चित्र :गूगल साभार
अपनों से जो मान न पाए, औरों से क्या आस करे
निज के आगन में ठुकरायें, उसे कौन स्वीकार करे।
जिनको आती और भी भाषा , हिंदी भी अपनाते है
केवल हिंदी जानने वाले थोडा -थोड़ा सा सकुचाते है।
जिनकी रोजी-रोटी हिंदी ,उनको भी अभिमान नहीं
उनुवादक से काम चलाये और भाषा का ज्ञान नहीं।
जाने इनके मन में ऐसी कौन सी ग्रंथि विकसित है
कृत्न्घ्नता का बोध नहीं जो भाषा उनमे बसती है।
मुठ्ठी भर ही लोग है ऐसे जो निज भाषा उपहास करे
ऐसा ज्ञान किस काम का जो दास भाव स्वीकार करे।
भाषाओ के खिड़की जितने हो, इससे न इंकार हमें
पर दरवाजे हिंदी की हो, बस इतना ही स्वीकार हमें।
मातृभाषा में सोचे सब और हिंदी में अभिव्यक्त करे
प्रेम की भाषा यही जो हमको, एक सूत्र में युक्त करे
है उन्नति सबका इसमें , ज्ञान-विज्ञान सब बाते है
भाषा की बेड़ी को जो काटे अब वो आजादी लातें है। ।
है उन्नति सबका इसमें , ज्ञान-विज्ञान सब बाते है
ReplyDeleteभाषा की बेड़ी को जो काटे अब वो आजादी लातें है
बहुत सुन्दर.
हिन्दी भारत की भाषा है हिन्दी को हिन्दी रहने दो,,,,
ReplyDeleteसुन्दर रचना. हिंदी का जवाब नहीं और उसे खुलकर बोलना चाहिये जहाँ तक संभव हो सके.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर.
ReplyDeleteमातृभाषा में सोचे सब और हिंदी में अभिव्यक्त करे
ReplyDeleteप्रेम की भाषा यही जो हमको, एक सूत्र में युक्त करे ..
बिलकुल सच कहा है आपने ... एक भाषा, एक संस्कृति ही सबको आपस में जोड़ती है ... ओर एकता में शक्ति होती ही ...