(चित्र :गूगल साभार )
जीवन की गति कुछ-कुछ यूँ बढती है,
जैसे कोई स्याही कागद पे चलती है।
क्षण-क्षण अक्षरों का मिलता है जैसे,
पलों का रूप शब्दों में ढलता है वैसे।
हर कोई कुछ अर्थ गढ़ना चाहता है ,
कुछ क्षण, पल भी ठहरना चाहता है।
कौमा ,अर्ध कौमा जैसे ठहर पड़ता है ,
पंक्तिया धर रूप निखर चलता है।
बढ़ते हुए पर दोनों भावों में है मन ,
जीवन में कविता है या कविता में जीवन।।
छंद ,मात्र ,अर्ध बिंदु पर नजर है गड़ाए,
अटक-अटक कर पर नीव बढती ही जाये।
अलंकारो की चाहत उलझती है जब-जब ,
चौराहों में कही खड़े पाते है तब -तब।
जिनको मिला भाव संवरकर वो आगे,
जीवन के सुर में है खूब गोते लगाते।
बढ़ते हुए पर दोनों भावों में है मन ,
जीवन में कविता है या कविता में जीवन।।
कोई मुक्तक है छेड़े,उन्मुक्त ही बड़ा है ,
ढूंडता सार उसमे ,बस कोई अर्थ गढ़ा है।
नागफनी के भी श्रृंगार कोई कर है बढता,
कोई खुसबू में उलझ कर ही रहता।
जीवन क्या सोच-सोच कर है गढ़ते ,
या गढ़-गढ़ कर सदा सोचते है रहते ?
बढ़ते हुए पर दोनों भावों में है मन ,
जीवन में कविता है या कविता में जीवन।।
ॐ नाद जीवन, जब श्रृष्टि ने पुकारा ,
ऋचा वेद कविता की संग बही धारा।
जीवन में कविता जैसे सरिता में नीर ,
कविता में जीवन भड़े भाव गंभीर।
मधुकर ये जीवन जब कवित्व घुलते है,
काया बिन आत्मा, नहीं तो ये दिखते है।
है पूरक ये दोनों, जीवन आकृति उकेड़ा ,
कविता ने भर-रंग ,जीवन छटा बिखेरा।
बहते हुए इन भावों में अब कहता है मन ,
जीवन में कविता है और कविता में जीवन।।
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बहते हुए इन भावों में अब कहता है मन ,
ReplyDeleteजीवन में कविता है और कविता में जीवन।।
बहुत सुन्दर, भावपूर्ण