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Tuesday, 14 March 2017

मेघ की बेचैनी

          इस यक्ष को अब मेघ से ईर्ष्या हो गई थी । मेघ को अब दूत बनाने के ख्याल से ही वह शंदेह के बादलो में घिर जाता था।
              वह प्रेयसी का सौंदर्य वर्णन नहीं करना चाहता था।उसे डर था उन तालों में खेलती नवयौवना के झांघो पर दृष्टि  फिसलने से कही वो मोहित न हो  जाए। आखिर कुछ भी है , है तो वह इंद्र का दास ही। उसकी लोलुपता और गौतम के श्राप को कौन नहीं जानता।
         नहीं इस विरह में भी सन्देश तुझे, नहीं , रहने दो। ये नैनाभिसार हरीतिमा जो कण कण में समाई है। दूर कही भी नजर दौराउँ इन्ही खिलती कली में मेरी भी प्रियतमा हरिश्रृंगार कर इन कल कल करती नदियों में अटखेलियां कर रही होंगी। क्या पता मेरा संदेशा देने से पहले ही कही तुम इन कटि प्रदेश की घाटी में खो जाओ। 
उस उफनती धार को तो फिर भी थाम लोगे किन्तु उन उफनती उभार में जाकर कही तुम भटक गए तो मैं कहाँ तुन्हें ढूंढता फिरूंगा , माना कि इंद्रा के दरबार में अप्सराओं के बीच पल पल मादक नैनो से तुम्हारी नजर टकराती होगी। किन्तु मेरे मृगनैनी के तीर से टकराकर व्हाँ तुम्हारा ह्रदय विच्छिन्न नहीं हो जाएगा, मुझे शंका है। यह संदेशा तुम छोड़ ही दो।
        संदेशा मेघ को देना था, प्रियतम अपने प्रियतमा के विरह में पल व्ययतीत कर रहा था।
         मंजर बदल गए थे। काल बदल गए थे।काल पल पल के धार में बहती आज से होकर गुजर रही थी। 
अब यक्ष नहीं थे, न प्रियतम का निर्वासन था। फिर भी......
           बेचैन लग रहा था। मन हवा के झोंके से भी सशंकित हो जाता, कही कोई अपना तो नहीं टकरा गया। आँखों में मिलन की चाहत से ज्यादा शंका की परिछाई निखर रही थी। प्रेम के कोरे कागज पर दिल में छपी हस्ताक्षर कही कोई पढ़ न ले। दिल में उमंगें कम वैचैनी का राग ज्यादा छिड़ा हुआ था। आखिर पहली बार आज सोना खुद तपने अग्नि के पास जा रहा है। सोना तो तपने के बाद निखारता है किंतु अग्नि तो खुद अपना निखार है। उस प्रेम की अग्नि का निखार उसके दिल पर छा गया था, उसके ताप से उसका रोम रोम पिघल कर बस उसमे समा जाना चाहता था या यूँ कहे उसमे मिल जाना चाहता था। प्रेम की तपिश का कोई पूर्वानुमान उसे नहीं था। उसने सिर्फ यक्ष की ह्रदय व्यथा को मेघदूत में पढा था। उसे जिया नहीं था।
         नजरे बिलकुल सतर्क जैसे  डाका डालने की तैयारी में हो और चौकीदार आसपास घूम रहा हो। फिर भी इश्क के जंग में आज आमना सामना हो ही जाय इस भाव को भर कदम बढ़ते जा रहे थे। वह दूर इतनी की गले की तान उसके कर्ण में रस न घोल पाये खड़ी थी। आँखों में कसक दिल में धड़क रही गती के साथ तैरता डूबता था।
       अब तो इस दुरी पर आकर ठिठक कर रुक जाने के कितने पूर्वाभ्यास हो चुके है उसे खुद भी याद नहीं । आज उसने कदम न ठिठकने देने की जैसे ठान रखा है। किन्तु पता नहीं क्यों अब इतने पास देखकर कदम में कौन सी बेड़िया जकर जाती है।
       वो  आज भी वही खड़ी है, जहाँ रोज रहती है। इसी विशाल छत के नीचे दोनों अलग अलग विभाग में काम करते।  बिलकुल बिंदास लगती है जैसी यहाँ की लड़कियां होती है। उसका अल्हड़पन उसकी पटपटाते होंठ साँसों की धड़कन से उभरते सिमटते उभार और सहेलियों संग हंसी की फुलझड़ी छोड़ती किन्तु जैसे ही उसकी नजरी मिलाप होती उन आँखों में शर्म की हरियाली निखर जाती, बिंदास और अल्हड़पन अंदाजों पर छुई मुई का प्रभाव छा जाता , वो बस ठिठक सी जाती। वह सोचता शायद यहाँ की नहीं है।
     न जाने कितने दिनों से यह सिलसिला चल रहा है। अब तो दोनों के दोस्तों ने भी छेड़ना बंद कर दिया था। बदलते परिवेश के खुले दुनिया में जहाँ वो दोनो भी बस इस आमना सामना से अलग बिलकुल खुले खुले है। जब  आइसक्रीम सी जम कर रूप लेते प्यार थोड़ी सी उष्णता पर पिघल कहाँ विलीन हो जाते पता ही नहीं चलता।दोनों के हृदयधारा प्रेम की ग्लेशियर सा जम गया था। दोनों जितने पास पास है उससे पास नहीं हो सकते। लगभग यही हर रोज होता है। 
      अब समय के साथ एहसास और गहरा होता गया है, किन्तु दोनों के बीच इश्क की गुफ्तगूँ में लब अब भी नहीं पटपटाये , आँखों की पुतलियां  जैसे शब्द गढ़ एक दूसरे के दिल में सीधे भेज देते, कुछ पल के ये ठहराव में दोनों के बीच कितने हाले दिल बयां हो जाता वो नजर टकराने के बाद गालो पर उभर आती चमक सभी से कह देती।
        दोनों इश्क के समंदर में डूब रहे थे। दिल ही दिल इकरार हो गया था। बहुत सारी गुफ्तगूँ पास आये बिना भी हो चुकी थी। अपने अपने परिवेशों की छाप के इतर जैसे ही आमना सामना होता एक अलग समां बन जाती। खुले माहौल की छाप उसके दूर होने से ही उभरती , उसको देख जाने कैसे उसके चेहरे पर छाई लालिमा संकोच के दायरे में सिमट कत्थई हो जाती। बगल से गुजर जाने पर ह्रदय हुंकार भरता अंदर की आवाज बंद होठो से टकराकर अंदर ही गूंज जाती। पर पता नहीं कैसे यह आवाज उसकी ह्रदय में भी गूंज जाती । नजर से जमीन कोे सहलाते  शर्म के भार से दबे पैर ठहर ठहर का बढ़ती और दोनों फिर पूर्ववत सा गुजर जाते।
     लेकिन शायद अब प्रेम में मिलन हो गया था। हर रोज ये और गाढ़ा हो कर दोनों के चेहरे पर निखरने लगा था।
इस मिलन के कोई साक्ष्य न थे फिर भी अब सभी ने दोनों को एक ही मान लिया। संदेशवाहक वस्तुओं का आदान प्रदान में सिर्फ वस्तु आते जाते ।उसमे छिपे सन्देश को बस दोनों के नजर ही पढ़ने में सक्षम थे।
         आज वह ज्यादा बैचैन है कई दिन गुजर गए अब। अचानक से कही ओझल हो गई। दफ्तर और सहेलियां कुछ भी बताने में अपनी असक्षमता जाहिर कर दी। टूटते पत्ते से अब एक एक पल के यादे आँखों से झर रहे थे। विरह गान के सारे मंजर जैसे उसके पास खड़े हो उसके दिल के सुर से मिल गएथे। मिलन तो कभी हुआ नहीं किन्तु विछुरण सदियों के भार का दर्द उसके दिल में उलेड़ दिया था।
        वो कहाँ चले गई उसे कोई पता नहीं था, वही नदी के किनारे उचाट मन से पत्थरो को कुरेद रहा था। आसमान उसकी इस ख़ामोशी को निहार रहा था। सूरज उसके गम से दुखी  कही छिप गया।
         मेघ से नहीं रहा गया। छोटे बड़े काले गोरे सभी आसमान में उभर आये। नजर उसने मेघ की ऒर फेरा, दिल में मेघदूत के यक्ष के विरह गाथा जैसे उसी की ह्रदय वेदना के स्मृति हो। आँखे काले काले गंभीर बादलो में कुछ ढूंढने लगी।रह रह कर बदलते बादलो की छवि में जैसे वो उभर आती और बढ़ते हाथ जैसे गालो को छूना चाहता हवा के झोंके में विलीन हो जाती। बस हाथ आसमान में उठे रह जाते।
        किन्तु फिर भी उसने मेघ को अपना संदेसा नहीं बताया। प्रियतमा के शौन्दर्य का वर्णन कर वह मेघ के मन में अनुराग नहीं जगाना चाहता था। उसके अंग अंग बस उसके नजर में कैद थे किसी को भी उसकी झलक दिखा अपने पलकों से आजाद नहीं करना चाहता था।
          उमड़ते घुमड़ते मेघ दूत का रूप धरने को बैचैन दिख रहा है लेकिन वो अब भी उस झोंके के इन्तजार में बैठा था जो संभवतः उसके प्रेयषी का संदेश ले के आ रहा हो।
      किन्तु पता नहीं क्यों मेघ इन संदेश को उसके प्रियतमा तक पहुचाने के लिए खुद बेचैन दिख रहा था। जबकि उसकी  बंद पलके अपनी दिल की गहराई में ही उसको तलाश रही है......शायद.....यही कहीं हो ....।।।

Tuesday, 11 October 2016

विजयी कौन .....?

                       बस अब युद्ध अंतिम दौर में है। किसी भी क्षण विजयी दुंदुभि कानो में गूंज सकती है। सभी देवतागण पंक्तिबद्ध हो अपने -अपने हाथो में पुष्प लिए अब भगवान के विजयी वाण के प्रतीक्षा में आतुर दिख रहे है। सभी के मुख पर संतोष की परिछाई दिखाई दे रहा है। अब इस महापापी का अंत निश्चित है। आखिर कब तक महाप्रभु के बाणों से अपनी रक्षा कर पायेगा। काल को अपने कदमो तले दास बनाने वाले को अब सम्भवतः अवश्य ही काल अपने चक्षु से दिख रहा होगा। अहंकार का दर्प अवश्य ही पिघल रहा है। राक्षसों की सेना में भी   मुक्ति की व्याकुलता दिख रही है। वानरों की सेना में असीम उत्साह का संचार एक -एक कर राक्षसों को मुक्ति मार्ग पर प्रस्थान कर रहे है। 
                         महाबली महापराक्रमी रावण रथ पर आरूढ़ आसमान से विभिन्न प्रकार के शस्त्र का प्रहार कर अपने वीरता के  प्रदर्शन में अब भी लगा हुआ है। महाप्रभु राम उसके हर शस्त्र का काट कर उसके साथ कौतुक कर रहे है। किन्तु अब भगवान् के चेहरे पर धारण मंद स्मित रेखा पर खिंचाव स्पष्ट परिलक्षित हो रहा है। देवतागण भगवान् के मुख पर उभरे इस रेखा को पढ़ कर आनंद और हर्ष से भर गए है। प्रभु राम अपने धनुष की प्रत्यंचा पर वाण धर अब इस कौतुक पर पूर्ण विराम करना चाह रहे है और प्रत्यंचा की तान प्रभु के और समीप खिंचता जा रहा है। प्रत्यंचा की तान से जैसे आसमान में बिजली सी कौंध गई और रण भूमि में दोनों ओर की सेनाओ को लगा जैसे रावण का काल बस उसके नजदीक आ गया। बदलो की टकराहट से पूरा रणक्षेत्र कंपायमान हो गया। दोनों ओर की सेनाये लड़ना भूल जैसे मूक दर्शक हो  महाप्रभु की ओर एकटक देखने लगे। अचानक इस दृश्य को देख देवतागण भी विस्मित से दिखने लगे। हाथो में धारण किये पुष्प इस गर्जन को सुन जैसे प्रभु के ऊपर बरसने को आतुर होने लगे। किन्तु अभिमानी रावण अब भी बेखबर भगवान् के लीलाओ को समझने में अक्षम लग रहा। उसके आँखों पर अभिमान का दर्प राम के देवत्व को देखने में बाधक था। भगवान् की प्रत्यंचा पर धारण वाण बस अपने आपको को भगवान् के तर्जनी और अंगूठे से मुक्त हो इस महापापी को महाप्रस्थान के लिए जैसे आतुर दिख रहा है। इसी क्षण बस राम ने वाण को मुक्त कर दिया। वाण का वेग देख जैसे वायुदेव का  भी सांस थम गया। पुरे रणभूमि में एक स्तब्धता छा गया। जिस क्षण की प्रतीक्षारत  देव ,मानव ,गन्धर्व ,आदि अब तक थे अब वो क्षण बिलकुल नजदीक दिख रहा है। प्रभु के धनुष से निकला वाण द्रुत गति से सीधा जाकर रावण की नाभी में समा गया। आसमान भार मुक्त, किन्तु  महापंडित रावण का भार अब भी पृथ्वी उठाने को तत्पर दिखी। रथ से अलग हो रावण का शरीर अब रण भूमि में चित पड़ गया। 
        यह क्या जोर-जोर की अट्टहास रण भूमि पर पड़े रावण के मुख से आ रहा और अपने बड़े-बड़े नेत्रों से राम को घूरा।  उसका अट्टहास मृत्यु पूर्व अंतिम उद्घोष था या चुनौती देवतागण भी विचारमग्न ,प्रभु के अधर पर स्वभाविक मंद स्मित मुस्कान। रावण अट्टहास करता करता दर्पपूर्ण स्वर में कहा - राम क्या तुमने मुझे सच में परास्त कर दिया ,
राम -रावण क्या अब भी अभिमान नहीं गया। क्या मृत्यु को इतने पास से भी देखने में सक्षम नहीं हो। अहंकार जब नजरो में छा जाता है तो ऐसा ही होता है। 
रावण -अहंकार मेरे शब्दो में नहीं राम तुममे झलक रहा है। रावण कभी मृत्यु को प्राप्त नहीं हो सकता। राम आज तुमने सिर्फ एक रावण का वध किया है। रावण की इस नाभि में बसे अमृत अभी सूखा कहा है। वह तो बस छिटक कर इसी पृथ्वी पर फ़ैल गया है। राम ये तुम नहीं जानते की तुम एक रावण के कारण कई रावण को जन्म दे दिए। रावण आज भी जिन्दा है और कल भी रहेगा। आने वाले युग में इस रावण की गुणों से युक्त कितने क्षद्म मानव होंगे तुम सोच भी नहीं सकते। चलो माना की तुम भगवान् हो और इस धरती पर अवतरण लिए। किन्तु जब मानव ही  रावण के गुणों से युक्त होगा किस मानव के रूप में आओगे। ये  तो मारीच से भी गुनी होंगे कब राम का रूप धर रावण दहन करेंगे और कब रावण का रूप धर सीता हर ले जाएंगे तुम्हारे देवता को भी समझाना मुश्किल हो जाएगा। हर कोई एक दूसरे को रावण कहेगा खुद को राम कहने वाला शायद ही मिले। यह राम तुम्हारी जीत नहीं हार है। जिस पृथ्वी से पाप मिटाने के लिए तुमने एक रावण का वद्ध किया उस रावण से कई रावण निकलेंगे यह तुम्हारी हार है। राम अभी तक तो तुमने पृथ्वी को  रावण मुक्त किया लेकिन आने वाले समय के लिए भार युक्त कर दिया। अब तो वर्षो यह मानव मेरा गुणगान करेंगे। अपने अंहंकारो की तुष्टि हेतु बस मेरे पुतले पर वाण चलाएंगे। राम मेरा शरीर नहीं मरा है वह तो तुम्हारे वाण से क्षत -विक्षित हो  बिखर गया चारो दिशाओ में। राम विचारो यह तुम्हारी विजय है या पराजय। पुनः अट्टहास जोर और जोर से, चारो दिशाए उन अट्टहास से जैसे कांपने लगा। 
         अचानक जैसे  उसकी तन्द्रा खुली खुद को रावण दहन के भीड़ में घिरा पाया। रावण सामने वाले मैदान में धूं -धूं कर जलने लगा। फटाको की आवाज से कान बंद सा हो गया। लेकिन उसके कानो में अभी भी रावण के प्रश्न  और अट्टहास गूंज रहे , भीड़ मदमस्त है और उसकी नजर राम को तलाश रहा है ।    

(आप सभी को विजयादशमी की हार्दिक शुभकामना )

Thursday, 15 May 2014

अच्छे दिन आने वाले है

काफी जल्दी में लग रहा था।  उसने दीवार के कोने में किल में टंगी कुर्ते को उतरा।  जिसके बाजू और धर के बीच बने फासले जिंदगी में उसके स्थिति को बांया कर रहे थे। बनियान में गर्मी के हिसाब से हवा आने जाने के लिए अपना रास्ता पहले ही बना रखा था। उसकी पत्नी वही बगल में बैठी दिन भर पेट में जलने वाली आग को बुझाने के लिए डब्बे में जाने क्या कौन सी जलधारा ढूंढ़  रही थी।घर के छत से आसमान झांक रहा था।
आज सुबह -सुबह कहाँ की तैयारी है ? पत्नी ने पूछा 
अरे कुछ पता भी है तुम्हे बस सवाल ही पूछोगी  और तो दिन दुनिया कि कोई खबर नहीं …। आँखों में कुछ अजीब चमक आ गया  था।
आखिर ऐसा क्या हो गया है ? उसके दिनचर्या में अचानक बदलाव को वो समझ नहीं पा  रही थी।
अरे हमारा गमछा कहाँ है। लगभग खिजते  हुए पूछा
बौरा गए हो क्या ? खांसते हुए पलट कर बोली काँधे पे ही तो रखे हो।
वो लगभग झेप कर बोला ठीक बोलती हो लगता है मैं  भी अब सठिया गया हूँ।
लेकिन बात आखिर किया है अब कुछ बोलोगे भी आखिर इतने सुबह-सुबह जा कहाँ रहे हो।
आज दिन के लिए चावल भी नहीं है ,दिन में किया बनेगा ?बेवसी उसके चेहरे पे झलक रही थी।
सब हो जाएगा अब हर दिन एक जैसा थोरे ही होता है। आँखों में विश्वास की परिछाई उभर आई थी।
किन्तु आखिर ऐसा क्या होने जा रहा है ?बीते कल की बेबसी  बातो में ज्यादा थी।
ऐसा मत सोचो इसबार कुछ तो बदलेगा।  उत्साह उसके बातो में झलक रहा था।
सालो से ऐसे ही सुन रही हूँ। क्या इसबार कोई भानुमति का पिटारा मिल गया है जो सुबह -सुबह चल  दिए हो।
कुछ ऐसा ही सोचो। उसने विश्वास दिलाने के लहजे में कहा।
अरे देख नहीं रहे हो सब उधर ही जा रहे है।
आखिर किधर ?
तुम तो बस इसी चूल्हा में उलझी रहो तो का पता चलेगा।
उसके पत्नी के चेहरे पर अविश्वसनीय भाव उभर आये।
उत्सुकता से  पूछी -क्या इस चूल्हे की उलझन को कोई सुलझा दिया है ?
बिलकुल ठीक समझी ----वही तो लाने जा रहा हूँ।
अच्छे दिन आने वाले है शायद वहां कुछ हमें भी मिल जाय। आवाज में सुन्दर भविष्य की खनक थी।
और  उसके बातों से पत्नी के चेहरे पर बेवसी पूर्ण मुस्कान उभर आये, नासमझ तो नहीं है आखिर इतने सालो से तो उसके साथ है ।