Wednesday 9 July 2014

खाली मन .....?? ?

जब यहाँ कुछ भी नहीं था 
तब भी बहुत कुछ था 
कुछ होने और न होने की 
कयास ही बहुतो के लिए
बहुत कुछ था। 
फिर मै बैचैन क्यों होता हूँ 
की अब मेरे मन में क्या है ? 
नहीं कुछ उमड़ने घुमड़ने पर भी 
कही न कही अंतस के किसी कोने में 
कुछ बुलबुले छिटक उठते है 
और अपनी नियति में 
जाने कहाँ सिमट जाते है। 
इन बुलबुले से किसी 
धार बन जाने की चाहत में 
बस बुलबुले का बनना और 
मिट कर शून्य में विलीन हो जाना    
मन में एक क्षोभ जाने क्यों 
भर जाता है।  
अनायास कितने प्रकार के 
तरंग छिटक जाते है 
कुछ समेटु उससे पहले ही 
कितने विलीन हो  जाते है।  
किन्तु एक बुलबुले में खोना भी 
कितना कुछ कह जाता है। 
शून्य सा दिखता ,शून्य को समेटे 
शायद सब शून्य है,ऐसा कह जाता है। 
बाह्य प्रकाश के पाने से 
कैसी सतरंगी छटा छटकती है 
खाली मन को भी 
उम्मीदों के कई रंग भर जाती है। 
शून्य  मन क्या शांत और गंभीर है, 
या इस निर्वात को भरने की 
झंझावती तस्वीर है ,
जद्दोजहज जारी है 
मन में कुछ नहीं होना 
क्या बहुत कुछ का होना तो नहीं है ? 

Thursday 3 July 2014

छोटी सी ख़ुशी

                                     मैं  कभी-कभी सोचता हूँ की आखिर विकास के अवधारणा के साथ -साथ ,क्या  मन में उत्त्पन्न खुशी  के अवधारणा के साथ  कही कोई संबंध  है ? या क्या ऐसा तो नहीं की मन में उठने वाले खुशियों के तरंग  के आयाम के साथ विकास या कहे कि सुख -सुविधा के आयाम में पारस्परिक न होकर अंतर्विरोधी सम्बन्ध हो। विकास जब शारीरिक सुख सुविधाओ का अनन्य भोग देता है तब दिल के हिलोरों में ठहराव कैसे महसूस हो रहा है।क्या दोनों अलग इकाई है या एक होते भी अलग -अलग है?पता नहीं ऐसा क्या हो रहा है जिससे लगता है की परेशानी तो थी किन्तु मजा ज्यादा था। इस मजा का कोई ऐसा पैमाना नहीं मिल पा  रहा जिसपे उसे तोल सकूँ  या कोई गणितीय सम्बन्ध स्थापित कर सकूँ की पहले के असुविधा और दिल में उमंग और आज की सुविधा और घटते ख़ुशी की  तरंग को किस इकाई में विवेचन करूँ। क्या ऐसा कोई सिद्धांत है जिसपर इसका परखा जा सके?
                                   अभी-अभी कुछ दिन पहले अपने गाँव से लौटा हूँ। बदलाव बदसूरत जारी है। विकास के पटरी पर दौरता हमारा रेलवे स्टेशन प्रगति के पथ पर अग्रसर है।पटरियों ने छुद्र से अपने आपको विस्तारित रूप में परिवर्तित कर दिया है।पहले से कही ज्यादा ट्रेने अलग-अलग गंतव्य  के लिए उपलबध है। पर पता नहीं क्यों ऐसा महसूस होता है कि अब आसानी से उपलब्ध ट्रेने पहले के मुकाबले यात्रा के रोमांच को उसी अनुपात में कम कर रहा है। नहीं तो फिर  बचपन की कौतूहलता का उमंग उम्र के बढते बोझ से दब सा गया।कुछ तो ऐसा है की दोनों के बीच तारतम्य या सामंजस्य नहीं बैठ पा रहा है।  ऐसा तो नहीं अज्ञान के भाव में उमंग कि लहरे ज्यादा हिलोर मारती है और ज्ञान कि बहती धार में उमंग हिचकोले खाता हुआ डूबता प्रतीत होने लगता है। कुछ तो ऐसा ही है ,नहीं तो क्यों ऐसा हुआ कि आज जब पटरियों पर दौड़ती ट्रेन प्लेटफॉर्म कि ओर अग्रसर था तो मन यंत्रवत सा सिर्फ और सिर्फ उसके आने का इन्तजार कर रहा था। पहले वाली वो घंटियों के टन -टन जो कि ट्रेन के आने कि सुचना होने के साथ शुरू होती थी और उमग और कौतुहल काले -काले धुओं  और इंजन के पास आने की तीव्रता के अनुपात में बढ़ती थी वो नदारद था। ऐसा तो नहीं कि अभी भी कुछ ऐसा महसूस करने का प्रयास कर रहा हूँ जहाँ उम्र के इस पड़ाव पर महसूस करने की चाहत बचकानी लगे। या ट्रेने की तरह तेज भागती जिंदगी  इसमें खोने या महसूस करने का अब समय ही नहीं देती। इन छोटी सी ख़ुशी और उमंग दिल में नहीं कौंधने के कारण एक ही साथ कई सवाल दिल में कौंध गए।शायद बड़ी ख़ुशी के चाह में स्वाभाविक रूप से उठने वाले छोटी -छोटी  ख़ुशी कहीं न कहीं हर कदम पर स्वतः ही दम तोड़ देता और हमें पता भी नहीं चलता। या उमंग और ख़ुशी ने अपना रूप बदल लिया हो और मैं उसे समझ नहीं पा रहा हूँ। मन कि निश्छलता प्रकृति स्वरूप न रह कर अपनी प्रकृति समय के साथ जाने कैसे बदलती है? शायद यही कहीं इसकी प्रकृति तो नहीं ?