कभी मै गम पीता हु
कभी गम मुझे पीता है
मरते है सब यहाँ ,
पर सभी क्या जीता है ?
जीने के सबने मायने बनाये है
उनके लिए क्या
जो कफ़न से तन को ढकता है ?
मेरी मंजिले वही
जहाँ कदम थक गए
निढाल होकर जहाँ
धरा से लिपट गए।
सभी राहें वही
फिर राह क्यों कटे कटे
विभिन्न आवरण से सभी
सत्य को क्यों ढकता है ?
कदम दर कदम जब
फासले है घट रहे
मन में दूरियां क्यों
बगल से होता जाता है ?
जहाँ से चले सभी
अब भी वही खड़े
विभिन्न रूपों में बस
वक्त के साथ बदल पड़े।
कभी गम मुझे पीता है
मरते है सब यहाँ ,
पर सभी क्या जीता है ?
जीने के सबने मायने बनाये है
उनके लिए क्या
जो कफ़न से तन को ढकता है ?
मेरी मंजिले वही
जहाँ कदम थक गए
निढाल होकर जहाँ
धरा से लिपट गए।
सभी राहें वही
फिर राह क्यों कटे कटे
विभिन्न आवरण से सभी
सत्य को क्यों ढकता है ?
कदम दर कदम जब
फासले है घट रहे
मन में दूरियां क्यों
बगल से होता जाता है ?
जहाँ से चले सभी
अब भी वही खड़े
विभिन्न रूपों में बस
वक्त के साथ बदल पड़े।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
ReplyDeleteआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज रविवार (15-09-2013) मातृभाषा का करें सम्मान : चर्चामंच 1369 में "मयंक का कोना" पर भी है!
हिन्दी पखवाड़े की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
शास्त्री जी आपका हार्दिक आभार....
Deleteये गम पीने पिलाने का सिलसिला ही तो जीवन है ...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर भाषा
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति
जंगल की डेमोक्रेसी
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति !!
ReplyDeleteसत्य की कड़वाहट है...कौन सहन करना चाहता उसे. सुन्दर रचना.
ReplyDeleteजहाँ से चले सभी
ReplyDeleteअब भी वही खड़े
विभिन्न रूपों में बस
वक्त के साथ बदल पड़े।
....बहुत सुन्दर और गहन अभिव्यक्ति...
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...
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