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Thursday, 3 July 2014

छोटी सी ख़ुशी

                                     मैं  कभी-कभी सोचता हूँ की आखिर विकास के अवधारणा के साथ -साथ ,क्या  मन में उत्त्पन्न खुशी  के अवधारणा के साथ  कही कोई संबंध  है ? या क्या ऐसा तो नहीं की मन में उठने वाले खुशियों के तरंग  के आयाम के साथ विकास या कहे कि सुख -सुविधा के आयाम में पारस्परिक न होकर अंतर्विरोधी सम्बन्ध हो। विकास जब शारीरिक सुख सुविधाओ का अनन्य भोग देता है तब दिल के हिलोरों में ठहराव कैसे महसूस हो रहा है।क्या दोनों अलग इकाई है या एक होते भी अलग -अलग है?पता नहीं ऐसा क्या हो रहा है जिससे लगता है की परेशानी तो थी किन्तु मजा ज्यादा था। इस मजा का कोई ऐसा पैमाना नहीं मिल पा  रहा जिसपे उसे तोल सकूँ  या कोई गणितीय सम्बन्ध स्थापित कर सकूँ की पहले के असुविधा और दिल में उमंग और आज की सुविधा और घटते ख़ुशी की  तरंग को किस इकाई में विवेचन करूँ। क्या ऐसा कोई सिद्धांत है जिसपर इसका परखा जा सके?
                                   अभी-अभी कुछ दिन पहले अपने गाँव से लौटा हूँ। बदलाव बदसूरत जारी है। विकास के पटरी पर दौरता हमारा रेलवे स्टेशन प्रगति के पथ पर अग्रसर है।पटरियों ने छुद्र से अपने आपको विस्तारित रूप में परिवर्तित कर दिया है।पहले से कही ज्यादा ट्रेने अलग-अलग गंतव्य  के लिए उपलबध है। पर पता नहीं क्यों ऐसा महसूस होता है कि अब आसानी से उपलब्ध ट्रेने पहले के मुकाबले यात्रा के रोमांच को उसी अनुपात में कम कर रहा है। नहीं तो फिर  बचपन की कौतूहलता का उमंग उम्र के बढते बोझ से दब सा गया।कुछ तो ऐसा है की दोनों के बीच तारतम्य या सामंजस्य नहीं बैठ पा रहा है।  ऐसा तो नहीं अज्ञान के भाव में उमंग कि लहरे ज्यादा हिलोर मारती है और ज्ञान कि बहती धार में उमंग हिचकोले खाता हुआ डूबता प्रतीत होने लगता है। कुछ तो ऐसा ही है ,नहीं तो क्यों ऐसा हुआ कि आज जब पटरियों पर दौड़ती ट्रेन प्लेटफॉर्म कि ओर अग्रसर था तो मन यंत्रवत सा सिर्फ और सिर्फ उसके आने का इन्तजार कर रहा था। पहले वाली वो घंटियों के टन -टन जो कि ट्रेन के आने कि सुचना होने के साथ शुरू होती थी और उमग और कौतुहल काले -काले धुओं  और इंजन के पास आने की तीव्रता के अनुपात में बढ़ती थी वो नदारद था। ऐसा तो नहीं कि अभी भी कुछ ऐसा महसूस करने का प्रयास कर रहा हूँ जहाँ उम्र के इस पड़ाव पर महसूस करने की चाहत बचकानी लगे। या ट्रेने की तरह तेज भागती जिंदगी  इसमें खोने या महसूस करने का अब समय ही नहीं देती। इन छोटी सी ख़ुशी और उमंग दिल में नहीं कौंधने के कारण एक ही साथ कई सवाल दिल में कौंध गए।शायद बड़ी ख़ुशी के चाह में स्वाभाविक रूप से उठने वाले छोटी -छोटी  ख़ुशी कहीं न कहीं हर कदम पर स्वतः ही दम तोड़ देता और हमें पता भी नहीं चलता। या उमंग और ख़ुशी ने अपना रूप बदल लिया हो और मैं उसे समझ नहीं पा रहा हूँ। मन कि निश्छलता प्रकृति स्वरूप न रह कर अपनी प्रकृति समय के साथ जाने कैसे बदलती है? शायद यही कहीं इसकी प्रकृति तो नहीं ?       

Wednesday, 21 May 2014

उफ़ ये गर्मी .....

                             सुबह का समय ब्लॉग पर बैठने का उपयुक्त लगता है। मौसम में तल्खी थोड़ी कम होती है। हलकी -हल्की संवेदना भरी हवा दिमाग को थोड़ी ठंडक और राहत पहुचाती है। किन्तु अब जैसे लग रहा चुनाव के ज्वार से निकलने के बाद भी तापमान शेयर बाजार में उछाल की तरह जारी है। सारे इंसानी इंतजामो पर मौसम ने अपना रंग चढ़ा रखा है। तापमान भी शायद इन परिणामो से उत्साहित होकर कुलांचे भड़ने को बैचैन दिख रहा है। समझ नहीं पा रहा हूँ कि इसके लिए किसपर नजर टिकाऊ। ऊपर वाले कि कुदृष्टि समझूँ इसे या जमीन पर रहने वाले विभिन्न  पेशेवर लोगो कि दूरदृष्टि, द्वन्द कायम है। ऐसे तो सारे कारणों  में से एक कारण बहुत ही आसान दीखता है क्यों न इसके लिए भी पूववर्ती सरकार को ही जिम्मेदार मान लिया जाय।  घर तो खैर घर है जहाँ बहुत प्रकार के इंसानी मरहम उपलब्ध है किन्तु खुला आसमान आकर्षित नहीं कर रहा है। मुक्ति की तमाम आग्रहों के बावजूद भी लगता है कही कैद हो जाना ही बेहतर। उधर मौसम बिभाग ने भी रस्म अदायगी करते हुए बता दिया है। फुहारे पड़ने में अभी लगभग पंद्रह दिन का वक्त है। इतने दिनों तक अभी कितने लोग जल-जल जिएंगे कहना मुश्किल है। चुनाव में जले और भस्म हुए के लिए वो मानसून कोई नया जीवन दान दे पायेगा  या नहीं ये कहना तो मुश्किल है। किन्तु जिसको सिर्फ ताप लगा वो अवश्य ही बूंदो में अपने संताप के डुबोने का प्रयास तो  कर ही  सकते है। जो इनसे इतर है वो इसके श्रृंगार से खुद को सुशोभित करने को आतुर तो होंगे ही। 
                          बहुतो के लिए प्रचंड ऊष्मा के तल्ख़ तेवर अब भी मन मष्तिष्क में  शीतोष्ण प्रभाव कायम रखे होंगे। चेहरे पर छाई भावना की भावुकता युक्त लहर में बह कर इस गर्मी में भी ताल तालिया में डुबकी का आनंद महसूस कर रहे होंगे। दिक्कत बस उनके किये है जो अपने जीवन दर्शन में भावना में बहना मनुष्य की कमजोरी समझते है और कमजोरी से निजात पा कर लू से टकरा-टकरा कर हौसला कायम रखे है। किन्तु भावना प्रधान देश के नागरिको के लिए ही छह ऋतुओ का सौगात है। प्रचंड तीखी धुप में मन -मस्तिष्क पर अपना नियत्रण रखने का अभ्यास  ही तो हमें ऐसे पांच वर्षीय आयोजन में उठते ताप को सहन करने का क्षमता प्रदान करता है। 
                  अब खिड़की से आने वाली हवा साँप की तरह फुफकार छोड़ रही है। बेहतर यही लगता है कि फुफकार डस ले उससे पहले उनका रास्ता बंद कर दिया जाय। किन्तु हम अपने आपको को कहा तक बंद रख पाएंगे ये तो पता नहीं । कही प्रकृति ने ये मौसम इस लिए भी तो नहीं बनाया कि स्वछंद उन्मुक्त विचार के हिमायती मानव मस्तिष्क कभी-कभी बंधन को महसूस करे  और इसका अभ्यास भी कायम रहे। खैर इससे पहले की ये फुफकार किसी को डसे हम तो यही आशा करते है कि जल्द ही खुला आसमान श्वेत -श्याम चादरों से ढक जाए और दिल खोल कर बुँदे नाचे।  जिसमे भीगकर प्रकृति के गर्मी और मानव ताप किसी में भी झुलसे लोगो के दिल में ठंडक पहुंचे।     

Sunday, 6 April 2014

शब्दो की प्रत्यंचा

                              भाषा शास्त्र समृद्धि के नए सोपान चढ़ रहा है। शब्दों के नए नए निहितार्थ निकाल  शब्दकोशों को समृद्ध करने का बृहत प्रयास किया जा रहा है।  जिन शब्दो को लोग सुनने में भी कतररते थे उनका इस्तेमाल करने में हिचक ही नहीं गर्वोक्ति का अनुभव किया जा रहा है। आरोपो और आक्षेपों कि अद्भुत बिजली गरज रही है। लोग चौंधिया जा रहे है। इस चमक से स्वाभाविक रूप से आँखों को समझ में नहीं आ रहा है कि आखिर वास्तविकता क्या  है। भीड़ युक्त जनतंत्र में सिर्फ जन ही जन  ही दिखाई पर  रहे है, तंत्र जैसे सिकुड़ कर कही दुबक गया है।  हर कोई उस तंत्र को समृद्ध करने के नए -नए सब्ज बाग़ लगा रहे है ,शब्दों के फव्वारे चला कर उसे सीचने का भरपूर प्रयत्न किया जा रहा है। ये वैसा ही लग रहा है जैसे कि आसमान से तेज़ाब कि बारिश हो रही है। एक जवान लोकतंत्र कि त्वचा काफी कठोर लग रही है और सहन करने में अपने आपको  सक्षम पा रहे है।शब्दो की प्रत्यंचा पर नए नए अर्थों के  तुणीर छोड़े जा रहे है। मुकाबला लगभग बराबरी का चल रहा है। जो इस मुकाबले से उदासीन है और अभी भी त्वचा मुलायम है  उन्होंने अपने -आपको इस परिदृश्य से बाहर  कर रखा है और ध्वनि रोधक छतरी फैला कर ही बाहर निकल रहे है। 
                    अगला परिणाम जो भी हो किन्तु अगर उसे भी ये  लोकतंत्र के मंदिर में  शब्द भजन और आजान कि तरह गूंजना शुरू  कर देंगे,और यदि अपने आपको विज्ञ कहलाने वाले कुछ लोगो ने ऐतराज किया तो इनकी सर्वसम्म्ति से इंकार करने का कोई कारन नहीं दीखता । हम कुछ और पर गर्व करे या न करे इतना तो कर ही सकते है कि जिन शब्दों को अनावश्यक परदे के भीतर रखा जाता था उसे भी हमने लोकतंत्र के उद्दात परम्परा का वहन  करते हुए आजादी दे दी है। आख़िर कोई भी परतंत्रता कि बेड़ी इन्ही शब्दो के सहारे ही तो काटता है फिर उन्ही शब्दो को घेरे में रखना आखिर अन्याय ही तो है। कम से कम इतना तो हो रहा है,कितनी आसानी से हवा में स्वच्छन्द हो ये शब्द तैर रहे है। जैसे -जैसे ये शब्दों ने तैरना शुरू किया विचारो में उत्तेजना का प्रभाव चारो तरफ दिखने लगा है।इस महोत्सव में किसके स्टॉल पर कितने जाते है और  कौन किस किस का हिसाब करेगा उसके समझ के लिए इन नए प्रयोगो को भी समझना होगा। अब देखना है कि इन शब्दो के धनुर्धर में कौन मछली की  आँख कि तरह घूमने वाले जनता के दिल को भेद पाता है।   

Sunday, 8 December 2013

"आप" की जीत


                               शंका और सवाल हर वक्त कायम रहते है। बदलाव कि प्रक्रिया काफी बैचैन करने वाली  होती  है। तात्कालिक परिणाम भविष्य  के अपेक्षित चाह को कितना भरोसा देती है इसके लिए धौर्य आवश्यक  है। गुणात्मक बदलाव कि अपेक्षा, हमेशा औरों से उम्मीद  करने की प्रवृति शायद अपेक्षित परिणाम से रोक देती  है। व्यबस्था के सर्वांगीण विकास में व्यक्तिगत निष्ठा और संगठन के विचार,इसमें  फर्क करना मुश्किल  होता है।समझते-समझते हो गई क्षति को भरना उससे भी कठिन।  किसी आभा के तहत कई बार सूक्ष्म छिद्रो पर नजर नहीं जाता। अपेक्षा का स्तर और चाह संगठन के शैशव कालीन निर्माण के बाद के विकास  में समय के साथ कुरूपता भर देता है। इसके उदाहरण  से हमारा लोकतंत्र समृद्ध है। चाहे वो जन संघ का निर्माण हो या जयप्रकाश कि क्रांति हो या लोहिया का आदर्श सभी यौवन काल तक पहुचते-पहुचते चारित्रिक विकारो से ग्रस्त हो गए। आश्चर्यजनक रूप से विचारो की  प्रषंगिकता का हर चुनाव के पूर्व तथाकथित अनुयाइयों द्वारा जाप किया जाता है किन्तु उसके बाद उसका उन विचारो को व्यवहारिकता के नाम पर कैसे धूल कि तरह झाड़ा जाता है ये कोई विशेष ज्ञान बातें  नहीं है । हम भी शायद व्यवहारिकता पे ज्यादा भरोसा करते, नहीं तो ये  विचार सिर्फ तथाकथित बौद्धिक जनो के  विचार का मुद्दा न रहकर जड़ तक इसका अनुपालन हो, इससे बेखबर हो जाते। अपेक्षित चाल -चलन और विचारो का बदलाव जो कि दिल्ली विधान सभा के चुनाव में  इस बार देखने को मिला है इसका वास्तविक रूपांतरण अगर व्यवस्था संचालन में आगे  आने वाले समय में होगा तो बेहतर प्रजातंत्र से इंकार नहीं किया जा सकता है। और लकीर पकड़ कर चलने में माहिर राजनेता इन आदर्शो को चुनाव जितने में सहयोग के तौर पर देखते हुए बेशक मज़बूरी में चले तो भी स्वागत योग्य है।  किन्तु हर बार कि तरह इसमें योगदान देने वाले जनता अपने लिए व्यक्तिगत  उपदान की अपेक्षा अगर रखने लगे तो सिर्फ इसबार "आप" बधाई कि पात्र होंगे तथा इतिहास बनाते-बनाते कही ऐतिहासिक में न तब्दील हो जाए ये देखना बाकी है। फिर भी अंत में बदलाव स्वागत योग्य है और शंकालू प्रवृति से ही सही किन्तु उम्मीद कि रौशनी तो फूटी है।  

Monday, 10 September 2012

खुद को बदले


पिछले दिनों  हिंदुस्तान समाचार पत्र में एक खबर प्रकाशित हुई।कुछ झारखंड के  छात्र  जो की  दरोगा के परीछा में असफल हो गए है वो धरना पर बैठे है।उनका मांग है  की अगर उनका चयन दरोगा के लिए  नहीं किया गया तो वो सभी नक्सली बन जायेंगे। आरोप है की भ्रष्टाचार तथा  त्रुटिपूर्ण प्रणाली के कारन उनका चयन नहीं हो सक।अगर वो नक्सली बन जाते है तो इसकी जिम्मेदारी सरकार  और पुलिस प्रशासन की होगी।संभवतः चयन में कुछ त्रुटी हो, भ्रष्टाचार जिस कदर मुह बाये हर जगह खरा है उससे इंकार किया ही नहीं जा सकता है।  किन्तु ये प्रबृति कुछ और ही इंगित करती है।समाज में फैल रहे असंतोष और बिघटनकारी  सोच की एक नई  प्रबृति  पनप रही है ,जहाँ  किसी भी मांग को जोरजबर्दस्ती से पाने की चाहत है।समाज  में ऐसे अक्षम सोच के लोग बड़ते जा रहे है जिनके लिए उदेश्य सरकारी नौकरी से ज्यादा कुछ नहीं अन्यथा नक्सल भी रोजगार का एक अबसर मुहैया करता है,इस बात से इत्तेफ़ाक रखते है। इनके नक्सली   बनने से किसे नुकसान होगा बिचारनिय है।
                                            
                      खैर रामचरितमानस में एक प्रसंग है "कादर मन कहू एक अघारा,देव देव आलसी पुकारा।"प्रसंग शायद अनावश्यक नहीं है।हमारी प्रवृती इस ओर ज्यादा झुकती जा रही है।नकारात्मकता का प्रभाव ज्यादा प्रभावी होता जा रहा है।भ्रस्टाचार के खिलाफ जब आन्दोलन चलाया गया तो ऐसा लगा की शायद साऱी  समस्याओ का जर ये नेतागण तथा हल सिर्फ जनलोकपाल बिधेयक है।आन्दोलन का स्वरुप से लगा की यह अंतिम समर की तयारी है किन्तु हम जहा से चले पुनः अपने आपको वही पा  रहे है।शायद अन्ना की तरह किसी और देव के इंतजार में है।और जब इस तरह के वाकया आता है तो स्वाभाविक रूप से यह प्रश्न उठता है की अनैतिक  रूप से दबाब डाल कर कुछ पाने के चाहत समाज के प्रत्येक तबके में किसी न किसी रूप में हर जगह ब्याप्त है।प्रेमचंद ने "नमक का दरोगा" कहानी में इस चाहत को दर्शाया था की मासिक बेतन तो पूर्णमासी का चाँद है जो एक दिन दिखाई देता है और घटते घटते लुप्त हो जाता है।जबकी उपरी कमाई बहता हुआ स्रोत है , जिससे प्यास सदैब बुझती है। यह सोच संभवतः  बढता जा रहा है। मौके की तलाश में सभी बैठे है जब तक मौका नहीं तब तक इस भ्रष्टाचार के खिलाफ पूरी सिद्दत से है।यह  प्रत्यकछ  रूप से प्रशासन और सरकार  के कार्य कलाप में दिखता है क्योकि ये सभी भी इसी सोच के समाज से आते है उनसे हम बिसेस की उम्मीद करते है शायद समस्या यही है।
           
     बस्तुतः देखा जाय तो यह एक ऐसी समस्या और मानसिकता है जिसका अपने सुबिधानुसार ब्याख्या  करने की  प्रबृति  हममें  बिकसित हो गया है।कोई भी समस्या देश या समाज के हित या अनहित से  ब्याख्या नहीं की जाती बल्कि उसको ब्याख्या करने के समय हम अपने हित-अनहित,अपने बिचारधरा जातिगत ,पार्टीगत और न जाने क्या क्या हिसाब लगाने के ही बाद हम किसी राय  को कायम करते है जिसमे की देश हित का कही कोई स्थान नहीं होता किन्तु कोई भी बात देश हित के  प्राथमिकता के ऊपर प्रचारित की जाती है।सभी भ्रष्टाचार के खिलाफ है किन्तु सभी के पैर में अपने अपने हित बेरी लगी हुई है जिसे खोल कर कोई भी आगे  नहीं बढना चाहता है।सही और गलत की ब्याख्य यदि युही  सुबिधानुसार की जायगी तो समस्या अपनी जगह यथावत बना रहेगा।  इसलिए  भ्रष्टाचार के बिरुद्ध अपार जनसमर्थन होते हुए भी यह अंजाम तक भी नहीं पहुच पाया है।हम  समस्या का समाधान अपनी सुबिधानुसार चाहते है।नहीं तो एक से एक घोटाले होते जा रहे है चाहे सरकार किसी की हो  कुकृत्य के लिए अलग-अलग दलील पक्ष  और बिपक्ष के द्वारा  नहीं दिया जाता।आजकल समस्या, समस्या स्वरुप न होकर बिचार्धरास्वरुप   बट गया है।हम पहले सही या गलत के ऊपर बहस न कर अपनी सोच के अनुसार उसका ब्याख्या करने में लगे है।नहीं तो अभी जिस प्रकार से कोयला घोटाले के ऊपर सभी दल अपने अनुसार इसके लिए आरोप प्रत्यारोप कर रहे है उससे तो यही लगता है की गलती को सुधारने की मनसा न होकर उसे सिर्फ दोषारोपन कर अपने को सही साबित किया जाय।आम जन भी किसी  समय अपनी  ब्याक्तिगत सोच और  विचारधारा से उपर नहीं उठ पाते  और सभी राजनीतिकदल जनता की इसी कमजोरी का फायदा उठाने में लगे है।क्योकि हमें एक के बाद एक भुलने की आदत है।
                 किसी भी  समाज की सोच,संस्कार,आचार,ब्याभहार ,प्रबृति न तो  एक दिन में बनी नहीं है और न ही ये इतनी जल्दी बदल सकती है किन्तु प्रयास तो किया ही जा सकता है।बस्तुतः भ्रष्टाचार  के खिलाफ आन्दोलन सिर्फ सरकार के खिलाफ था हम सिर्फ और सिर्फ  सरकारी काम काज से भ्रष्टाचार को  समाप्त करना चाहते है।इस आन्दोलन के संचालको के ऊपर कोई संसय न ही था और है किन्तु समर्थक की प्रवृत्ति  तथा सोच इमानदार है इसपर एक प्रश्न चिन्ह तो है ही।रामचरितमानस में प्रसंग है "जल संकोच बिकल भई मीना ,अबुध कुटुम्बी जिमी धन हिना " और जिस प्रकार सभी में धन की लालसा है वो किसी न किसी रूप में पाना चाहते है , परिस्थिति का फायदा उठाने की चाहत शायद ज्यादा है जो की इस प्रकार के आन्दोलन को कमजोर करता है।बस्तुतः भ्रस्टाचार भ्रस्ट  आचरण के साथ संधि है और आचरण क़ानूनी कम और नैतिक रूप से जयादा जबाबदेही होनी चाहिए।किन्तु इसे अभी सिर्फ और सिर्फ कानून के दयारे तक ही बहस में रखा जा रहा है। गीता में कहा गया है महापुरुष जो आचरण करते है सामान्य जन उसी का अनुसरण करते है।वह अपने अनुसरणीय कार्य से जो आदर्श प्रस्तुत करता है,संपूर्ण विश्व उसका अनुसरण करता है।किन्तु आज के परिदृश्य में ऐसे लोगो की कमी हो गई है जिनको की लोग अनुसरण कर सके।समुद्र में जब लहरे तट  की ओर आती है तो जमा मैल फेन रूप में उस लहर पर सबार होकर तट तक आता है किन्तु ये कितने दिनों से जमा हो रहा है ये पता नहीं। इसी प्रकार आज की परिस्थिति एक दिन की नहीं है ये समाज में काफी समय से चल रहे पतन और छाई हुई प्रबृति  का परिणाम है जिसे एक दिन में दूर करने की अपेछा नहीं की जा सकती है।समस्या है की मिटटी ब्याप्त जहर को दूर न  कर हम पेड में दबा दिए जा रहे है और चाहते है की हमें स्वस्थ तथा सुन्दर फल मिले।जो की संभव नहीं।हमें मिटटी में ब्याप्त जहर को दूर करने का प्रयास करना चाहिए। किन्तु जिस प्रकार से अन्ना समर्थक राजनीती में आना चाहते है हम शायद ये मौका गबा रहे है।

हर कोई इस परिस्थिती से ब्याकुल लगता है और इससे निजात पाना चाहता है किन्तु किसी के इंतजार में प्रतीक्छारत है। ब्रिह्दारन्यक उपनिषद में ब्याकुल मनुष्य का बर्णन इस प्रकार से हुआ है -"कृपन मनुष्य वह है जो मानव जीबन की समस्या को हल नहीं करता और अपने आप को समझे बिना कूकर -सूकर की भांति  इस संसार को  त्याग कर चला जाता है।कम से कम हर ब्यक्ति अपने आप से ईमानदारी बरतने का प्रयास करे एक तीली प्रकाश का जलाये अपने आस पास अगर प्रकाशित कर सके तो समाज में स्वतः अँधेरा कम होगा और इस प्रकार के दिग्भ्रमित युवा शायद इस प्रकार से कृपणता वश कुछ ना मांग अपने जीवन को दिशा देने वाले एक चिराग सिर्फ और सिर्फ अपने लिए रोशन कर सके तो उससे भी इस देश का भबिष्य उज्जवल होने की पूर्ण आशा है।