हम संवेदनशील होने का दम्भ भरते ,
पर जाने वो कब का दम तोड़ चूका है।
कभी -कभी हम दाना मांझी के बहाने
हर ओर से चीत्कार कर,
उस संवेदनशीलता की छाती पर चढ़ बैढ़ते।
इस आशा में की कही ,
इन शब्दो का प्रहार जो कुछ दिन तक मुँह बाएँ,
टीवी की ड्राइंग रूम से ,नुक्कड़ खाने तक
कुत्ते की रोती कर्कश आवाजो में भौकेगा।
शायद संवेदनशीलता जाग जाए।।
किन्तु वो तो कब का जा चूका ,
जब से दुनिया बाजार
और इंसान सिर्फ खरीदार बन के रह गया,
ये ना किसी मांझी की चिंता है
न किसी के दाना की ,
बस सरोकार इस संवेदन के बहाने
बाजारों का सांस चलते रहने की ,
बेसक उसकी कीमत
इंसानी सांस ही क्यों न हो ,
इंसान तो जाने के लिए ही आया है
बाजार का जिन्दा रहना ज्यादा जरुरी है
क्योंकि जब तक हम है
हमें बाजार की जरुरत के बारे में
घुटी में मिलाकर बताया गया है।
ऐसे कितने जिन्दा और मुर्दा लाश
हम सबके कंधे पर रोज ही घूमता है।
और हम सब इस इसे न देख
बस ढूंढते की अगला मांझी
कब इस गठरी को अपने कंधे पर ले निकले
और फिर हम संवेदना को तलाशे । ।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (28-08-2016) को "माता का आराधन" (चर्चा अंक-2448) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
माँझी की गठरी संवेदना की गठरी भी सब की सुविधानुसार ही बनती है ... माँझी तो फिर भी चल लेगा पर संवेदना ... वो तो मर ही चुकी है तो क्या जागेगी ....
ReplyDeleteमाँझी तो बस एक आईना है हमारी कुरूपता का । सटीक ।
ReplyDeleteआपकी ब्लॉग पोस्ट को आज की ब्लॉग बुलेटिन प्रस्तुति ऋषिकेश मुखर्जी और मुकेश - ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। सादर ... अभिनन्दन।।
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