Monday 15 October 2012

हकीकत

कालीखो से घिरे दीप को न देख
इस लौ को थोड़ा और जगमगाने दे,

दबी हुई थी हवा, अब बहक गई है    
रोक मत कदम बहक जाने दे।

ये गरम हवा का झोका ही सही,
दिलो में जमे बर्फ तो गलाने  दे।

हर रोज एक नई तस्वीर छपती है
थक जाय  नैन पर उसे निहारने दे।

 जो  ढूंडते अब  एक अदद जगह
 रौशनी से उनका चेहरा तो नहाने  दे।

न्याय की तखत पे बैठे है जो
उनके बदनीयत की बैशाखी अब हटाने  दे।

दिलो में घुट रही है धुआ लोगो के
इन्ही चिंगारी से आशियाना जलाने दे।

जो भीर रहे शासक से, सिरफिरे ही सही
नियत से क्या हकीकत तो जान लेने  दे।

Monday 8 October 2012

कई बार सोचा तुझे शब्दों में उतार दू

कई बार सोचा तुझे शब्दों में उतार दू

जिस धरा के अंग अंग में रास ही बसी  हो,
प्रेमद्विग्न अप्सरा भी जहा कभी रही हो।
फिसल परे जहा कभी नयन मेघो के,
ऐसा  रंग जिस फिजा  में  देव ने भरा हो।
बचे नहीं कोई यहाँ इसके महक से ,
कभी किसी ने  कदम जो  यहाँ  रखा हो।
इन्ही वादियों में बिखरे मनका न गूँथ सकूँ  
कई बार सोचा तुझे शब्दों में उतार दू,
लयबद्ध कर उसको विस्तार दू।।

थी खनकती तार वो जिसमे सुर संगीत है,
शब्द में न उतर सका ये वो मधुर गीत है।
वो हसीन लम्हों ने छेड़ा जो तान था ,
गुन्जनो के शोर सा  छलकता गान था।
थी हसी समा जैसे मोम से पिघल गए ,
चांदनी हसीन रात जाने कबके  ढल गए ,
जलज पात जिन्दगी कैसे स्याही सवार दू।
कई बार सोचा तुझे शब्दों में उतार दू,
लयबद्ध कर उसको विस्तार दू।।

रूप को ख्याल कर, क्या उसे आकार  दू
रूह में जो बस गए कैसे साकार  दू।
आभा उसका ऐसा की शब्द झिलमिला गए
केसुओ की छाव में नयन वही समा गए ।
चांदनी यु लहरों पे हिचकोले खाती है।
दूर दूर बस वही नजर आती है।
कायनात की नूर कैसे कुछ पदों में शार दू ,
कई बार सोचा तुझे शब्दों में उतार दू,
लयबद्ध कर उसको विस्तार दू।।

पहली बार उससे यू टकराना,
वो नजर की तिक्छ्नता पर साथ  शर्माना।
कदम वो  बडा चले पर झुक गयी नजर,
धडकते दिल की अक्स भी मुझे  दिखी जमीं पर।
भों तन गई मगर पलक झिलमिला गए,
अर्ध और पूर्ण विराम सुरमा में समां गए।
वाक्य न बन सका कैसे विराम दू ,
कई बार सोचा तुझे शब्दों में उतार दू,
लयबद्ध कर उसको विस्तार दू।।

पल पल वो पल ,पल के संग बंध गए,
छण बदलकर आगे आगे दिनों में निखर गए।
हर पल अब नजर  को किसी की तलाश था,
वो चमन भी जल रहा इसका एहशाश था।
प्यास थी अब बड़  चली दुरी मंजूर नहीं,
कदम खुद चल परे जिधर हो तेरा यकीं।
ऐसे एहशास कैसे अंतरा में बांध दू  ,
कई बार सोचा तुझे शब्दों में उतार दू ,
लयबद्ध कर उसको विस्तार दू।।

ठहर गए वक्त तब मेजो के आर पार ,
मिल रहे थे सुर दो कितने रियाज के बाद।
थी सड़क पे भीर भी और शोर भी  अजीब था ,
टनटनाते चमच्चो में भी सुर संगीत था .
और फिर साथ साथ हाथ यु धुल रहे ,
मिल गए लब भी और होठ थे सिल गए ,
उस सिसकती अंतरा को किस छंद में बांध दू  ,
कई बार सोचा तुझे शब्दों में उतार दू,
लयबद्ध कर उसको विस्तार दू।।
                                                  .

Sunday 7 October 2012

मोहताज

दो वक़्त की रोटी के लिए जो भी  मोहताज है,
उनके लिए क्या टू जी या कोयला का राज है।

महल मिला बडेरा को या नहर कोई पी  गया,
गरीब की दवा को भी कोई यु ही लिल गया।
गाय के  चारे को जो रोटी समझ के खा गये 
तोप के गोले भी जो युही पचा गए   ।।
आदर्श घर न मिल सका उसका क्या काज है,, 
दो वक़्त की रोटी के लिए जो भी  मोहताज है,
उनके लिए क्या टू जी या कोयला का राज है।।

जमी  असमान हो या   खेत खलिहान हो ,
 ताबूतो को भी ले गए या तेलगी का काम हो ।
जहा नजर घुमाये हम , ये भिखारी छा गए
इनको  देख के अब  भिखारी भी  शर्मा गए।।
सत्यम की बात हो या खेलगांव का राज है,
दो वक़्त की रोटी के लिए जो भी  मोहताज है,
उनके लिए क्या टू जी या कोयला का राज है।

रोटियो को मांगते गरीब हमने देखा है
जिनके पास कमी नहीं वो अमीर देखा है।।
ऐसे अमीर बढ गए जो मन के गरीब  है,
जिनके पास सब कुछ,पर लूट ही नसीब है।।
जनता अब जानता  है सबको पहचानता है,
पैसे वाले भूखे नंगे बेल अब मांगता है।
आज नहीं तो कल अब खतम इनका राज है,
दो वक़्त की रोटी के लिए जो भी  मोहताज है,
उनके लिए क्या टू जी या कोयला का राज है।।

Sunday 30 September 2012

तेरी दुनिया




भीर हाथ बांधे  खरी, वो परा लहू से सना
थी  निगाहें ढूंडती  सभी की,कौन है यु  परा।
न मिला एक हाथ ऐसा,जो की देता साथ,
बैचैन आंखे सभी कोई अपना न हो काश।
बच न पाया, बच ही जाता,कम्बखत जो कुछ ऐसा होता।
की लहू का रंग सबका, मजहबो सा जुदा  होता।।


तेरी बनाई  दुनिया तेरे बनाये लोग,
तेरे ही नाम से लड़ रहे और सब रहे है भोग।
है तेरी नियत में खोट ऐसा हमको लगने लगा 
भूल न जाये हम तुझे इसलिए यह इल्म दिया।
इस जहा में तेरी रचना और भी कितने परे 
पर हमें अब तू बता तेरे नाम पे कितने लड़े।।


है सभी के अब जहन में, कौन  अपना और पराया 
किसको भेजा तू यहाँ और कौन कही और से आया।
जो ना इसपे अब तू जागा ,देर बहुत हो जायेगा 
तेरी दुनिया यु रहेगी, पर कौन यहाँ बच पायेगा।
जो तेरे बन्दे न हो तो कायनात का क्या करोगो
तुम भी खुद को  ढूंढ़ते, फिर हमें ही याद करोगे।।

Tuesday 25 September 2012

फिक्स डायरेक्ट इनकम (एफ डी आई)

                          बात तो सही है अगर हरा भरा सावन सालों भर किसी के लिए है तो वो हमारा  मीडिया ही है  कभी मंदी नहीं छाता है,इनके रोजगार के लिए सरकार कोई न कोई योजना समय समय अपने पिटारे से खोलती रहती है।और ये मीडिया वाले को तो समझ तो आता नहीं बस लगते है आलोचना करने। आलोचना -समालोचना भी ऐसा की अंत तक कोई निष्कर्स  नहीं निकलता और अंतिम ओवर में निर्णय सीधे दर्शको  के हाथ में छोर देते है।अगर निर्णय ये हम जैसे ढाई आखर पड़े हुए को ही करना है तो इतने ज्ञानी जानो को बुलाने की क्या जरुरत है हमें ही बुला लिया करे।

                         अब देखिये ये एफ डी आई(फिक्स डायरेक्ट इनकम ) का क्या सुन्दर नीति लागु किया तो सभी को उसमे संशय सरकार के नियत में दिख रहा है।जिनकी नियत में खुद खोट हो उनको तो दुसरे में भी खोट नजर आएगा ही,अब ऐसे सक्की लोगो के कारण सरकार अपना राजधर्म तो छोड़ नहीं सकती।इसलिए  तुलसीदासजी ने रामायण में कहा है"जेहि के रही भाबना जैसी प्रभु मुरत देखि तिन्ह तैसी " अब बाकि पार्टियों के भावना में ही खोट है तो सरकार क्या कर सकती है। और ये समाचार प्रबंचक भी सरकार के आलोचना में अस्तुतिगान को 24x7 चलाने में लगे हुए है, समाचार पे समाचार ,सीधी बात से प्राइम टाइम और विशेस तक ये एफ डी आई का मुद्दा छ गया। आखिर अभी भी कुछ पार्टी जनता और गरीबो के हित से अपने आप को अलग नहीं रखा है,इसलिए समाजबादी हनुमान हमेसा संजिबानी लिए तैयार है आखिर इस रंछेत्र में सरकार इन्ही गरीबो के हित के कारन ही तो है। फिर ये भी तो कहा गया है "बड़े सनेह लघुन्ह पर करही।गिरी निजि सिरनि सदा त्रीन धरही।। ये गुनी ज्ञानी सरकार इस बात को समझती है तभी तो ये गरीब किसानो के लिए इतना प्रयास रत है की अपने आपको दाव पर भी लगा दी।तभी तो ये जानते हुए भी की पेड़ पर पैसा नहीं लगता ,ये  पेड़ में फल को सडा कर सीधे पैसे उगने की नीति बनाये ताकि हमारे किसान को कोई समस्या ही न रहे।इसलिये तो इस नीति को एफ डी आई(फिक्स डैरेक्ट इनकाम) की नीति कहा गया है।लेकिन बाकि सभी बिपक्छी पार्टियो को सब गलत ही दीखता है।

                     सभी चिंतित है ,पता नहीं ये सरकार  आखिर क्यों किसानो के लिए इतना परेशान है और क्यों आखिर किराने और रहरी वालो से हमारी सरकार नाराज हो रखा है।हमें तो यही नहीं समझ आ रहा है की अगर एफ डी आई  जायेगा क्या परेशानी हो जाएगी। एक महोदय का कहना है की ये किरना और रहरी वाले ख़तम हो जायेगे।अजीब बात है सरकार तो गरीबी उन्मूलन के लिए पता नहीं कितना कार्क्रम चला रही है ,नए-नए मानक तय किया जा रहा है,पर कम्बखत न गरीब कम हो रहे है और न ही गरीबी।अगर इस एफ डी आई से ये कम हो जायेगा तो इसमें परेशानी क्या है।ये तो भला हो वोलमार्ट महोदय का की उन्होंने इस महान सेवा का बीरा हमारे लिए अपने कंधो पर उठाने को तैयार बैठे है।बरना आजकल कौन से कंपनिया इस तरह के सामाजिक कार्य में अपना सहयोग देती है।ये सरकार बहुत सोच समझकर फैसला किया है क्योकि फिक्स डैरेक्ट इनकाम  (एफ डी आई) ये तो नाम से ही जाहिर है।फिर भी बे-बजह सभी गरीबी की डीग्री लिए पड़े -लिखे लोग हमारे पी एम के सर्ट उतारने में लगे हुए है।अगर इतने बड़े अर्थशास्त्री कोई शास्त्र सम्मत बात बता रहे है तो उसे समझाने की कोसिस करनी चाहिए।भाई देश में इतना अनाज हर साल होता है पर सरकार आपके घर तो रखेगी नहीं और रखने का गोदाम बना नहीं सकते क्योकि विपक्छ तो सिर्फ 2जी और कोयला कौन खा रहा है उसी के पीछे परे है ,इनको गोदाम बनाने का समय दे तब ना।कितना अच्छा सुबिचार है की ये कंपिनया गोदाम बना कर उसे जमा करेगी उससे भी नहीं होगा तो अपने देश के गोदाम में जमा कराएगी आखिर "अन्न देबो भव "बर्बाद करना तो पाप है,ये गेरुआ बस्त्र बाले भी नहीं समझ रहे।उनकी मति क्यों मारी गई।टाई सुट में जब रंग बिरंगी गाड़ियो  में सीधे खेत से सामान उठेगा तब हमारे किसान के  प्रफुलित मनोदसा को कोई समझाने की आखिर कोशिश  क्यों नहीं कर रहा? ये सब छोटे मोटे बनिया हमारी किसानो की ऊपर उठते देखना नहीं चाहते इस लिए पानी  पी कर हमारे ज्ञानी अर्थशास्त्री के पीछे पर गए। जबकि ये बार बार बताया जा रहा है की हम 1991 की हाल पर है और उस अवस्था से अभी के बजिरे आला बहार लाये थे ,अब तब से अभी तक का जमा पूंजी अगर 2जी ,कोमंवेल्थ ,कोयला में खर्च हो गया है तो कही न कही से पैसा लाना होगा न ,आखिर ये जमा भी इन्ही ने क्या था।
           आपने देखा नहीं कोमन्वेल्थ के समय किस प्रकार से झुग्गी झोपड़ी खत्म हो गया और आज दिल्ली कैसी है ,इन सब बातो को समझाते हुए भी नियत पर संदेह करे यह ठीक नहीं।जिसे घोटाले का नाम देकर बेवजह बदनाम करने की कोसिस की जा रही है ,दरअसल ये घोटाले की नीति देश के कोष को लम्बे समय तक सुरक्षित  रखने की नीति है।जिसे विशेष   परिस्थिति के लिए हर सरकार अपने समय में जारी करती है।आखिर देश का खजाना जब खाली होगा तब इसे उपयोग में लाया जायेगा,अफवाहों से बचने की कोशिस करे।ये मंत्रीगण देश की जनता को बढिया से जानती है और उनको पता है की कुछ लोगो के अत्यधिक ज्ञान की डफली जो बजाये घूम रहे है उनको फोर देंगे,आप भी भुलावे में न आये इनकी नेकनीयती पर संदेह न करते हुए समझने की कोशिश करे।

Thursday 20 September 2012

ये क्या जो गर्दिसे दीदार है।

वो  जो बैठे आसमां में, हसरतो से देख रहे,
ये क्या जो गर्दिसे दीदार है ?

बादियो से सिसकिया गूंजती है,
और उनको संगीत-उल्फ़ते आभास  है।
पेट बांधे घुटनों के बल  परे है
वो  समझते कसरतो का ये  खेल है।
वो जो  बैठे आसमां में, हसरतो से देख रहे
ये क्या जो गर्दिसे दीदार है ?

है गले तक बारिसो की सैलाब ये,
उनको मंजर सोंखिया ये झील की गहराई है।
चश्मे-शाही की बदलते सूरते भी,
हलक की प्यास बुझाते रंगीन ये जाम है।
वो जो बैठे असमा में, हसरतो से देख रहे
ये क्या जो गर्दिसे दीदार है ?

हर गली में भय का साया, निःशब्दता छाया हुआ,
वो समझते नींद के आगोश में चैन से  खोये हुए है।
रहनुमा जो मुल्क की तक़दीर पर खुद  भिर रहे ,
अमन का पैगाम भी बाटते वो चल रहे।
वो जो बैठे असमाँ में , हसरतो से देख रहे
ये क्या जो गर्दिसे दीदार है ?

कालीखो से अब यहाँ, है किसी को भय नहीं,
दूर तलक फैली हुई जो कोयले की राख है।
मुल्क की मजहुर्रियत में, मुर्दान्गिया सी छाई है 
है हलक जो खोलते भी, उनकी ही परछाई है।
वो जो  बैठे असमाँ में, हसरतो से देख रहे
ये क्या जो गर्दिसे दीदार है ?

क्या कफ़न था हमने बांधा,ऐसा हो मुल्के-वतन,
उल्फ़ते-शरफरोसों की, ये क्या इनाम है?
गोरो की उस गर्दिशी में भी, ना थी ये वीरानिया,
लुट लो मिलके चमन को,अच्छा ये अंजाम है।
वो जो बैठे असमाँ  में, हसरतो से देख रहे
ये क्या जो गर्दिसे दीदार है ?

Monday 17 September 2012

छुट गई वो मंजर पीछे ,जिसको ढूंडा करते है



छुट गई वो मंजर पीछे ,जिसको ढूंडा  करते है,
जाने किसकी खोज में हम सब आगे आगे बड़ते  है।।

खेतो की चादर सुनहरी जो लहराया करती थी,
पिली-पिली सरसों से जब  धरती यु लरजती थी।
कोयल की कु-कु की तान ,लहरों से टकराती थी,
सर सर सर सरकती बहती, हवा नहीं शहनाई थी।

छुट गई वो मंजर पीछे ,जिसको ढूंडा करते है,
जाने किसकी खोज में हम सब आगे आगे बड़ते   है।।

वो गाँव की गली संकरी जिसका कोई नाम नहीं ,
जहा द्वार पर सबका दाबा ,जहा कोई अनजान नहीं,
हर घर एक रसोई अपना,कोई चाची -ताई थी,
अपना घर क्या होता है,न कोई समझाई थी।।

छुट गई वो मंजर पीछे ,जिसको ढूंडा करते है,
जाने किसकी खोज में हम सब आगे आगे बड़ते  है।।

आम की बगिया में मंजर और टिकुला का आना  था ,
वोही अपना  राजमहल और मचान सिंघासन था।
रात-रात भर उस बगिया में सारे सपने  अपने थे ,
चंदा मामा साथ हमारे लुका छिपी खेलते थे।।

छुट गई वो मंजर पीछे ,जिसको ढूंडा करते है,
जाने किसकी खोज में हम सब आगे आगे बड़ते  है।।

अब तो  अब हम खुद से ही  अनजाने है,
रिश्ते कब के भूल गए कौन   किसे पहचाने है।
कंक्रीटो ने अब बगिया के  राजमहल को लुट लिया ,
नदिया और कोयल की बोली सबसे नाता टूट गया।।

छुट गई वो मंजर पीछे ,जिसको ढूंडा करते है,
जाने किसकी खोज में हम सब आगे आगे बड़ते  है।।

Monday 10 September 2012

खुद को बदले


पिछले दिनों  हिंदुस्तान समाचार पत्र में एक खबर प्रकाशित हुई।कुछ झारखंड के  छात्र  जो की  दरोगा के परीछा में असफल हो गए है वो धरना पर बैठे है।उनका मांग है  की अगर उनका चयन दरोगा के लिए  नहीं किया गया तो वो सभी नक्सली बन जायेंगे। आरोप है की भ्रष्टाचार तथा  त्रुटिपूर्ण प्रणाली के कारन उनका चयन नहीं हो सक।अगर वो नक्सली बन जाते है तो इसकी जिम्मेदारी सरकार  और पुलिस प्रशासन की होगी।संभवतः चयन में कुछ त्रुटी हो, भ्रष्टाचार जिस कदर मुह बाये हर जगह खरा है उससे इंकार किया ही नहीं जा सकता है।  किन्तु ये प्रबृति कुछ और ही इंगित करती है।समाज में फैल रहे असंतोष और बिघटनकारी  सोच की एक नई  प्रबृति  पनप रही है ,जहाँ  किसी भी मांग को जोरजबर्दस्ती से पाने की चाहत है।समाज  में ऐसे अक्षम सोच के लोग बड़ते जा रहे है जिनके लिए उदेश्य सरकारी नौकरी से ज्यादा कुछ नहीं अन्यथा नक्सल भी रोजगार का एक अबसर मुहैया करता है,इस बात से इत्तेफ़ाक रखते है। इनके नक्सली   बनने से किसे नुकसान होगा बिचारनिय है।
                                            
                      खैर रामचरितमानस में एक प्रसंग है "कादर मन कहू एक अघारा,देव देव आलसी पुकारा।"प्रसंग शायद अनावश्यक नहीं है।हमारी प्रवृती इस ओर ज्यादा झुकती जा रही है।नकारात्मकता का प्रभाव ज्यादा प्रभावी होता जा रहा है।भ्रस्टाचार के खिलाफ जब आन्दोलन चलाया गया तो ऐसा लगा की शायद साऱी  समस्याओ का जर ये नेतागण तथा हल सिर्फ जनलोकपाल बिधेयक है।आन्दोलन का स्वरुप से लगा की यह अंतिम समर की तयारी है किन्तु हम जहा से चले पुनः अपने आपको वही पा  रहे है।शायद अन्ना की तरह किसी और देव के इंतजार में है।और जब इस तरह के वाकया आता है तो स्वाभाविक रूप से यह प्रश्न उठता है की अनैतिक  रूप से दबाब डाल कर कुछ पाने के चाहत समाज के प्रत्येक तबके में किसी न किसी रूप में हर जगह ब्याप्त है।प्रेमचंद ने "नमक का दरोगा" कहानी में इस चाहत को दर्शाया था की मासिक बेतन तो पूर्णमासी का चाँद है जो एक दिन दिखाई देता है और घटते घटते लुप्त हो जाता है।जबकी उपरी कमाई बहता हुआ स्रोत है , जिससे प्यास सदैब बुझती है। यह सोच संभवतः  बढता जा रहा है। मौके की तलाश में सभी बैठे है जब तक मौका नहीं तब तक इस भ्रष्टाचार के खिलाफ पूरी सिद्दत से है।यह  प्रत्यकछ  रूप से प्रशासन और सरकार  के कार्य कलाप में दिखता है क्योकि ये सभी भी इसी सोच के समाज से आते है उनसे हम बिसेस की उम्मीद करते है शायद समस्या यही है।
           
     बस्तुतः देखा जाय तो यह एक ऐसी समस्या और मानसिकता है जिसका अपने सुबिधानुसार ब्याख्या  करने की  प्रबृति  हममें  बिकसित हो गया है।कोई भी समस्या देश या समाज के हित या अनहित से  ब्याख्या नहीं की जाती बल्कि उसको ब्याख्या करने के समय हम अपने हित-अनहित,अपने बिचारधरा जातिगत ,पार्टीगत और न जाने क्या क्या हिसाब लगाने के ही बाद हम किसी राय  को कायम करते है जिसमे की देश हित का कही कोई स्थान नहीं होता किन्तु कोई भी बात देश हित के  प्राथमिकता के ऊपर प्रचारित की जाती है।सभी भ्रष्टाचार के खिलाफ है किन्तु सभी के पैर में अपने अपने हित बेरी लगी हुई है जिसे खोल कर कोई भी आगे  नहीं बढना चाहता है।सही और गलत की ब्याख्य यदि युही  सुबिधानुसार की जायगी तो समस्या अपनी जगह यथावत बना रहेगा।  इसलिए  भ्रष्टाचार के बिरुद्ध अपार जनसमर्थन होते हुए भी यह अंजाम तक भी नहीं पहुच पाया है।हम  समस्या का समाधान अपनी सुबिधानुसार चाहते है।नहीं तो एक से एक घोटाले होते जा रहे है चाहे सरकार किसी की हो  कुकृत्य के लिए अलग-अलग दलील पक्ष  और बिपक्ष के द्वारा  नहीं दिया जाता।आजकल समस्या, समस्या स्वरुप न होकर बिचार्धरास्वरुप   बट गया है।हम पहले सही या गलत के ऊपर बहस न कर अपनी सोच के अनुसार उसका ब्याख्या करने में लगे है।नहीं तो अभी जिस प्रकार से कोयला घोटाले के ऊपर सभी दल अपने अनुसार इसके लिए आरोप प्रत्यारोप कर रहे है उससे तो यही लगता है की गलती को सुधारने की मनसा न होकर उसे सिर्फ दोषारोपन कर अपने को सही साबित किया जाय।आम जन भी किसी  समय अपनी  ब्याक्तिगत सोच और  विचारधारा से उपर नहीं उठ पाते  और सभी राजनीतिकदल जनता की इसी कमजोरी का फायदा उठाने में लगे है।क्योकि हमें एक के बाद एक भुलने की आदत है।
                 किसी भी  समाज की सोच,संस्कार,आचार,ब्याभहार ,प्रबृति न तो  एक दिन में बनी नहीं है और न ही ये इतनी जल्दी बदल सकती है किन्तु प्रयास तो किया ही जा सकता है।बस्तुतः भ्रष्टाचार  के खिलाफ आन्दोलन सिर्फ सरकार के खिलाफ था हम सिर्फ और सिर्फ  सरकारी काम काज से भ्रष्टाचार को  समाप्त करना चाहते है।इस आन्दोलन के संचालको के ऊपर कोई संसय न ही था और है किन्तु समर्थक की प्रवृत्ति  तथा सोच इमानदार है इसपर एक प्रश्न चिन्ह तो है ही।रामचरितमानस में प्रसंग है "जल संकोच बिकल भई मीना ,अबुध कुटुम्बी जिमी धन हिना " और जिस प्रकार सभी में धन की लालसा है वो किसी न किसी रूप में पाना चाहते है , परिस्थिति का फायदा उठाने की चाहत शायद ज्यादा है जो की इस प्रकार के आन्दोलन को कमजोर करता है।बस्तुतः भ्रस्टाचार भ्रस्ट  आचरण के साथ संधि है और आचरण क़ानूनी कम और नैतिक रूप से जयादा जबाबदेही होनी चाहिए।किन्तु इसे अभी सिर्फ और सिर्फ कानून के दयारे तक ही बहस में रखा जा रहा है। गीता में कहा गया है महापुरुष जो आचरण करते है सामान्य जन उसी का अनुसरण करते है।वह अपने अनुसरणीय कार्य से जो आदर्श प्रस्तुत करता है,संपूर्ण विश्व उसका अनुसरण करता है।किन्तु आज के परिदृश्य में ऐसे लोगो की कमी हो गई है जिनको की लोग अनुसरण कर सके।समुद्र में जब लहरे तट  की ओर आती है तो जमा मैल फेन रूप में उस लहर पर सबार होकर तट तक आता है किन्तु ये कितने दिनों से जमा हो रहा है ये पता नहीं। इसी प्रकार आज की परिस्थिति एक दिन की नहीं है ये समाज में काफी समय से चल रहे पतन और छाई हुई प्रबृति  का परिणाम है जिसे एक दिन में दूर करने की अपेछा नहीं की जा सकती है।समस्या है की मिटटी ब्याप्त जहर को दूर न  कर हम पेड में दबा दिए जा रहे है और चाहते है की हमें स्वस्थ तथा सुन्दर फल मिले।जो की संभव नहीं।हमें मिटटी में ब्याप्त जहर को दूर करने का प्रयास करना चाहिए। किन्तु जिस प्रकार से अन्ना समर्थक राजनीती में आना चाहते है हम शायद ये मौका गबा रहे है।

हर कोई इस परिस्थिती से ब्याकुल लगता है और इससे निजात पाना चाहता है किन्तु किसी के इंतजार में प्रतीक्छारत है। ब्रिह्दारन्यक उपनिषद में ब्याकुल मनुष्य का बर्णन इस प्रकार से हुआ है -"कृपन मनुष्य वह है जो मानव जीबन की समस्या को हल नहीं करता और अपने आप को समझे बिना कूकर -सूकर की भांति  इस संसार को  त्याग कर चला जाता है।कम से कम हर ब्यक्ति अपने आप से ईमानदारी बरतने का प्रयास करे एक तीली प्रकाश का जलाये अपने आस पास अगर प्रकाशित कर सके तो समाज में स्वतः अँधेरा कम होगा और इस प्रकार के दिग्भ्रमित युवा शायद इस प्रकार से कृपणता वश कुछ ना मांग अपने जीवन को दिशा देने वाले एक चिराग सिर्फ और सिर्फ अपने लिए रोशन कर सके तो उससे भी इस देश का भबिष्य उज्जवल होने की पूर्ण आशा है।

Saturday 8 September 2012

अपने ही देश में बेगाने लगे है।

अपने ही देश में बेगाने लगे है।

भाषा और बोली में देश खो सा गया है ,
जनता तो भोली है सो सा गया है।
देश के रहनुमा संसद में भीरते है ,
मर्यादा है तोरी अन्ना से कहते है।
हर चेहरे में संशय छाने लगे है।
अपने ही देश में बेगाने लगे है।।

 गुजरात का गौरव छाया हुआ है ,
 मराठा मानुस बौखलाया हुआ है,
दीदी को नैनो की चिंता सताई ,
कश्मीर तो कब से बेगाना परा है।
देश कहा सब कहने लगे है,
अपने ही देश में बेगाने लगे है।।

कब तक सोओगे अब तो जागो ,
कोयले की तपिस को पहचानो ,
पार्टी और मजहब की बंदिश तोरो ,
दिल के तार सिर्फ देश से जोरो।
 दीवारों पे नज्मे उभरने लगे है,
अपने ही देश में बेगाने लगे है।।