जीवन के हर लघु डगर पर
उम्मीदों के बल को भर कर
है कांटे या कली कुसुम का
राहों की उस मज़बूरी पर
कभी ध्यान उसपर न रखता
रोज कहानी नयी मैं गढ़ता ।।
सुबह-सुबह रवि है मुस्काए
या बैरी बादल उसे सताये
शिशिर सुबह की सर्द हवाए
या जेठ मास लू से अलसाए
उस पर मै न कभी विचरता
रोज कहानी नयी मैं गढ़ता ।।
हर दिन में एक सम्पूर्ण छवि है
ब्रह्म नहीं मानव का दिन है
कितने क्षण -पल है गुजरते
उन सबका अस्तित्व अलग है
हर क्षण को जी-जीकर कर ही बढ़ता
रोज कहानी नयी मैं गढ़ता ।।
मंजिल यही कहाँ है जाना
प्रारब्ध नहीं बस कर्म निभाना
हर कदम की महिमा न्यारी
जैसे बिनु दिन वर्ष बेचारी
कदम जमा कर आगे बढता
रोज कहानी नयी मैं गढ़ता ।।
पूर्ण जीवन एक महासमर है
हर दिन का संग्राम अलग है
अमोघ अस्त्र है पास न कोई
डटें रहना ही ध्येय मन्त्र है
घायल हो-होकर मै उठता
रोज कहानी नयी मैं गढ़ता ।।
परजीवी का भाव नहीं है
याचक सा स्वभाव नहीं है
आम मनुज दीखता हूँ बेवस
पर दानव सा संस्कार नहीं है
अपनी क्षुधा बुझाने हेतु
खुद का रक्त ही दोहन करता
रोज कहानी नयी मैं गढ़ता ।।
ज्यों-ज्यों रवि पस्त है होता
तिमिर द्वार पर दस्तक देता
जग अँधियारा मन प्रकाशमय
ह्रदय विजय से हर्षित होता
है संघर्ष पुनः अब कल का
पर बिता आज ख़ुशी मन कहता
रोज कहानी नयी मैं गढ़ता ।।
"रोज़ कहानी नयी मैं गढ़ता" का भाव बना रहे हर क्षण और दृढ़ से दृढ़तम होता जाए!
ReplyDeleteसुन्दर अभिव्यक्ति!
बहुत बढ़िया कविता.
ReplyDeleteआपका आभार ………
Deleteबहुत खुबसूरत लिखा ....
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद
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