वंचित आनंद से और
संचित माया का राग ,
जीवन के हर दुःख में बस इसका प्रलाप
फिर स्व उद्घोषित माया क्या ?
माया तो कुछ भी नहीं
लोलुपता का महा-काव्य है
खुद से छल, अनुरक्त से विरक्ति
लोभ -प्रपंच से सिक्त
निकृष्ट प्रेम का झूठा प्रलाप है।
हर वक्त ह्रदय में आलोड़ित
असीम आनंद कि तरंगे,
सुरमई शाम के साथ
विहंगो कि कलरव उमंगें,
सब से विमुख हो
और करते प्रलाप ,
डसे जाने का त्राश,
जीवन के द्वारा ही जीवन को।
फिर माया के नाम का करते आलाप है
किन्तु यह निकृष्ट इच्छा का प्रलाप है।
गढ़ा है खूब वक्त कि कालिख से
की इसके स्याह आवरण ने ढक दिया है,
उस श्रोत को जो अनवरत
बस आनंद का श्रृजन करता है।
और हम भटकते रहते है
उस खोज में जीवन के,
जो श्रृष्टि ने आदि से ही
हर किसी के संग लगाया है।
माया की महिमा को
जीवन के दर्शन में क्या सजाया है ,
जैसे दर्शन जीव का न हो निर्जीवों कि काया है।
और अनवरत चले जा रहे है,
उसी निर्जीव में सजीव आनंद की चाह लिये,
जिसे माया के नाम पर
जाने कब से ह्रदय में उठते आनंद को,
हमने स्व-विकृत चाह में इसे दबाया है।
आनंद को माया के नाम छलना ही संताप है
क्योंकि यह निकृष्ट सुख का छद्म प्रलाप है। ।
संचित माया का राग ,
जीवन के हर दुःख में बस इसका प्रलाप
फिर स्व उद्घोषित माया क्या ?
माया तो कुछ भी नहीं
लोलुपता का महा-काव्य है
खुद से छल, अनुरक्त से विरक्ति
लोभ -प्रपंच से सिक्त
निकृष्ट प्रेम का झूठा प्रलाप है।
हर वक्त ह्रदय में आलोड़ित
असीम आनंद कि तरंगे,
सुरमई शाम के साथ
विहंगो कि कलरव उमंगें,
सब से विमुख हो
और करते प्रलाप ,
डसे जाने का त्राश,
जीवन के द्वारा ही जीवन को।
फिर माया के नाम का करते आलाप है
किन्तु यह निकृष्ट इच्छा का प्रलाप है।
गढ़ा है खूब वक्त कि कालिख से
की इसके स्याह आवरण ने ढक दिया है,
उस श्रोत को जो अनवरत
बस आनंद का श्रृजन करता है।
और हम भटकते रहते है
उस खोज में जीवन के,
जो श्रृष्टि ने आदि से ही
हर किसी के संग लगाया है।
माया की महिमा को
जीवन के दर्शन में क्या सजाया है ,
जैसे दर्शन जीव का न हो निर्जीवों कि काया है।
और अनवरत चले जा रहे है,
उसी निर्जीव में सजीव आनंद की चाह लिये,
जिसे माया के नाम पर
जाने कब से ह्रदय में उठते आनंद को,
हमने स्व-विकृत चाह में इसे दबाया है।
आनंद को माया के नाम छलना ही संताप है
क्योंकि यह निकृष्ट सुख का छद्म प्रलाप है। ।