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Saturday 28 September 2013

इज्जत का जनाजा है ...


इज्जत का जनाजा है 
बेशर्म आसुं बहा बहा रहे है,
बहरों की बाराती में
देखों भोपूं पे कई गा रहे है। ।

कौन किससे अर्ज करे
हर हाथों में शिकायत का लिफाफा है,
जिनको बिठाया है गौर करे
रौशन नजर उनका कहीं जाया है। ।

खुशहाली को बयां कैसे न करे
गोदाम अनाजों से नहाया है,
कमबख्त अंतरियों को खुद गलाते  है
अब तक कार्ड नहीं बनाया है। ।

मानणीयोँ को मान देना न भूले
कभी कदम बहक जाते है,
जम्हुरिअत इनसे ही जवां है
वरना कौन इसमें कदम बढ़ाते है। ।

हर कोई खफा है इन झोको से 
ये लौ बहक न जाये कही ,
आशियाने जो बनाये है ख्वावो के 
पल भर में धधक न जाये कही। ।  

Thursday 26 September 2013

सीमा

(चित्र :  गूगल साभार )
काश हम सब आपस  में
एकाकार हो पातें  ,
मानव अगर सीमाओं से
आजाद हो जाते। । 
कटीली तारों के जगह
अगर गुलिस्ता फूलो का होता
महक बारूद की न घुलती
वहां विरानियाँ न होता।
सरहदों के नाम न  कोई
सभी अनजान ही होते
मानव अगर सीमाओं से
आजाद हो पाते। ।
क्यों खिंची है ये रेखा
उलझते घिर रहे है हम
कही जाती का बंधन है
कभी सीमाओं पर लड़ते हम।
है धरती माँ अगर अपनी
हम संतान हो पाते
मानव अगर सीमाओं से
आजाद हो पाते। ।
कभी था विश्व रूप अपना
न कोई और थी पहचान
मानव बस मानव था 
अब भ्रम फैला है अज्ञान
वो संकीर्ण विचारो को
अगर हम मिटा पातें
मानव अगर सीमाओं से
आजाद हो पाते। ।
ये कैसी जकडन है
जो हम खुद को दबाते है
प्रकृति में कहाँ कही बंधन
मानव क्यों सिमटते जाते है
अगर इन बन्धनों से हम 
खुद को दूर कर पाते 
मानव अगर सीमाओं से
आजाद हो पाते। ।
अगर ऐसा जो हो पाता 
कभी रणभेरियाँ न बजता 
सरहदों सी मौत की रेखा 
वहां कभी रक्त न बहता 
इन्ही रक्तो से सिच कर धरती 
स्वर्ग सा रूप दे पाते  
मानव अगर सीमाओं से
आजाद हो पाते। ।     

Thursday 8 August 2013

शहादत मुद्दे में कही खो जाते ।

सब उठाते इसे अपने अंदाज में ,
हर किसी को फ़िक्र करना आता है ,
हुतात्मा 
आवेश में विषरहित आवेशित हो कर
चहू ओर अपनों पर फुफकारना आता है ।

फ़िक्र अपने-अपने सियासती रोजी-रोटी की
बटखरा ले विचारों का,तौलने में उलझे पड़े,
शरहदों पे बिखरे लाश को किस पाले में रखे
की नाकामियों का भार कही और पड़े ।

है लोहा गरम अभी चोट कर लेने दो
जवानों को जो खोया कुछ तो मोल लेने दो ,
हम इस पाले  में हो या उस पाले में,
हमें अपनी नजर से दर्द  देख लेने दो।

जाने कौन किसके दर्द को महसूस करता है,
उन माँ का जिसने खोया जिगर  का टुकरा ,
या चंद नीति के नियंता जिनके खद्दर पर लगा ,
चोटित अस्मिता की मवाद का धब्बा ।

उलझती नीतिया  चित्र : गूगल साभार
बहते हुए लहू किसकी प्यास बुझाती है
कुछ अपने भी है जो इसे पानी समझते है,
नाकामियों को कफ़न से ढकते ही आये
धब्बा नहीं बस लिपटे तिरंगो में शान देखते है।

दुश्मनों से दोस्ती की आश में यहाँ
खंजर खाने को बहादुरी माने बैठे ,
चमक धार की कुछ तो दिखाना लाजिम है ,
की कांपते हाथ से अमन की कामना वो भी करे।

ये शरहद पे खड़े नौजवान वीर बेचारे,
देश के अरमानो का बोझ संभाले ,
उफ़ न करते बंधे इक्छा पर कुर्बान हो जाते ,
किन्तु हर बार इनकी शहादत मुद्दे में कही खो जाते। ।