जबसे चौक बाजार बन गए
दिल बेजार से हो गए,
अब मिलता नहीं कोई मुझे
लोग उधार से हो गए।
कभी इस जगह पे
जमघटों का दौर था ,
गाँवों के ख़ुशी और गम का
वो रेडियो बेजोड़ था।
एक कप चाय का प्याला ही नहीं
दिन भर की उर्जा उसमे ओत-प्रोत था,
और जो शाम को थक कर लौटा तो
थकान मिटा दे ऐसे गर्म धारा का स्रोत था।
अब हम मिलते है वहां
बस एक खरीदार की तरह ,
बातों के भाव भी बदल गए है
बाजार की तरह।
विकास जबसे गाँव में छाया है ,
चौक भी नए रूप में आया है ,
सुख-दुःख का मोल करे
ऐसे नोट कब कहाँ मिलते है ,
इसलिए चौक -चौराहे पर अब
आम-जन नहीं बस खरीदार दीखते है। ।
दिल बेजार से हो गए,
अब मिलता नहीं कोई मुझे
लोग उधार से हो गए।
कभी इस जगह पे
जमघटों का दौर था ,
गाँवों के ख़ुशी और गम का
वो रेडियो बेजोड़ था।
एक कप चाय का प्याला ही नहीं
दिन भर की उर्जा उसमे ओत-प्रोत था,
और जो शाम को थक कर लौटा तो
थकान मिटा दे ऐसे गर्म धारा का स्रोत था।
अब हम मिलते है वहां
बस एक खरीदार की तरह ,
बातों के भाव भी बदल गए है
बाजार की तरह।
विकास जबसे गाँव में छाया है ,
चौक भी नए रूप में आया है ,
सुख-दुःख का मोल करे
ऐसे नोट कब कहाँ मिलते है ,
इसलिए चौक -चौराहे पर अब
आम-जन नहीं बस खरीदार दीखते है। ।
बहुत सटीक अभिव्यक्ति...विकास की दौड़ में हमारे अहसास पैरों तले कुचल रहे हैं...
ReplyDeleteशास्त्रीजी आपका हार्दिक आभार....
ReplyDeleteबहुत सटीक अभिव्यक्ति..बहुत सुन्दर
ReplyDeleteबहुत सुन्दर.
ReplyDeleteसादर आभार ......
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