Sunday, 30 September 2012

तेरी दुनिया




भीर हाथ बांधे  खरी, वो परा लहू से सना
थी  निगाहें ढूंडती  सभी की,कौन है यु  परा।
न मिला एक हाथ ऐसा,जो की देता साथ,
बैचैन आंखे सभी कोई अपना न हो काश।
बच न पाया, बच ही जाता,कम्बखत जो कुछ ऐसा होता।
की लहू का रंग सबका, मजहबो सा जुदा  होता।।


तेरी बनाई  दुनिया तेरे बनाये लोग,
तेरे ही नाम से लड़ रहे और सब रहे है भोग।
है तेरी नियत में खोट ऐसा हमको लगने लगा 
भूल न जाये हम तुझे इसलिए यह इल्म दिया।
इस जहा में तेरी रचना और भी कितने परे 
पर हमें अब तू बता तेरे नाम पे कितने लड़े।।


है सभी के अब जहन में, कौन  अपना और पराया 
किसको भेजा तू यहाँ और कौन कही और से आया।
जो ना इसपे अब तू जागा ,देर बहुत हो जायेगा 
तेरी दुनिया यु रहेगी, पर कौन यहाँ बच पायेगा।
जो तेरे बन्दे न हो तो कायनात का क्या करोगो
तुम भी खुद को  ढूंढ़ते, फिर हमें ही याद करोगे।।

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