सफ़र कितना कर लिया
शून्य से निकला ,भंवर में बिखरा
कितने अणुओं -परमाणुओं के
आकर्षण और विकर्षण से ठिठका
तरल हो कब तक था उबला
जैसे किसी संताप से निकला
फिर भी चलता रहा अब तक
अबाधित ,कुछ प्रायोजित
जाने किस महाहेतु से।
शून्य के द्वार से ,
महा प्रलय के प्रहार तक।
है सभी का कुछ न कुछ मुझमे
सींचा है पञ्च तत्व पग में
मन का पाया विस्तार अनंत
न किंचित दूर छिटके कोई भी कण
अबाधित ,कुछ प्रायोजित
एकात्म के ही महाहेतु से।
किन्तू अब इस पड़ाव पर
निरुदेश्य सा बेचैन,दिग्भ्रमित
सत तत्व का सब अक्स धुल रहा जैसे
रह गया बस राख का रज जैसे
थी मुझमे असीम आकांक्षा
और था सामर्थ्य भी
अनंत व्योम को खुद में समाहित
या हो जाऊ उसमे विलीन।
प्रकाश पुंज अब छिटकता जैसे
महाउद्देश्य से भटक गया ,
"हम" है अब भी कितना दूर मुझसे
"मै" सिर्फ "मै" हूँ ,में रह गया। ।
शून्य से निकला ,भंवर में बिखरा
कितने अणुओं -परमाणुओं के
आकर्षण और विकर्षण से ठिठका
तरल हो कब तक था उबला
जैसे किसी संताप से निकला
फिर भी चलता रहा अब तक
अबाधित ,कुछ प्रायोजित
जाने किस महाहेतु से।
शून्य के द्वार से ,
महा प्रलय के प्रहार तक।
है सभी का कुछ न कुछ मुझमे
सींचा है पञ्च तत्व पग में
मन का पाया विस्तार अनंत
न किंचित दूर छिटके कोई भी कण
अबाधित ,कुछ प्रायोजित
एकात्म के ही महाहेतु से।
किन्तू अब इस पड़ाव पर
निरुदेश्य सा बेचैन,दिग्भ्रमित
सत तत्व का सब अक्स धुल रहा जैसे
रह गया बस राख का रज जैसे
थी मुझमे असीम आकांक्षा
और था सामर्थ्य भी
अनंत व्योम को खुद में समाहित
या हो जाऊ उसमे विलीन।
प्रकाश पुंज अब छिटकता जैसे
महाउद्देश्य से भटक गया ,
"हम" है अब भी कितना दूर मुझसे
"मै" सिर्फ "मै" हूँ ,में रह गया। ।
बहुत सुन्दर रचना...
ReplyDeleteआसिम को असीम कर लीजिये...
अक्श को अक्स,भवर को भंवर,अणुओ को अणुओं...
कविता का सौन्दर्य टंकण त्रुटियों से कम न करें (मेरे टोकने को अन्यथा न लें )
अनु
संभवतः टंकण के साथ-साथ ,कुछ-कुछ स्वयं का विरोधाभास है। अन्यथा लेने की कोई बात नहीं ,त्रुटियो का अवलोकन एवं सुझाव हेतू आपका आभार।
ReplyDeleteसादर धन्यवाद
मैं का माया जाल कुछ देखने नहीं देता ... हम होने नहीं देता ...
ReplyDeleteबहुत ही रचनात्मक... सुन्दर प्रस्तुति
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