मै कोई पथ प्रदर्शक
या तारणहार नहीं ,
उठती लहरों को मैं बांधू
ऐसा खेवनहार नहीं।
मेरे बातों में न कोई
भविष्य की पुकार सुने ,
मेरे उद्दगारों में अपने
सपनों के अल्फाज चुने।
मै तो हूँ बस पथिक राह का
कदम बढ़ता चलता हूँ ,
कंटक मार्ग या पुष्प शुषोभित
कर्म निभाता बढ़ता हूँ।
धरा धुल सा बेशक हूँ पर
इतना भी कमजोर नहीं ,
ठोकर खा मै सर चढ़ जाऊ
इन जोशो में नहीं कमी ,
अंगारे जब राह में पाया
दिल बेशक कुछ शुष्क हुआ
हिमवान सा धीरज धर मन
डगर शीतल अनुकूल किया।
मैं चाहूँ जिस राह से गुजरू
वहां न ही कोई शूल रहे
आने वाले पथिक न अटके
और पीड़ा से दूर रहे।
हो सकती है भूल ये संभव
राह अगर मै भटक गया ,
मुमकिन है दिग्भ्रमित होकर
कही बीच डगर में अटक गया।
कोशिश होगी अपनी दृष्टि
खुद अपने में लीन करू ,
सत्य पुंज जो राह दिखा दे
खुद को यूँ तल्लीन करूँ।
बहुत सुंदर .
ReplyDeleteनई पोस्ट : अद्भुत कला है : बातिक
सुखद अहसास की कविता
ReplyDeleteअति सुन्दर कविता.
ReplyDeleteबहुत सटीक अभिव्यक्ति..बहुत सुन्दर
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