उन्मुक्त गगन
शीतल पवन
निर्मल जल
विहंग दल
रेशमी किरण
भौरों का गण
सतरंगी वाण
बूंदों की गान
ऋतुओ से मेल
झिंगुड़ का खेल
टर्र-टर्र का राग
आँगन में प्रयाग
चन्दन से धुल
मिल पराग ऑ फूल
उठता गुबार
गोधुली में अपार
कचड़ो का हवन
सर्द सुबहो में संग
सकल गाँव का प्यार
जो पूरा परिवार
है खो गए सभी
जब से छूटा वो जमीं। ।
क़दमों के चाल
संग जीवन के ताल
उदेश्य विहीन
नहीं कुछ तर्क अधीन
पथ पर सतत
यात्रा में रत
तन बसे कहीं
पर मन वहीं
डूबा प्रगाढ
मिट्टी संग याद
ए काश कही
हो जाये यही
घूमे जो काल
विपरीत कर चाल
फिर जियूं वहाँ
याद बसी जहाँ। ।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
ReplyDeleteआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज रविवार (30-09-2013) गुज़ारिश खाटू श्याम से :चर्चामंच 1399 में "मयंक का कोना" पर भी है!
हिन्दी पखवाड़े की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
शास्त्री जी हार्दिक आभार
Deleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
ReplyDeleteवाह
ReplyDeleteबस यही तो नहीं हो पाता ... समय बीतने के बाद वापस नहीं आता ... रह जाती हैं तो बस यादें ...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर.
ReplyDeleteवाह्ह सच है ... खो गए कही बचपन के दिन ... दादी नानी की कहानी ..गली मोहल्ले की रिश्तेदारी ... वो बीते पल लौट के न आएंगे दोबारा बस स्वर्णिम यादे ही है जो फिर फिर आती है तडपती है ..
ReplyDeleteबधाई इस सुन्दर रचना के लिए ... :)
धन्यबाद सुनीताजी ..
Deleteआपका आभार ...
ReplyDeleteबहुत ही बेहतरीन रचना....
ReplyDelete:-)