Sunday, 29 September 2013

खो गए सभी


उन्मुक्त गगन 
शीतल पवन
निर्मल जल 
विहंग दल
रेशमी किरण
भौरों का गण
सतरंगी वाण
बूंदों की गान  
ऋतुओ से मेल 
झिंगुड़ का खेल 
टर्र-टर्र का राग
आँगन में प्रयाग 
चन्दन से धुल 
मिल पराग ऑ फूल 
उठता गुबार 
गोधुली में अपार 
कचड़ो का हवन 
सर्द सुबहो में संग 
सकल गाँव का प्यार 
जो पूरा परिवार 
है खो गए सभी 
जब से छूटा वो जमीं। । 
क़दमों के चाल 
संग जीवन के ताल 
उदेश्य विहीन 
नहीं कुछ तर्क अधीन 
पथ पर सतत 
यात्रा में रत 
तन बसे कहीं 
पर मन वहीं 
डूबा प्रगाढ 
मिट्टी संग याद 
ए  काश कही 
हो जाये यही 
घूमे जो काल 
विपरीत कर चाल  
फिर जियूं वहाँ 
याद बसी जहाँ। । 

10 comments:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज रविवार (30-09-2013) गुज़ारिश खाटू श्याम से :चर्चामंच 1399 में "मयंक का कोना" पर भी है!
    हिन्दी पखवाड़े की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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    1. शास्त्री जी हार्दिक आभार

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  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!

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  3. बस यही तो नहीं हो पाता ... समय बीतने के बाद वापस नहीं आता ... रह जाती हैं तो बस यादें ...

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  4. वाह्ह सच है ... खो गए कही बचपन के दिन ... दादी नानी की कहानी ..गली मोहल्ले की रिश्तेदारी ... वो बीते पल लौट के न आएंगे दोबारा बस स्वर्णिम यादे ही है जो फिर फिर आती है तडपती है ..
    बधाई इस सुन्दर रचना के लिए ... :)

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  5. बहुत ही बेहतरीन रचना....
    :-)

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