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Sunday, 13 October 2013

रावण दहन


                
 स्वधर्म का बोध नहीं रहा 
बिंबों  पर कुंठा निकालते है 
कितने चिंगारी भरकाने वाले 
दशानन पर तीर चलाते है।  
पुरातन को ढोते आये  
वर्तमान को खोते जाते है 
अपने ग्रह का ध्यान नहीं 
नव ग्रह की चिंता जताते है।  
मौके की तलाश है बस 
छद्म भेष में मारीच छाये है
जलते दशानन हर वर्ष की भांति 
फिर खुद के हाथ जलने आये है। । 

------मंगलकामना एवं विजयादशमी की
 हार्दिक शुभकामनाओं सहित-------------- 

Thursday, 19 September 2013

बिंब

ऊपर खुला आसमान
निचे अनगिनत निगाहें
निगाहों जुडी हुई
अनगिनत तंत्र सी रेखाएं,
मन में प्रतिबिंब का क्या है मायना 
जिससे जुड़ी है सभी निगाहों का कोरा आयना।
क्या बिंब सभी की आँखों में
बस एक सा उभरता है
क्या देखते है हम ,
क्या देखना चाहते है
फर्क दोनों में पता नहीं ,
ये तंत्र कैसे कर पाते है?
बादलो से छिटकती किरणे
देव के मस्तष्क की आभा
किसी में  उभर आता है,
कोई घनी केसुओ को लहराते हुए
देख कर मचल जाता है।
चाँद में किसी को दाग नजर आता है ,
कोई सुन्दरता का पैमाना उसे गढ़ जाता है।
अनगिनत टिमटिमाते तारों की लड़ी
सर्द हाथों में गरमाहट की उमंग है ,
किसी को व्याकुल पौष में शोक का तरंग है।
पथ्थर को देव मान कोई पूजता है ,
कोई उसी से रक्त चूसता  है।
तंत्र की संरचना में कोई फर्क नहीं ,
तत्व हर एक में बस है एक सा ही,
फिर ये दोष कहाँ से उभर आता है,
है आखिर क्या जो बिंब के भावों को गढ़ पाता है ?
एक ही बिंब को हर दृष्टि में बदल जाता है ?