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Friday, 4 April 2014

अंतहीन प्रश्न चिन्ह ?

न बदलते अश्क
अद्भुत प्रकृत की प्रवृति,
जब अंगवस्त्र की भांति
जिस्म धारण है करता,
प्रवंचना किस बात का फिर
दोष किसको कैसे कौन मढ़ता ।
शाश्वत है अजन्मा है
अदाह और अच्छेद भी
फिर कहाँ से कलष
इसमें स्वतः ही प्रवेश करता। ।
चिरन्तन  है स्थिर साथ ही
अचलता का भाव गर्भित
फिर अस्थिर हो कैसे मचलता।
सनातन से भाव शाश्वत
शोक और संताप शाश्वत
मन के भाव जब कलष छाये
फिर ये कैसे निर्विकार रहता।
क्यों वास हो इस अवध्य सार का,
अलौकिक इसके अद्भुत निखार का,
ढो रहा जब उद्भव से निर्वाण तक
किन्तु फिर भी अव्यक्तता का भाव धर
व्यक्त दोष इस हाड़ -मांस क्यों है जड़ता।
रंगहीन जब अंग -वस्त्र
आत्मा कैसे हो क्लेश त्यक्त
पोड़ -पोड़ पीड़ा नसों में
ज्ञान का सब सार व्यर्थ। 
जठराग्नि की ज्वाला
उद्भव से जो जला रही है 
उस दिव्य उद्घोषणा पर 
एक अंतहीन प्रश्न चिन्ह लगा रही है। । 

Wednesday, 2 October 2013

एक आत्मा की पुकार

हो आबद्ध युगों -युगों से
निरंतर दर-दर बदलता रहा
मुक्ति की खोज में
अब तक किसी न किसी 
काया संग युक्त ही चलता रहा.…। 

 मै अजन्मा ,जन्म काया
निर्लिप्त ही, न मोह पाया
शस्त्र ,वायु या अग्नि
अशंख्य पीड़ा की जननी  
अन्य भी न संहार पाया  ……. । 

किन्तु अब घुटता यहाँ
काया में बसता जहाँ
मलिनता छा रहा
मै  आत्मा अब
खुद पर ही रोता रहा ……. ।  

सतयुग से भटकता   
कदम बढाता कल्कि तक पंहुचा 
शायद मै  हो जाऊ मुक्त 
अंतिम सत्य से दर्शन 
युगों युगों से अब तक विचरण ……. ।  

धृष्टता सब युगों में देखि
किन्तु अब ये संस्कार 
मन मलिन काया संग करता 
मै आत्मा वेवश लाचार
किन्तु दोष ले पुनः भटकता…… . । 

जीर्ण -शीर्ण रक्षित देह 
व्याकुल विवश कितने से नेह 
मृत जग न छोड़ जाना चाहे 
किन्तु मै हर्षित हो अब 
महाप्रयाण करू इस जग से परे…….. . ।  

करुणा पुकार अब श्याम करू 
इन दिव्यता से उद्धार कर  
मै  भी चाहूँ मुक्ति अब 
खुद से अब इस आत्मा का 
इस धरा से संहार कर…… . ।