Sunday, 22 September 2013

चौक -चौराहे

जबसे चौक बाजार बन गए
दिल बेजार से हो गए,
अब मिलता  नहीं कोई मुझे
लोग उधार से हो गए।
कभी इस जगह पे
जमघटों  का दौर था ,
गाँवों के ख़ुशी और गम का
वो रेडियो बेजोड़ था। 
एक कप चाय का प्याला ही नहीं
दिन भर की उर्जा उसमे ओत-प्रोत था,
और जो शाम को थक कर लौटा तो
थकान मिटा दे ऐसे गर्म धारा का स्रोत था। 
अब हम मिलते है वहां
बस एक खरीदार की तरह ,
बातों के भाव भी बदल गए है
बाजार की तरह।
विकास जबसे गाँव में छाया  है ,
चौक  भी नए  रूप में आया है ,
सुख-दुःख का मोल करे 
ऐसे नोट कब कहाँ मिलते है ,
इसलिए चौक -चौराहे पर अब 
आम-जन नहीं बस खरीदार दीखते है। । 
            

5 comments:

  1. बहुत सटीक अभिव्यक्ति...विकास की दौड़ में हमारे अहसास पैरों तले कुचल रहे हैं...

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  2. शास्त्रीजी आपका हार्दिक आभार....

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  3. बहुत सटीक अभिव्यक्ति..बहुत सुन्दर

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