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Tuesday, 27 September 2016

प्रवाह...


बादलो का कोई कोना छिटककर 
जैसे फ़ैल गया मेरे चारो ओर , 
और मैं घिर गया 
किसी  अँधेरी गुफा में। 
साँसों का उच्छ्वास टकराकर 
उस बादलो से ,
गूंजती थी नसों के दीवारों में 
न सुंझाता कुछ, 
फिर फैलते रक्त की लालिमा 
जाने कैसे उस कालिखो पर भी 
घिर कर उभर आया ।  
बीते आदिम मानव के कल का चित्रण 
या उन्नतशील होने का द्वन्द ,
संहार के नित नए मानक 
गर्वोक्ति संग उद्घोषणा , 
बैठे कर विचार करते सब आपस में 
कैसे हम रक्त पिपासु बने।  
कहीं इतिहास तो नहीं दोहरा रहा 
अब आदिम मानव रूप बदल ,
अपने गुणों का बखान कर रहे। 
अनवरत सदियो के फासले 
नाप कर भी 
उद्भव का संक्रमण 
शायद हमारे रुधिर में 
उसी प्रवाह के साथ विदयमान है। 
झटक कर मस्तिष्क झकझोड़ा 
छिटकते धुंध से बाहर आया 
या उन रौशनी में 
जहाँ शायद कुछ दीखता नहीं। 
पता नहीं क्या ?

Saturday, 27 August 2016

दाना मांझी के बहाने



हम संवेदनशील होने का दम्भ भरते ,
पर जाने वो कब का दम तोड़ चूका है।
कभी -कभी हम दाना मांझी के बहाने
हर ओर से चीत्कार कर,
उस संवेदनशीलता की छाती पर चढ़ बैढ़ते।
इस आशा में की कही ,
इन शब्दो का प्रहार जो कुछ दिन तक मुँह बाएँ,
टीवी की ड्राइंग रूम से ,नुक्कड़ खाने तक
कुत्ते की रोती कर्कश आवाजो में भौकेगा।
शायद संवेदनशीलता जाग जाए।।
किन्तु वो तो कब का जा चूका ,
जब से दुनिया बाजार
और इंसान सिर्फ खरीदार बन के रह गया,
ये ना किसी मांझी की चिंता है
न किसी के दाना की ,
बस सरोकार इस संवेदन के बहाने
बाजारों का सांस चलते रहने की ,
बेसक उसकी कीमत
इंसानी सांस ही क्यों न हो ,
इंसान तो जाने के लिए ही आया है
बाजार का जिन्दा रहना ज्यादा जरुरी है
क्योंकि जब तक हम है
हमें बाजार की जरुरत के बारे में
घुटी में मिलाकर बताया गया है।
ऐसे कितने जिन्दा और मुर्दा लाश 
हम सबके कंधे पर रोज ही घूमता है। 
और हम सब इस इसे न देख 
बस ढूंढते की अगला मांझी
कब इस गठरी को अपने कंधे पर ले निकले 
और फिर हम संवेदना को तलाशे । ।

Wednesday, 28 October 2015

इच्छाएं ...

आसमान की गहराई अनंत
जैसे हमारी इच्छाएं  ,
गहराते बादल बस उसे ढकने का
चिरंतन से करता विफल प्रयास
दर्शन मोह से विच्छेदित कर
आवरण चढ़ाने को तत्पर  ,
एक झोंका फिर से
उस गहराई को अनावृत कर देता।
और फिर से अनगिनत
टिमटिमाते तारे की तरह
प्रस्फुटित हो आते
कुछ नई लतिकाओं की चाह ,
जब  धीर गंभीर सागर भी
मचल जाते है चन्द्र से बसीभूत हो
तो हम तो मानव है।
सम्मोहन के लहरों 
पर सवार हो उसे पाने की प्रवृति
ही तो  प्रकृति प्रदत है ,
उत्तकंठ लालसा छदम दर्शन से त्याग 
कर्म सापेक्ष न हो 
कही अकर्यमन्यता का पर्याय तो नहीं। । 

Friday, 25 September 2015

अक्षर ,शब्द और हमारे मायने....

शब्द जैसे मात्र अक्षरो का समूह
अपने अर्थ की तलाश में ,
एक दूसरे से टकराते और लिपटते।
वाक्य बस शब्दों का मेल,
आगे और पीछे खोजते अपने लिए
इक उपयुक्त स्थान ,
अपने होने का निहतार्थ और पुर्णता के लिए।
किन्तु एक मात्रा ,अक्षर ,शब्द या वाक्य
सब तो अपने आप मे परिपूर्ण है,
और फिर भी बदल जाते भाव संग सार भी ,
जब समुच्चय में उपयुक्त न स्थान है।
ये तो बस कठपुतली मात्र  है,
किसी सोच और संकल्पना की
जो उभारते है बनके मात्र साधन,
किन्तु खुद झेलते है दंश 
अनर्थ के अपमान का,
त्रिस्कृत  और धिक्कार शब्दों सा । 
पूर्णता भी स्थान और संग में
अपना चेहरा बदलता  है,
अक्षर और शब्दों का विन्यास
शायद ऐसा ही कुछ कहता है।
हमारे अर्थ भी किसी के साथ होने 
या न होने के मायने तय करते है। 
एक उपयुक्त स्थान,
मानक न कोई आगे या पीछे का 
निहित जीवन ध्येय तब ही पूर्ण होते है ।