कई बार सोचा तुझे शब्दों में उतार दू |
जिस धरा के अंग अंग में रास ही बसी हो,
प्रेमद्विग्न अप्सरा भी जहा कभी रही हो।
फिसल परे जहा कभी नयन मेघो के,
ऐसा रंग जिस फिजा में देव ने भरा हो।
बचे नहीं कोई यहाँ इसके महक से ,
कभी किसी ने कदम जो यहाँ रखा हो।
इन्ही वादियों में बिखरे मनका न गूँथ सकूँ
कई बार सोचा तुझे शब्दों में उतार दू,
लयबद्ध कर उसको विस्तार दू।।
थी खनकती तार वो जिसमे सुर संगीत है,
शब्द में न उतर सका ये वो मधुर गीत है।
वो हसीन लम्हों ने छेड़ा जो तान था ,
गुन्जनो के शोर सा छलकता गान था।
थी हसी समा जैसे मोम से पिघल गए ,
चांदनी हसीन रात जाने कबके ढल गए ,
जलज पात जिन्दगी कैसे स्याही सवार दू।
कई बार सोचा तुझे शब्दों में उतार दू,
लयबद्ध कर उसको विस्तार दू।।
रूप को ख्याल कर, क्या उसे आकार दू
रूह में जो बस गए कैसे साकार दू।
आभा उसका ऐसा की शब्द झिलमिला गए
केसुओ की छाव में नयन वही समा गए ।
चांदनी यु लहरों पे हिचकोले खाती है।
दूर दूर बस वही नजर आती है।
कायनात की नूर कैसे कुछ पदों में शार दू ,
कई बार सोचा तुझे शब्दों में उतार दू,
लयबद्ध कर उसको विस्तार दू।।
पहली बार उससे यू टकराना,
वो नजर की तिक्छ्नता पर साथ शर्माना।
कदम वो बडा चले पर झुक गयी नजर,
धडकते दिल की अक्स भी मुझे दिखी जमीं पर।
भों तन गई मगर पलक झिलमिला गए,
अर्ध और पूर्ण विराम सुरमा में समां गए।
वाक्य न बन सका कैसे विराम दू ,
कई बार सोचा तुझे शब्दों में उतार दू,
लयबद्ध कर उसको विस्तार दू।।
पल पल वो पल ,पल के संग बंध गए,
छण बदलकर आगे आगे दिनों में निखर गए।
हर पल अब नजर को किसी की तलाश था,
वो चमन भी जल रहा इसका एहशाश था।
प्यास थी अब बड़ चली दुरी मंजूर नहीं,
कदम खुद चल परे जिधर हो तेरा यकीं।
ऐसे एहशास कैसे अंतरा में बांध दू ,
कई बार सोचा तुझे शब्दों में उतार दू ,
लयबद्ध कर उसको विस्तार दू।।
ठहर गए वक्त तब मेजो के आर पार ,
मिल रहे थे सुर दो कितने रियाज के बाद।
थी सड़क पे भीर भी और शोर भी अजीब था ,
टनटनाते चमच्चो में भी सुर संगीत था .
और फिर साथ साथ हाथ यु धुल रहे ,
मिल गए लब भी और होठ थे सिल गए ,
उस सिसकती अंतरा को किस छंद में बांध दू ,
कई बार सोचा तुझे शब्दों में उतार दू,
लयबद्ध कर उसको विस्तार दू।।
.
Jabardast hai bhai,,,aati sundar..
ReplyDelete