शंका और सवाल हर वक्त कायम रहते है। बदलाव कि प्रक्रिया काफी बैचैन करने वाली होती है। तात्कालिक परिणाम भविष्य के अपेक्षित चाह को कितना भरोसा देती है इसके लिए धौर्य आवश्यक है। गुणात्मक बदलाव कि अपेक्षा, हमेशा औरों से उम्मीद करने की प्रवृति शायद अपेक्षित परिणाम से रोक देती है। व्यबस्था के सर्वांगीण विकास में व्यक्तिगत निष्ठा और संगठन के विचार,इसमें फर्क करना मुश्किल होता है।समझते-समझते हो गई क्षति को भरना उससे भी कठिन। किसी आभा के तहत कई बार सूक्ष्म छिद्रो पर नजर नहीं जाता। अपेक्षा का स्तर और चाह संगठन के शैशव कालीन निर्माण के बाद के विकास में समय के साथ कुरूपता भर देता है। इसके उदाहरण से हमारा लोकतंत्र समृद्ध है। चाहे वो जन संघ का निर्माण हो या जयप्रकाश कि क्रांति हो या लोहिया का आदर्श सभी यौवन काल तक पहुचते-पहुचते चारित्रिक विकारो से ग्रस्त हो गए। आश्चर्यजनक रूप से विचारो की प्रषंगिकता का हर चुनाव के पूर्व तथाकथित अनुयाइयों द्वारा जाप किया जाता है किन्तु उसके बाद उसका उन विचारो को व्यवहारिकता के नाम पर कैसे धूल कि तरह झाड़ा जाता है ये कोई विशेष ज्ञान बातें नहीं है । हम भी शायद व्यवहारिकता पे ज्यादा भरोसा करते, नहीं तो ये विचार सिर्फ तथाकथित बौद्धिक जनो के विचार का मुद्दा न रहकर जड़ तक इसका अनुपालन हो, इससे बेखबर हो जाते। अपेक्षित चाल -चलन और विचारो का बदलाव जो कि दिल्ली विधान सभा के चुनाव में इस बार देखने को मिला है इसका वास्तविक रूपांतरण अगर व्यवस्था संचालन में आगे आने वाले समय में होगा तो बेहतर प्रजातंत्र से इंकार नहीं किया जा सकता है। और लकीर पकड़ कर चलने में माहिर राजनेता इन आदर्शो को चुनाव जितने में सहयोग के तौर पर देखते हुए बेशक मज़बूरी में चले तो भी स्वागत योग्य है। किन्तु हर बार कि तरह इसमें योगदान देने वाले जनता अपने लिए व्यक्तिगत उपदान की अपेक्षा अगर रखने लगे तो सिर्फ इसबार "आप" बधाई कि पात्र होंगे तथा इतिहास बनाते-बनाते कही ऐतिहासिक में न तब्दील हो जाए ये देखना बाकी है। फिर भी अंत में बदलाव स्वागत योग्य है और शंकालू प्रवृति से ही सही किन्तु उम्मीद कि रौशनी तो फूटी है।
अमंत्रं अक्षरं नास्ति , नास्ति मूलं अनौषधं । अयोग्यः पुरुषः नास्ति, योजकः तत्र दुर्लभ: ॥ "कोई अक्षर ऐसा नही है जिससे (कोई) मन्त्र न शुरु होता हो , कोई ऐसा मूल (जड़) नही है , जिससे कोई औषधि न बनती हो और कोई भी आदमी अयोग्यनही होता , उसको काम मे लेने वाले (मैनेजर) ही दुर्लभ हैं ।" — शुक्राचार्य
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Sunday, 8 December 2013
"आप" की जीत
शंका और सवाल हर वक्त कायम रहते है। बदलाव कि प्रक्रिया काफी बैचैन करने वाली होती है। तात्कालिक परिणाम भविष्य के अपेक्षित चाह को कितना भरोसा देती है इसके लिए धौर्य आवश्यक है। गुणात्मक बदलाव कि अपेक्षा, हमेशा औरों से उम्मीद करने की प्रवृति शायद अपेक्षित परिणाम से रोक देती है। व्यबस्था के सर्वांगीण विकास में व्यक्तिगत निष्ठा और संगठन के विचार,इसमें फर्क करना मुश्किल होता है।समझते-समझते हो गई क्षति को भरना उससे भी कठिन। किसी आभा के तहत कई बार सूक्ष्म छिद्रो पर नजर नहीं जाता। अपेक्षा का स्तर और चाह संगठन के शैशव कालीन निर्माण के बाद के विकास में समय के साथ कुरूपता भर देता है। इसके उदाहरण से हमारा लोकतंत्र समृद्ध है। चाहे वो जन संघ का निर्माण हो या जयप्रकाश कि क्रांति हो या लोहिया का आदर्श सभी यौवन काल तक पहुचते-पहुचते चारित्रिक विकारो से ग्रस्त हो गए। आश्चर्यजनक रूप से विचारो की प्रषंगिकता का हर चुनाव के पूर्व तथाकथित अनुयाइयों द्वारा जाप किया जाता है किन्तु उसके बाद उसका उन विचारो को व्यवहारिकता के नाम पर कैसे धूल कि तरह झाड़ा जाता है ये कोई विशेष ज्ञान बातें नहीं है । हम भी शायद व्यवहारिकता पे ज्यादा भरोसा करते, नहीं तो ये विचार सिर्फ तथाकथित बौद्धिक जनो के विचार का मुद्दा न रहकर जड़ तक इसका अनुपालन हो, इससे बेखबर हो जाते। अपेक्षित चाल -चलन और विचारो का बदलाव जो कि दिल्ली विधान सभा के चुनाव में इस बार देखने को मिला है इसका वास्तविक रूपांतरण अगर व्यवस्था संचालन में आगे आने वाले समय में होगा तो बेहतर प्रजातंत्र से इंकार नहीं किया जा सकता है। और लकीर पकड़ कर चलने में माहिर राजनेता इन आदर्शो को चुनाव जितने में सहयोग के तौर पर देखते हुए बेशक मज़बूरी में चले तो भी स्वागत योग्य है। किन्तु हर बार कि तरह इसमें योगदान देने वाले जनता अपने लिए व्यक्तिगत उपदान की अपेक्षा अगर रखने लगे तो सिर्फ इसबार "आप" बधाई कि पात्र होंगे तथा इतिहास बनाते-बनाते कही ऐतिहासिक में न तब्दील हो जाए ये देखना बाकी है। फिर भी अंत में बदलाव स्वागत योग्य है और शंकालू प्रवृति से ही सही किन्तु उम्मीद कि रौशनी तो फूटी है।
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