Sunday, 25 August 2013

पुनरावृती ...?

समंदर के किनारे ,
रेत पर बनती आकृतिया ,
कैसे लहरों के संग विलीन होकर
सागर में समां जाती है।
वो उकेरता है फिर भी,
कुछ रंग भरने की चाहत समेट नहीं पाता ,
है अन्जान नहीं की ,
लहरे फिर से आनी है ,इसको समां जाना है।
कितना अजीब है पर
हम इसको ही दोहराते है। ।

जो आया है खुशी  में उसके ,
और जो चला गया ,
दुःख में अहसास कर,
बरबस चेहरे पर निकल छा जाते।
ये आंसू है खारे ,सभी जानते है ,
पर  मोह  जिसे नित मानते है।
बरगद का जड़ जैसा मन,
कितना भी तोड़ो मोह से जुड़ जाते ।
कितना अजीब है पर
हम इसको ही दोहराते है। ।

कमबख्त दिनों-दिन तक उलझे रहे ,
न बुझने पाए रसोई की ताप।
ठन्डे हो जाने पर भी ,
 इन उष्ण लपटों की चाहत से ,
खुद को बचा पाते नहीं।
सब सामने है ,सब कुछ दीखता है,
रोज वही लहरों का उठाना,
और एक नई  इबारत  की कोशिश और टूटना।
कितना अजीब है पर
हम इसको ही दोहराते है। ।

5 comments:

  1. लहरें जीवन की शैली ही दर्शाती है ...... अच्छी अभिव्यक्ति !!!

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  2. अच्छी अभिव्यक्ति.

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  3. रोज वही लहरों का उठाना,
    और एक नई इबारत की कोशिश और टूटना।
    कितना अजीब है पर
    हम इसको ही दोहराते है। ।
    ***
    यही दोहराव तो जीवन है!
    सुन्दर अभिव्यक्ति!

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  4. बहुत सुन्दर कविता...

    अनु

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  5. जीवन के उतार चड़ाव को लहरों के माध्यम से उकेरा है ...
    जीवन यही तो है ...

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