Showing posts with label नफरत. Show all posts
Showing posts with label नफरत. Show all posts

Tuesday, 27 September 2016

प्रवाह...


बादलो का कोई कोना छिटककर 
जैसे फ़ैल गया मेरे चारो ओर , 
और मैं घिर गया 
किसी  अँधेरी गुफा में। 
साँसों का उच्छ्वास टकराकर 
उस बादलो से ,
गूंजती थी नसों के दीवारों में 
न सुंझाता कुछ, 
फिर फैलते रक्त की लालिमा 
जाने कैसे उस कालिखो पर भी 
घिर कर उभर आया ।  
बीते आदिम मानव के कल का चित्रण 
या उन्नतशील होने का द्वन्द ,
संहार के नित नए मानक 
गर्वोक्ति संग उद्घोषणा , 
बैठे कर विचार करते सब आपस में 
कैसे हम रक्त पिपासु बने।  
कहीं इतिहास तो नहीं दोहरा रहा 
अब आदिम मानव रूप बदल ,
अपने गुणों का बखान कर रहे। 
अनवरत सदियो के फासले 
नाप कर भी 
उद्भव का संक्रमण 
शायद हमारे रुधिर में 
उसी प्रवाह के साथ विदयमान है। 
झटक कर मस्तिष्क झकझोड़ा 
छिटकते धुंध से बाहर आया 
या उन रौशनी में 
जहाँ शायद कुछ दीखता नहीं। 
पता नहीं क्या ?

Monday, 26 October 2015

......दरार ...

दरारें दिखती है    
दरकती और दहकती सी 
सब कुछ खामोश है ,
बस जैसे ऊपर वाष्प आच्छादित हो 
और नीचे पानी में उबाल है। 
मौन अंदर ही अंदर चीखता है 
काश कोई दिल की आवाज सुने 
किस कदर प्यासे है 
जैसे की धरती अब बंजर हो चली हो। 
आक्रोश और नफरत 
भरे बाजार बिक रहे है 
प्रेम के सौदाई ने नए मुकाम गढ़े 
और नफरत को प्रेम से दिल में बसाया है। 
हकीकत है कि चिंता के लिए 
सभी चिंतित होते है 
रहनुमाओ की फ़ौज तलाश रही है 
इन चिन्ताओ को अपने रहनुमा के लिये। 
अपने ढर्रे पे  तो जिंदगी  लौट ही आती है
कभी रुकी तो नहीं 
बस कुछ के सितारे विलीन हो जाते 
और कितनो के सितारे इसमें चमक जाते है।

Thursday, 19 September 2013

बिंब

ऊपर खुला आसमान
निचे अनगिनत निगाहें
निगाहों जुडी हुई
अनगिनत तंत्र सी रेखाएं,
मन में प्रतिबिंब का क्या है मायना 
जिससे जुड़ी है सभी निगाहों का कोरा आयना।
क्या बिंब सभी की आँखों में
बस एक सा उभरता है
क्या देखते है हम ,
क्या देखना चाहते है
फर्क दोनों में पता नहीं ,
ये तंत्र कैसे कर पाते है?
बादलो से छिटकती किरणे
देव के मस्तष्क की आभा
किसी में  उभर आता है,
कोई घनी केसुओ को लहराते हुए
देख कर मचल जाता है।
चाँद में किसी को दाग नजर आता है ,
कोई सुन्दरता का पैमाना उसे गढ़ जाता है।
अनगिनत टिमटिमाते तारों की लड़ी
सर्द हाथों में गरमाहट की उमंग है ,
किसी को व्याकुल पौष में शोक का तरंग है।
पथ्थर को देव मान कोई पूजता है ,
कोई उसी से रक्त चूसता  है।
तंत्र की संरचना में कोई फर्क नहीं ,
तत्व हर एक में बस है एक सा ही,
फिर ये दोष कहाँ से उभर आता है,
है आखिर क्या जो बिंब के भावों को गढ़ पाता है ?
एक ही बिंब को हर दृष्टि में बदल जाता है ?

Wednesday, 11 September 2013

नफरत की दिवार

क्या दीवार हमने बनाई है, 
न इंट न सीमेंट की चिनाई है ,
पानी नहीं लहू से सिचतें है हम , 
कभी-कभी रेत की जगह, 
इंसानों के मांस पिसते है हम। ।  
पुरातन अवशेषों से भी नीचे 
धसी है नींव की गहराई ,
शुष्क आँखों से दिखती नहीं 
बस दिलों में तैरती है परछाई। । 
भूतो का भय दिखाकर 
भविष्य ये बांटता है 
धधकती है आग इसके रगड़ से 
इन पर बैठकर कोई 
अपना हाथ तापता है। ।   
जाने कब कहाँ ये खड़ी हो जाये 
ख़ुशी के खेत थे जहाँ 
नागफनी पनप जाये। 
ये दिवार सब सोंखता है 
इन्सान का इंसानियत पोंछता है 
क्या मासूम ,क्या बुजुर्ग ,क्या महिलाये
कल तक जो मिले थे गले से गले 
इनमे टकराकर इसमें समां गए 
कुछ उठी और ऊँची 
और जाने कब-कब टकराते गए। । 
कुछ के  कफ़न से ढककर 
ये दिवार छुप सा जाता है 
शायद इस बार टूट गई 
ऐसा भ्रम दिखा जाता है। । 
प्रेम दरककर जब जुट जाता 
गांठ भी साथ अपने  ले आता 
ये दरककर जब जुटते है 
और मजबूत होकर उठते है। 
इन्सान कैसे हैवान है 
ये इसका सबूत होता है 
इसे गिराना है मुश्किल 
नफरत की दिवार
बहुत मजबूत होता है। ।