क्या दीवार हमने बनाई है,
न इंट न सीमेंट की चिनाई है ,
पानी नहीं लहू से सिचतें है हम ,
कभी-कभी रेत की जगह,
इंसानों के मांस पिसते है हम। ।
पुरातन अवशेषों से भी नीचे
धसी है नींव की गहराई ,
शुष्क आँखों से दिखती नहीं
बस दिलों में तैरती है परछाई। ।
भूतो का भय दिखाकर
भविष्य ये बांटता है
धधकती है आग इसके रगड़ से
इन पर बैठकर कोई
अपना हाथ तापता है। ।
जाने कब कहाँ ये खड़ी हो जाये
ख़ुशी के खेत थे जहाँ
नागफनी पनप जाये।
ये दिवार सब सोंखता है
इन्सान का इंसानियत पोंछता है
क्या मासूम ,क्या बुजुर्ग ,क्या महिलाये
कल तक जो मिले थे गले से गले
इनमे टकराकर इसमें समां गए
कुछ उठी और ऊँची
और जाने कब-कब टकराते गए। ।
कुछ के कफ़न से ढककर
ये दिवार छुप सा जाता है
शायद इस बार टूट गई
ऐसा भ्रम दिखा जाता है। ।
प्रेम दरककर जब जुट जाता
गांठ भी साथ अपने ले आता
ये दरककर जब जुटते है
और मजबूत होकर उठते है।
इन्सान कैसे हैवान है
ये इसका सबूत होता है
इसे गिराना है मुश्किल
नफरत की दिवार
बहुत मजबूत होता है। ।
न इंट न सीमेंट की चिनाई है ,
पानी नहीं लहू से सिचतें है हम ,
कभी-कभी रेत की जगह,
इंसानों के मांस पिसते है हम। ।
पुरातन अवशेषों से भी नीचे
धसी है नींव की गहराई ,
शुष्क आँखों से दिखती नहीं
बस दिलों में तैरती है परछाई। ।
भूतो का भय दिखाकर
भविष्य ये बांटता है
धधकती है आग इसके रगड़ से
इन पर बैठकर कोई
अपना हाथ तापता है। ।
जाने कब कहाँ ये खड़ी हो जाये
ख़ुशी के खेत थे जहाँ
नागफनी पनप जाये।
ये दिवार सब सोंखता है
इन्सान का इंसानियत पोंछता है
क्या मासूम ,क्या बुजुर्ग ,क्या महिलाये
कल तक जो मिले थे गले से गले
इनमे टकराकर इसमें समां गए
कुछ उठी और ऊँची
और जाने कब-कब टकराते गए। ।
कुछ के कफ़न से ढककर
ये दिवार छुप सा जाता है
शायद इस बार टूट गई
ऐसा भ्रम दिखा जाता है। ।
प्रेम दरककर जब जुट जाता
गांठ भी साथ अपने ले आता
ये दरककर जब जुटते है
और मजबूत होकर उठते है।
इन्सान कैसे हैवान है
ये इसका सबूत होता है
इसे गिराना है मुश्किल
नफरत की दिवार
बहुत मजबूत होता है। ।
अत्यन्त हर्ष के साथ सूचित कर रही हूँ कि
ReplyDeleteआपकी इस बेहतरीन रचना की चर्चा शुक्रवार 13-09-2013 के .....महामंत्र क्रमांक तीन - इसे 'माइक्रो कविता' के नाम से जानाःचर्चा मंच 1368 ....शुक्रवारीय अंक.... पर भी होगी!
सादर...!
यशोदाजी आपका हार्दिक आभार
Deleteसुन्दर प्रस्तुति...!
ReplyDelete--
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि का लिंक आज बृहस्पतिवार (12-09-2013) को चर्चा - 1366मे "मयंक का कोना" पर भी है!
सादर...!
आप सबको गणेशोत्सव की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
शास्त्री जी आपका हार्दिक आभार
Deleteइस दीवार को जल्दी गिरा दीना ही श्रेयस्कर होता है. सुन्दर रचना.
ReplyDeletebahut hi dard bhari prastuti ..nafrat ki diwaar bahut majboot hoti hai par himmat karnewalon ke samne bharbhra kar gir bhi jati hai ..
ReplyDeleteवाह ! राजीव जी नफरत वाकई बड़ी मजबूत होती है,...
ReplyDeleteधन्यवाद ममताजी .....
ReplyDeleteखुबसूरत अभिवयक्ति...
ReplyDeleteनफरत बड़ी मजबूत होती है,...
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