(चित्र : गूगल साभार )
काश हम सब आपस मेंएकाकार हो पातें ,
मानव अगर सीमाओं से
आजाद हो जाते। ।
कटीली तारों के जगह
अगर गुलिस्ता फूलो का होता
महक बारूद की न घुलती
वहां विरानियाँ न होता।
सरहदों के नाम न कोई
सभी अनजान ही होते
मानव अगर सीमाओं से
आजाद हो पाते। ।
क्यों खिंची है ये रेखा
उलझते घिर रहे है हम
कही जाती का बंधन है
कभी सीमाओं पर लड़ते हम।
है धरती माँ अगर अपनी
हम संतान हो पाते
मानव अगर सीमाओं से
आजाद हो पाते। ।
कभी था विश्व रूप अपना
न कोई और थी पहचान
मानव बस मानव था
अब भ्रम फैला है अज्ञान
वो संकीर्ण विचारो को
अगर हम मिटा पातें
मानव अगर सीमाओं से
आजाद हो पाते। ।
ये कैसी जकडन है
जो हम खुद को दबाते है
प्रकृति में कहाँ कही बंधन
मानव क्यों सिमटते जाते है
अगर इन बन्धनों से हम
खुद को दूर कर पाते
मानव अगर सीमाओं से
आजाद हो पाते। ।
अगर ऐसा जो हो पाता
कभी रणभेरियाँ न बजता
सरहदों सी मौत की रेखा
वहां कभी रक्त न बहता
इन्ही रक्तो से सिच कर धरती
स्वर्ग सा रूप दे पाते
मानव अगर सीमाओं से
आजाद हो पाते। ।
आपकी लिखी रचना की ये चन्द पंक्तियाँ.........
ReplyDeleteकाश हम सब आपस में
एकाकार हो पातें ,
मानव अगर सीमाओं से
आजाद हो जाते।।
शनिवार 28/09/2013 को
http://nayi-purani-halchal.blogspot.in
को आलोकित करेगी.... आप भी देख लीजिएगा एक नज़र ....
लिंक में आपका स्वागत है ..........धन्यवाद!
यशोदा जी आपका आभार
Deleteअति सुन्दर.
ReplyDeleteहार्दिक आभार .....
Deleteयह रचना अमूल्य है भाई !
ReplyDeleteकाश हम मुक्त हों और मानव को प्यार करें ...
आपके टिप्पणी से मै वाकई ऊर्जान्वित हूँ ,हार्दिक आभार
Deleteबहुत सार्थक और सुन्दर ......
ReplyDeleteबहुत सुन्दर .
ReplyDeleteकाश ! संकीर्ण विचारो से मुक्ति पा जाते !
ReplyDeleteनई रचना : सुधि नहि आवत.( विरह गीत )
काश ऐसा हो पाते !
ReplyDeleteनई पोस्ट साधू या शैतान
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इंसानी जन्म के साथ ये सीमाएं बनना शुरू हो गई थीं ... इनको मिटा पाना आसान नहीं ...
ReplyDeleteभावपूर्ण अभिव्यक्ति ...