप्त के इस विचार से मैं पिछले एक सफ्ताह से सामंजस्य बैठाने का अध्यनरत चिंतन कर रहा था। कर्तव्य मुख्य है सुख या दुःख नहीं। 
               इसी बीच रात्रि के भोजन में कुछ यात्रीगण के आलोचना की पनीर शुद्ध नहीं है।  बीजगुप्त को सन्यासी द्वारा कहना घूम गया की -कृत्रिमता को अब हमने इतना अधिक अपना लिया की वो अब स्वयं ही प्राकृतिक हो गई है। वस्त्रो का पहनना भी अप्राकृतिक है। प्राकृतिक जीवन एक भार है उसमे  हलचल  लाने के लिए ही बिभिन्न उपक्रम किये गए है। दुःख को कृतिम उपाय द्वारा दूर करना आत्मा का हनन नहीं है यदपि वह अप्राकृतिक है किन्तु स्वभाविक। -बीजगुप्त उठ खड़ा हुआ मैं भी खाने के उपरांत हाथ धोने चल दिया। 
                 कहानी अपनी परिणीति की और अग्रसर था और मैं भी इस हलचल को सोने से पहले ही शांत करना चाहता था। क्योंकि की ट्रेन सुबह सुबह ही मुझे अपने से अलग कर देगा और पुनः मौका मिलने की सम्भावना अगले यात्रा से पहले शायद संभव कम ही होगा,  ऐसा ही मुझे लगता था। परिस्थिति का क्रम बदल रहा था। कुमारगिरि वासना के अभिभूत अपने मार्ग से च्युत हो रहा था ,चित्रलेखा जिस विराग को अनुभव करने आई थी वहां प्रेम संग छल नजर आ रहा था ,बीजगुप्त अब आत्मा के अस्थाई मिलन के भाव को समझ यशोधरा की और आकर्षित था ,जबकि श्वेतांक जीवन के प्रेम में  ऊष्मा को अब महसूस करने लगा था। विशाल देव ध्यानस्थ समाधी में अग्रसर था। 
                 श्वेतांक और यशोधरा से प्रेम ,बीजगुप्त के लिए ये जानकारी दिल में ज्वाला उत्त्पन्न कर दिया। वह प्रेम के स्थाई और अस्थाई के विचार में प्लावित होने लगा। चित्रलेखा का अस्थाई प्रेम है ऐसा उसका दिल मानने को तैयार नहीं था। बीजगुप्त का त्याग और श्वेतांक का यशोधरा से मिलन परिस्थिति के कर्ता होने के भाव को पुष्ट करता  हुआ बिलकुल अंतिम परिच्छेद में आ चूका था। सह यात्री के निवेदन पर की प्रकश को बंद कर दिया जाय ,मुझे खुद भी अपने ख़ुशी के लिए दूसरे के कष्ट को अनदेखी करने पर छोभ हुआ। किन्तु मैं अब इस कहानी की पराकाष्ठा पर यु ही नहीं उसे छोड़ना चाहता था अतः बाहर निकल अटेंडेंट के सीट पर निवेदन कर बैठ गया जबकि वो थोड़ा और खिसक कर सो गया। 
स्वेतांक का विवाह अब यशोधरा से हो गया। बीजगुप्त अपनी सारी संपत्ति उसे दान कर दिया। संसार में चित्रलेखा और बीजगुप्त भिखारी बनकर निकल पड़े ,जिसका आधार प्रेम और सिर्फ प्रेम था। 
               एक वर्ष बाद जब स्वामी रत्नाम्बर मिले तो उहोने गृहस्थ स्वेतांक से पूछा -बीजगुप्त और कुमारगिरि दोनों में कौन पापी है और यही प्रश्न विशालदेव से। दोनों के जवाव अलग अलग थे। तो उन्होंने कहा -जो मनुष्य करता है वो स्वभाव के अनुकूल होता है  और स्वभाव प्राकृतिक। मनुष्य अपना स्वामी नहीं परिस्थितियों का दास है -विवश है। कर्ता नहीं है केवल साधन मात्र फिर पाप और पुण्य कैसा। प्रत्येक मनुष्य सुख चाहता है पर उसके केंद्र अलग होते है कुछ धन में देखते ,कुछ मदिरा में देखते है कुछ अन्य में किन्तु सुख प्रत्येक व्यक्ति चाहता है। यही मनुष्य की मनः प्रवृति है उसकी दृष्टिकोण की विषमता। किन्तु सुख हर कोईचाहता है।  उस समय मुझे सुख सोने में नजर आ रहा था और उसके पश्चात सोने चल दिया।
              दिमाग के किसी कोने में प्रस्तावित कोने की तलाश में श्रीमतीजी के दिल में सन्निहित सुख के विषय में सोचने लगा।  यदपि इसमें पहले की असहमति में अपने सुख का कोना भी नजर आया। सार्वभौमिक आत्मा के एकाकार की स्थिति में भी उसको अलग पहचान का कोना चुकी अन्य  सदस्यों की सहमति का रूप ले चूका था अतः उसके प्राप्ति के विभिन्न स्रोतों के विषय में विचार करता हुआ अनचाहे सुख में खो गया। पुनः निकट आने वाले समय के विषय में इस यात्रा के समाप्ति के उपरांत ही सोचने पर बाध्य हो गया। संभवतः परिस्थिति मुझ पर हावी होने लगा था ।     

Monday 7 April 2014

आंसू

बहते आसुओं कि लड़ी को 
उम्मीदो के धागे से बाँध कर 
मैंने अर्पित कर दिया उसी को 
जिसने ये सोता बनाया। 
न कोई मैल है न शिकायत 
की ये झर्र -झर्र कर बहते है 
शुष्क ह्रदय कि इस दुनिया में 
मुझसे  खुशनसीब कौन है। 
ये गिर कर बिखर न जाए 
बस इतना ही फ़िक्र करता हूँ 
की और कोई मोतियों की लड़ी नहीं 
जो मै तुझको समर्पित कर सकूँ। 
मांगू क्या और तुझसे 
न मिले तो भी रिसती है 
और मिलने के बाद भी 
फिर यूँ  ही बहकती रहती है। 
मैं  जानता हु तू मेरा है ये जताने के लिए  
दर्द बन कर यूँ ही  सताता है 
और तेरी रहमत का क्या कहना 
साथ में आंसू भी दवा बन आ ही जाता है। ।   

Sunday 6 April 2014

शब्दो की प्रत्यंचा

                              भाषा शास्त्र समृद्धि के नए सोपान चढ़ रहा है। शब्दों के नए नए निहितार्थ निकाल  शब्दकोशों को समृद्ध करने का बृहत प्रयास किया जा रहा है।  जिन शब्दो को लोग सुनने में भी कतररते थे उनका इस्तेमाल करने में हिचक ही नहीं गर्वोक्ति का अनुभव किया जा रहा है। आरोपो और आक्षेपों कि अद्भुत बिजली गरज रही है। लोग चौंधिया जा रहे है। इस चमक से स्वाभाविक रूप से आँखों को समझ में नहीं आ रहा है कि आखिर वास्तविकता क्या  है। भीड़ युक्त जनतंत्र में सिर्फ जन ही जन  ही दिखाई पर  रहे है, तंत्र जैसे सिकुड़ कर कही दुबक गया है।  हर कोई उस तंत्र को समृद्ध करने के नए -नए सब्ज बाग़ लगा रहे है ,शब्दों के फव्वारे चला कर उसे सीचने का भरपूर प्रयत्न किया जा रहा है। ये वैसा ही लग रहा है जैसे कि आसमान से तेज़ाब कि बारिश हो रही है। एक जवान लोकतंत्र कि त्वचा काफी कठोर लग रही है और सहन करने में अपने आपको  सक्षम पा रहे है।शब्दो की प्रत्यंचा पर नए नए अर्थों के  तुणीर छोड़े जा रहे है। मुकाबला लगभग बराबरी का चल रहा है। जो इस मुकाबले से उदासीन है और अभी भी त्वचा मुलायम है  उन्होंने अपने -आपको इस परिदृश्य से बाहर  कर रखा है और ध्वनि रोधक छतरी फैला कर ही बाहर निकल रहे है। 
                    अगला परिणाम जो भी हो किन्तु अगर उसे भी ये  लोकतंत्र के मंदिर में  शब्द भजन और आजान कि तरह गूंजना शुरू  कर देंगे,और यदि अपने आपको विज्ञ कहलाने वाले कुछ लोगो ने ऐतराज किया तो इनकी सर्वसम्म्ति से इंकार करने का कोई कारन नहीं दीखता । हम कुछ और पर गर्व करे या न करे इतना तो कर ही सकते है कि जिन शब्दों को अनावश्यक परदे के भीतर रखा जाता था उसे भी हमने लोकतंत्र के उद्दात परम्परा का वहन  करते हुए आजादी दे दी है। आख़िर कोई भी परतंत्रता कि बेड़ी इन्ही शब्दो के सहारे ही तो काटता है फिर उन्ही शब्दो को घेरे में रखना आखिर अन्याय ही तो है। कम से कम इतना तो हो रहा है,कितनी आसानी से हवा में स्वच्छन्द हो ये शब्द तैर रहे है। जैसे -जैसे ये शब्दों ने तैरना शुरू किया विचारो में उत्तेजना का प्रभाव चारो तरफ दिखने लगा है।इस महोत्सव में किसके स्टॉल पर कितने जाते है और  कौन किस किस का हिसाब करेगा उसके समझ के लिए इन नए प्रयोगो को भी समझना होगा। अब देखना है कि इन शब्दो के धनुर्धर में कौन मछली की  आँख कि तरह घूमने वाले जनता के दिल को भेद पाता है।   

Friday 4 April 2014

अंतहीन प्रश्न चिन्ह ?

न बदलते अश्क
अद्भुत प्रकृत की प्रवृति,
जब अंगवस्त्र की भांति
जिस्म धारण है करता,
प्रवंचना किस बात का फिर
दोष किसको कैसे कौन मढ़ता ।
शाश्वत है अजन्मा है
अदाह और अच्छेद भी
फिर कहाँ से कलष
इसमें स्वतः ही प्रवेश करता। ।
चिरन्तन  है स्थिर साथ ही
अचलता का भाव गर्भित
फिर अस्थिर हो कैसे मचलता।
सनातन से भाव शाश्वत
शोक और संताप शाश्वत
मन के भाव जब कलष छाये
फिर ये कैसे निर्विकार रहता।
क्यों वास हो इस अवध्य सार का,
अलौकिक इसके अद्भुत निखार का,
ढो रहा जब उद्भव से निर्वाण तक
किन्तु फिर भी अव्यक्तता का भाव धर
व्यक्त दोष इस हाड़ -मांस क्यों है जड़ता।
रंगहीन जब अंग -वस्त्र
आत्मा कैसे हो क्लेश त्यक्त
पोड़ -पोड़ पीड़ा नसों में
ज्ञान का सब सार व्यर्थ। 
जठराग्नि की ज्वाला
उद्भव से जो जला रही है 
उस दिव्य उद्घोषणा पर 
एक अंतहीन प्रश्न चिन्ह लगा रही है। । 

Wednesday 2 April 2014

माया

वंचित आनंद से और 
संचित माया का राग ,
जीवन के हर दुःख में बस इसका प्रलाप 
फिर स्व उद्घोषित माया क्या ?
माया तो कुछ भी नहीं
लोलुपता का महा-काव्य है
खुद से छल, अनुरक्त से विरक्ति
लोभ -प्रपंच से सिक्त
निकृष्ट प्रेम का झूठा प्रलाप है।
हर वक्त ह्रदय में आलोड़ित
असीम  आनंद कि तरंगे,
सुरमई शाम के साथ
विहंगो कि कलरव उमंगें,
सब से विमुख हो
और करते प्रलाप ,
डसे जाने का त्राश, 
जीवन के द्वारा ही जीवन को।
फिर माया के नाम का करते आलाप है 
किन्तु यह निकृष्ट इच्छा का प्रलाप है।
गढ़ा है खूब वक्त कि कालिख से 
की इसके स्याह आवरण ने ढक दिया है,
उस श्रोत को जो अनवरत
बस आनंद का श्रृजन  करता है। 
और हम भटकते रहते है 
उस खोज में जीवन के, 
जो श्रृष्टि  ने आदि से ही 
हर किसी  के संग लगाया है। 
माया की महिमा को 
जीवन के दर्शन में क्या सजाया है ,
जैसे दर्शन जीव का न हो निर्जीवों कि काया है।  
और अनवरत चले जा रहे है, 
उसी निर्जीव में सजीव आनंद की  चाह लिये,
जिसे माया के नाम पर 
जाने कब से ह्रदय में उठते आनंद को, 
हमने स्व-विकृत चाह में इसे दबाया है। 
आनंद को माया के नाम छलना ही संताप है 
क्योंकि यह निकृष्ट सुख का छद्म प्रलाप है। । 

Thursday 27 March 2014

ठगे -ठगे सब बमभोला बन जाते ..

हर उलझन को ये सुलझा दे 
और सब कुछ है फिर उलझा दे 
बड़े-बड़े वादों से आगे अब 
हर चौक पे होर्डिंग लगवा दे। 
नए-नए ब्रांडो की लहरे 
थोक भाव में बेच रहे है  
जनता क्या सरकार चुने अब 
देश नहीं सिर्फ बाजार पड़े है। 
गांधी जी के बन्दर भांति 
आमजन बैठे-बैठे है 
मूड पढ़े कैसे अब कोई 
न कुछ देखे न ही सुने है। 
वोटर सब नारायण बनकर  
हवाई सिंघासन पर लेटें है 
दोनों हाथ उठे है लेकिन 
मुठ्ठी बंद किये ऐंठे  है। 
लोभ ,लालच प्रपंच में कितने 
रुई कि भांति नोट उड़े है 
सेवक सेवा कि खातिर अब 
कैसे-कैसे तर्क गढ़े है।  
बेसक कल लूट जाये नैया 
लगा दांव सब पड़े अड़े है 
आश निराश के ऊपर उठ कर 
द्वारे-द्वारे भटक फिर रहे है। 
किसकी किस्मत कौन है बदले 
आने वाला कल कहेगा 
जो करते सेवा का  दावा 
कितने सेवक वहाँ लगेगा। 
मंथर चक्र क्रमिक परिवर्तन 
सब पार्टी में अद्भुत गठबंधन 
तुम जाओ अब हम आ जाते 
ठगे -ठगे सब बमभोला बन जाते। 

Sunday 9 March 2014

अंतहीन


ये गाथा अंतहीन है
बनकर मिटने और
मिट -मिट कर बनने की।
प्रलय के बाद
जीवन बीज के पनपने की
और विशाल वट बृक्ष के अंदर
मानव जीवन को समेटने की।
रवि के सतत प्रकाश की
राहु के कुचक्र ग्रास की
कुरुक्षेत्र में गहन अंधकार की
विश्व रूप से छिटकते प्रकाश की।
अद्भुत प्रकृति के विभिन्न आयाम
जीवन के उद्गम श्रोत का  भान
पुनः अहं ज्ञान बोध कर
उसे बाँधने को तत्पर ज्ञान। 
द्वन्द और दुविधाओं से घिरकर 
श्रृष्टि के उत्कृष रचना 
अपने होने का अभिशाप कर 
अंतहीन विकास के रास्ते 
जाने कौन सा वो दिन हो 
जब मानव भूख के  
हर अग्निकुंड में 
शीतल ज्वाला की आहुति पड़े।  

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हर उद्भव के साथ
समग्र को समाने का प्रयास
ह्रदय को बस
एक सान्तवना सा है।
काल के आज का कुचक्र
जिनको अपने आगोश में लपेटा है।
प्रारब्ध के भस्म से
मानवता के मस्तिष्क  पर
तिलक से शांति का आग्रह। 
चिरंतन से उद्धार का उद्घोष
मानव से महामानव
तक कि अंतहीन यात्रा
और इसी यात्रा में
सतयुग कि महागाथा
से कलियुग के अवसान होने तक
हर मोड़ पर अनवरत
मानव के विकास बोझ 
और उसके राख तले
बेवस सी आँखे। 
अपने लिए
एक नए सूरज के उदय का 
अंतहीन इन्तजार करते हुए। । 

Wednesday 5 March 2014

एक ख्वाहिश

खुली आँखों से 
जो न दिखी हो अब तक 
किया हूँ बंद पलक बस 
तुझे निहारने के लिए       ।। 
प्यास बुझे तेरे प्रेम की 
ऐसी तो  कोई खवाहिश नहीं
बस चाहता हूँ जलूं  और
इसे  निखारने के लिए     ।। 
गूंजती है कई आवाजे 
टकराकर लौट जाती 
बस गूंजती है सनसनाहट 
तूं पास ही है ये जताने के लिए  ।। 
कभी पास-पास हम बैठे  
ऐसा न कर पाया 
दिलजले कई घूमते अब भी 
कुछ तस्वीर जलाने के लिए    ।।
टूटकर तो कितनो ने  
तुझपे इश्क का चादर चढ़ाया है 
मैंने ओढ़ा है तुझे 
खुद को भूलाने के लिए     ।।
कई रंग है तेरे 
सब अपना-अपना ढूढ़ते है 
मैंने मिला दी सबको 
नए निखार लाने के लिए   ।। 
तू इबादत है ,प्रेम है,इश्क या कुछ और 
मुझे मालूम नहीं 
बस ख्वाहिश  है इतनी 
तू छूटे न कभी और कुछ पाने के लिए। ।     

Monday 3 March 2014

नजर


लपलपाते जीभो से
कैसे नजर फाड़े है ,
देखा नहीं क्या कभी।
जहाँ के हो वहा भी
अंदर और बाहर तो होगा।
अलग -अलग रूपों में
यहाँ क्या अलग है ?
घर कि रौशनी
इन आँखों पर पड़ते ही
तस्वीर और कैसे बदल जाती है ?
यहाँ ऐसी कौन सी हवा है
जो तुम्हारे घर में नहीं बहती।
संस्कारों का बोझ
क्या इतना ज्यादा है ,
जो देहरी पर ही छोड़ आते हो।
भरा बाजार है
इंसान कहाँ ठीक से नजर आता
कहीं नजर ऐसा न टिके की
फिर नजर उठा न सको। 

Saturday 1 March 2014

बदलाव की बयार

                                 वक्त वाकई काफी ताकतवर होता है। इसमें किसी को कोई शक संदेह नहीं।जनता को भी वक्त, क्रमिक चक्र कि भाँति घूम -घूम कर प्रत्येक पांच साल बाद  अपने  आपको याचक नहीं बल्कि दाता के रूप में देखने का सौभाग्य देता है।  जहाँ जनता की ताज पोशी जनार्दन के रूप में की  जाती है। अपने भाग्य को कोसने वाले ओरों की तक़दीर बदलने को तैयार है। अभी आने वाले कुछ महीने में न जाने किनका किनका वक्त बदलने वाला है। पश्चिम वाले कहते है पूर्व कि ओर देखो और अपने यहाँ लोग गाँव कि ओर देख रहे है। गाँव से हमें कितना प्यार है ये तो इसी से जाहिर होता है कि अभी तक हमने बहुत सारे बदलाव उसमे गुंजाईश के बाद भी नहीं होने दिया।  हमारे गावों में  समझदार बसते है,बेसक शिक्षितों में वो इजाफा न हुआ जो कि कागज़ को काला कर सके । उनके समझदारी के ऊपर बड़े -बड़े बुद्धूजीवी भी हतप्रभ रह जाते है। दिमाग नहीं दिल से फैसला देते है। गाँव की  उर्वरक मिट्टी पोषित कर सभी के ह्रदय को विशाल बना देता है। इसलिए छोटी -छोटी बातों पर  गाँव वाले  दिमाग कि जगह   दिल को  तव्वजो देते है।बाकी जो  शहर से  आते है पता नहीं ? बुद्धिजीवी लोग रहते  है  जो हमेशा दिमाग की  ही सुनते है। 
                          युवा वर्ग उभर रहा है ,ये देश कि ओर और देश इनकी ओर निहार रहा है बीच में बैठे देश चलाने वाले दोनों  की ओर निहार रहे है। स्वाभाविक रूप से दोनों को एक साथ निहारना कठिन काम है। दोनों ही क्षुब्ध है। लेकिन मनाने का प्रयास चल रहा है। कुछ ही दिनों में दोनों  की तकदीर बदलने वाली है। टकटकी लगाये ये बदलाव कि बयार को कलमबद्ध करने वाले ज्यादा से ज्यादा संख्या में इस काम के लिए  नियुक्तियां से प्रतिनियुक्तियां किये जा रहे। आखिर हर व्यपार का आपना-अपना मौसम होता है। अब देश  की  जनता जागरूक हो गई है। देखिये अब सीधे मैदान में आ खड़े हुए है। जनता ही लड़ती है और जनता ही लड़ाती है। ये तो अपनी -अपनी किस्मत है कि किसके लिए जनता लड़ती है और किसको जनता लड़ाती है। भाग्य बदलने कि ताबीज सभी ने अपने अपने हाथों में ले रखे है। अब गला इन ताबीज के लिए कौन -कौन बढता है ये तो आने वाला समय ही बतायेगा।
                             देश के  सीमा की रक्षा करते -करते फिर भी मन में संदेह रह गया ,समझने में थोड़ी देरी अवश्य हुई किन्तु अब ज्ञात है कि अंदर ही ज्यादा ताकतवर दुश्मन बैठे है ,देखना है कि कैसे अब इनसे लोहा लिया जाता है। अनेकता में एकता है और एकता में भी अनेकता है ये मिसाल हम सदियों से देते आये है ,बस अब पुनः एक बार दोहराना है। इन दोनों से जिनका चरित्र मेल नहीं खाता है उनका अलग रहना ही ठीक है। उदार मन के स्वामी तो हम सदैव से ही रहे है ये तो अपनी धरोहर  है माफ़ी मांगने और माफ़ी देने की उदार /अनुदार सांस्कृतक विरासत को आखिर विशाल ह्रदय के स्वामी ही आलिंगन कर सकते है। बेसक कुछ लोग पेट कि अंतड़ियां गलने से काल के गाल में समां गए तो उसपर आखिर किसका  वश होगा। "होई है ओहि जो राम रची राखा " इन बातों से हमें शर्मिंदा नहीं होना चाहिए। 
                            आखिर हमने एक नये सुबह का सपना देखा है जहाँ घडी के साइरन बजते ही घर में जल रहे लालटेन कि लौ बुझा कर , कुल्हड़ में चाय पीने के बाद ,हल-बैल को छोड़ जो अभी भी बहुत कम लोगो के पास है ,रिक्शे और साईकिल  पर सवार होकर हाथों में झाड़ू लेकर देश कि हर गंदगी को साफ़ करते हुए बढ़ते जाए ,क्या सुन्दर दृश्य होगा जो इन स्वच्छ राहो पर जण -गण हाथी पर सवार हो हशियाँ -हथोड़ी के साथ काम पर एक नए भारत के निर्माण के लिए निकले  और रास्ते के किनारे -किनारे कीचड़ में उदय हो  रहे कमल नयनाभिराम दृश्य का सृजन कर रहे हो। बदलाव की  बयार है कही सपना हकीकत न बन जाए।      

Tuesday 25 February 2014

अहम्,

आज न जाने कैसे  
दोनों के अहम्
आपस में टकरा गए। 
निर्जीव दीवारें भी
इन कर्कश चीखों से
जैसे कुछ पल के लिए
थर्रा गए। 
एक दूसरे के नज़रों में 
अपनी पहचान खोने का गम था। 
"मैं" और "तुम" यादकर 
"हम" से मुक्त होने का द्वन्द था।   
अब चहारदीवारी में 
दो सजीव काया
निर्जीव मन से बंद थे। 
बंद थी अब आवाजे
ख़ामोशी का राज था। 
खूबसूरत कला चित्र भी
अब इन दीवारो पर भार था। 
कुछ देर पहले निशा पल में
जो गलबहियां थी। 
दो अजनबी अब पास-पास
युगों-युगों सी दूरियां थी। 
बुनते टूटते सपने पर भी
कभी तर्जनी एकाकार थे। 
समय के बिभिन्न थपेड़ो पर
मन में न कभी उद्विग्न विचार थे। 
वर्षो साथ कदम का चाल जैसे 
अचानक ठिठक गया। 
मधुर चल रही संगीत को 
श्मशानी नीरवता निगल गया। 
टकराते अहम् है जब 
मजबूत से रिश्ते दरक जाते है। 
धूं -धूं कर दिल से उठते धुएं 
कितने आशियाने जला जाते है। ।   

Saturday 22 February 2014

तंग कोठरी

ये  कोठरी 
कितनी तंग हो गई है 
यहाँ जैसे 
जगह कम हो गई है। 
कैसे मिटाऊँ किसी को यहाँ से 
ये मकसद अब 
शिक्षा के संग हो गई है। 
जीवन से भरे सिद्धांतो के ऊपर 
उलटी  धारा में चर्चा बही है  
बचाने वाला तो कोई है शायद 
मिटाने के कितने नए 
हमने यहाँ उक्तियाँ गढी है। 
कितने खुश होते है अब भी 
परमाणुओं की शक्ति है पाई 
जो घुट रहे अब तक 
इसकी धमक से 
तरस खाते होंगे 
जाने ये किसकी है जग हँसाई। 
अपनी ही हाथों से 
तीली सुलगा रहे सब 
जल तो रहा ये धरा आशियाना। 
घूंट रहे  इस धुँआ में 
सभी बैचैन है 
जाने कहाँ सब ढूंढेंगे ठिकाना। 
विचारों में ऐसी है 
जकड़न भरी ,
कोठरी में रहा न कोई 
रोशन, झरोखा  
किसको कहाँ से अब 
कौन समझाए 
परत स्वार्थ का सबपे 
कंक्रीट सा है चढ़ा। ।   

Tuesday 18 February 2014

प्रहसन

शाम कि श्याह छाँह
जब दिन दोपहरी में
दिल पर बादल कि तरह
छा कर  मंडराते है। 
जब सब नजर के सामने हो
फिर भी
नजर उसे देखने से कतराते है। 
सच्चाई नजर फेरने से
ओझल हो जाती है। 
ऐसा तो नहीं
पर देख कर न देखने कि ख़ुशी
जो दिल में पालते है। 
उनके लिए ये दुरुस्त नजर भी
कोई धोखा से कम तो नहीं
और अपने-अपने दुरुस्त नजर पर
हम सब नाज करते है। 
तडपते रेत हर पल
लहरों को अपने अंदर समां लेता है
पुनः तड़पता है
और प्यासे को मरीचिका दिखा 
न जाने कहाँ तक
लुभा ले जाता है। 
सब सत्य यहाँ
और क्या सत्य, शाश्वत प्रश्न  है ?
बुनना जाल ही तो कर्म 
फिर माया जाल  का क्या दर्शन है
हर किसी के पास डफली
और अपना-अपना राग है। 
अपने तक़दीर पर जिनको रस्क है
हर मोड़ पर मिलते है। 
मुठ्ठी भर हवा से फिजा कि तस्वीर
बदलने का दम्भ भरते है। 
कर्ण इन शोरों पर
खुद का क्रंदन ही सुनता है। 
वाचाल लव फरफराती है
पर मूक सा ही दिखता है। 
इस भीड़ में हर  भीड़ 
अलग -अलग ही नजर आता है
बेवस निगाहों कि कुछ भीड़ को बस  
प्रहसन का पटाक्षेप ही लुभाता है।