Monday 19 August 2013

विघटन

उनके पदचाप कानो को भेदती है, 
पलट के देखता हु तो बस निशान बाकि है। 
हरे भरे पेड़ अगर अनायास लेट जाये तो, 
धरती भी भार को महसूस करती है ,
जीवन न होकर पानी का बुलबुला हो ,
क्या खूब आँखों में समाती है। 
पल भर में सृष्टि का रूप धरकर ,
गुम हो जाती है जैसे बिजली कौंधती हो। 
क्या कौन महसूस करता है, 
पास होकर भी कोई दूर होता होता है, 
कुछ चमकते है सितारों में ,
जो रोज खामोश शामो में पास होता है। 
बेशक आखो में कोई ठोस रूप ,
अब परावर्तित न होगा। 
हलक से निकली  तरंगो का इस कानो से ,
सीधा तकरार न होगा। 
न होगी कोई परछाई को भापने की कोशिश  ,
क्योकि लपटो का ह्रदय पर पलटवार जो होगा। 
सत्य तो सत्य है ,सभी जानते है, 
काया धरा की कोख जाएगी मानते है ,
पंच तत्वों का विघटन अश्वम्भावी है, 
जीवन नस्वर बस ह्रदय मायावी है। 


(ये रचना हमारे एक सहयोगी के आकस्मिक देहांत हो जाने पर श्रधांजली स्वरुप है ,भगवान उनकी आत्मा को शांति प्रदान करे तथा परिवार के सदस्यों को धौर्य दे  )

2 comments:

  1. सत्य तो सत्य है ,सभी जानते है,
    काया धरा की कोख जाएगी मानते है ,
    पंच तत्वों का विघटन अश्वम्भावी है, ..

    इस सत्य को सभी जानते हाँ फिर भी भावनाओं से बंधे, उस ईश्वर की माया के आगे नतमस्तक हो जाते हैं ... भगवान उनकी आत्मा को शांति प्रदान करे ...

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